ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन

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पानी, समाज और सरकार (किताब)

पानी की कमी के कारण प्रति हेक्टेयर पैदावार घट रही है, हिमनदियों का सिकुड़ना, बीमारियों में वृद्धि और अनेक प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा लगातार बढ़ रहा है। विकसित देशों ने वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को कम करने के लिए अनेक कदम उठाने की सिफारिश की है। इन कदमों में विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को अधिक से अधिक जंगल लगाने और मीथेन गैस का उत्सर्जन कम करने को कहा जा रहा है। पिछले कुछ सालों से पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों, मीडियाकर्मियों, जनप्रतिनिधियों तथा शिक्षित समाज के बीच ग्लोबल वार्मिंग एवं उसके कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन पर बहस शुरू हुई है। इस बहस में धरती पर जलवायु परिवर्तन की संभावना से लेकर उसके मानव सभ्यता एवं समस्त जीवधारियों पर पड़ने वाले संभावित प्रभाव के बारे में विभिन्न लोग अपनी राय जाहिर कर रहे हैं और अपनी-अपनी समझ के अनुसार संभावित परिवर्तनों पर अपना दृष्टिकोण रख रहे हैं।

इस चर्चा में वे सारी बातें कही जा रही हैं जो धरती के तापमान, होने वाली बरसात, पानी की क्षेत्रीय उपलब्धता पिघलती बर्फ, लुप्त होती वनस्पतियों और जीव जंतुओं से किसी न किसी रूप में जुड़ी हैं। अनेक बार कहा जाता है कि जलवायु परिवर्तन की दिशा को बदला नहीं गया तो धरती पर मानव जीवन समाप्त हो जाएगा।

उल्लेखनीय है कि सन 1824 में जोसेफ फोरियर ने ग्रीनहाउस प्रभाव की खोज की थी। बीसवीं सदी के मध्यकाल के बाद युनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कंवेशन आन क्लाइमेट चेंज द्वारा मानवीय गतिविधियों के कारण होने वाले तापमान के परिवर्तन को जलवायु परिवर्तन और खगोलीय कारणों से होने वाले परिवर्तन को जलवायु बदलाव कहा है।

गौरतलब है कि इस किताब में जलवायु परिवर्तन तथा जलवायु बदलाव को उपरोक्त परिभाषा के अनुसार ही प्रयुक्त किया है।

पिछले कई सालों से समुद्र के पानी और धरती के पास के वातावरण के गर्म होने के प्रमाण मिल रहे हैं। पिछले सौ साल में तापमान में हुआ बदलाव लगभग 0.74 ± 0.18 डिग्री सेंटीग्रेड है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में धरती के वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में तेजी से इजाफा हुआ है।

मासिक आंकड़ों के अवलोकन से पता चलता है कि उत्तरी गोलार्ध के वातवरण में कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकतम मात्रा बसंत ऋतु के अंतिम चरण में और सबसे कम मात्रा फसलों के वृद्धि काल में होती है। कार्बन डाइऑक्साइड के अलावा पानी की भाप, मीथेन, ओजोन और नाइट्रस ऑक्साइड भी वातावरण को गर्म करने में सहयोग देते हैं। वातावरण में उपर्युक्त गैसों की मात्रा को बढ़ाने में विभिन्न देशों का योगदान एक जैसा नहीं है। इस योगदान के लिए किसी हद तक औद्योगिकरण, सतत बढ़ती मानवीय गतिविधियां एवं आधुनिक जीवनशैली जिम्मेदार हैं।

अधिकांश वैज्ञानिकों की मान्यता है कि वातावरण में उपर्युक्त गैसों की बढ़ती मात्रा ही जलवायु परिवर्तन का कारण है। उनके अनुसार धरती के वातावरण के तापमान में वृद्धि का कारण ग्रीनहाउस गैसों के परमाणुओं द्वारा सोलर रेडिएशन की कुछ मात्रा का सोखा जाना है। वातावरण के तापमान की वृद्धि को ही ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाता है।

अनुमान है कि जैसे-जैसे धरती के वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बढ़ेगी वैसे-वैसे सोलर रेडिएशन का सोखना बढ़ेगा और वातावरण के तापमान में और अधिक बढ़ोतरी होगी। वातावरण के तापमान के बढ़ने से वाष्पीकरण बढ़ेगा जो वातावरण में भाप की मात्रा को बढ़ाएगा। पानी के स्रोतों को जल्दी सुखाएगा।

अनुमान है कि एक डिग्री तापमान बढ़ने से वाष्पीकरण में लगभग 7 प्रतिशत की वृद्धि होती है। ग्रीनहाउस प्रभाव पैदा करने में भाप का योगदान सबसे अधिक अर्थात 36 से 70 प्रतिशत है। कार्बन डाइऑक्साइड का योगदान 9 से 26 प्रतिशत, मीथेन गैस का योगदान 4 से 9 प्रतिशत और ओजोन गैस का योगदान 3 से 7 प्रतिशत है।

युनाइटेड नेशन्स के घटक, इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के अनुसार वातवरण में मौजूद ग्रीनहाउस गैसों के असर से समुद्रों का पानी अम्लीय हो रहा है, असामान्य मौसमी घटनाओं में वृद्धि हो रही है, बरसात की मात्रा, तीव्रता और वितरण बदल रहा है, कम पानी बरसने से सूखा संभावित क्षेत्रों और मरुस्थलों के इलाके में इजाफा हो रहा है।

पानी की कमी के कारण प्रति हेक्टेयर पैदावार घट रही है, हिमनदियों का सिकुड़ना, बीमारियों में वृद्धि और अनेक प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा लगातार बढ़ रहा है। विकसित देशों ने वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को कम करने के लिए अनेक कदम उठाने की सिफारिश की है। इन कदमों में विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को अधिक से अधिक जंगल लगाने और मीथेन गैस का उत्सर्जन कम करने को कहा जा रहा है।

दावा किया जा रहा है कि सुझाए गए कदम उठाने से धरती के वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड एवं मीथेन गैस की मात्रा कम होगी। उनकी मात्रा कम होने से धरती का तापमान कम होगा, बरसात का संतुलन यथावत कायम रहेगा और मानवजाति का महाविनाश टल जाएगा। इस महाविनाश को टालने में भारत, चीन और ब्राजील जैसे विकासशील देशों से बहुत अधिक अपेक्षाएं की जा रही हैं पर यूरोपीय और उत्तरी अमेरिका जैसे विकसित देशों के आटोमोबाइल उत्पादों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने के मामले में पश्चिम की अपेक्षाएं उतनी मुखर नहीं हैं।

धरती के इतिहास की समझ रखने वाले भू-वैज्ञानिकों के मत में ग्लोबल वार्मिंग की घटना, नई घटना नहीं है। मनुष्य के धरती पर पैदा होने के करोड़ों साल पहले से धरती पर ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु बदलाव की घटनाएं अनेक बार घट चुकी हैं। इसके कारण धरती पर ग्लेशियर युग (हिमयुग) एवं इंटरग्लेशियर युग (दो हिमयुगों के बीच का अपेक्षाकृत गर्म समय) आते-जाते रहते हैं। सब जानते हैं कि हिमयुग में धरती के बड़े भूभाग का तापमान कम हो जाता है।

तापमान कम होने के कारण धरती के बड़े भूभाग को बर्फ की चादर और ग्लेशियर ढंक देते हैं। बड़ी मात्रा में पानी के बर्फ बनने के कारण समुद्र के पानी का स्तर घट जाता है। इंटरग्लेशियर युग में तापमान बढ़ता है, बर्फ पिघलती है, हिमनदियां पीछे हटती हैं, समुद्र को बड़ी मात्रा में पानी मिलता है और समुद्र के पानी का स्तर ऊपर उठ जाता है।

जलवायु के इस बदलाव का जीव-जंतुओं और वनस्पतियों पर असर पड़ता हैं जो जीव-जंतु और वनस्पतियां मौसम के बदलाव को झेल लेती हैं, बच जाती हैं और जो नहीं झेल पातीं वे नष्ट हो जाती हैं। यह प्रकृति का चक्र है जो धरती पर लगातार चल रहा है।

खगोलीय कारणों से नियंत्रित इस प्राकृतिक चक्र को बदलना या उसकी दिशा को पलटना मनुष्य के बस में नहीं है क्योंकि जलवायु बदलाव का यह प्राकृतिक चक्र, खगोलीय शक्तियों से नियंत्रित होता है। जैसे धरती पर हर साल सर्दी और गर्मी का मौसम आता-जाता है, जैसे दिन और रात का समय कम और ज्यादा होता रहता है, उसी तरह हिमयुग में बर्फ की चादर का विस्तार और इंटरग्लेशियर युग में उसका कम होना प्राकृतिक घटना है। यह घटनाक्रम भविष्य में भी चलता रहेगा।

भू-वैज्ञानिक प्रमाणों के अनुसार प्राकृतिक चक्र द्वारा नियंत्रित जलवायु का यह बदलाव, मनुष्य के जन्म के बहुत पहले, उस समय से हो रहा है जब से धरती बनी है। यह बदलाव भविष्य में भी होगा। नई प्रजातियां धरती पर जन्म लेंगी, पुरानी प्रजातियां अपनी बारी आने पर लुप्त होंगी।

उपर्युक्त उल्लेख का मंतव्य मौसम में हो रहे प्रतिकूल बदलावों की रोकथाम के लिए उठाए कदमों को नकारना नहीं है। धरती पर मौसम में हो रहे प्रतिकूल बदलाव एवं उसके तापमान में बढ़ोतरी, एक ऐसी वास्तविकता है जिसे नकारना संभव भी नहीं है। सब जानते हैं कि धरती पर सबसे अधिक बर्फ का जमाव उत्तर ध्रुव (ग्रीनलैंड) और दक्षिण ध्रुव (एंटार्कटिका) में है। यही वे इलाके हैं जहां सबसे अधिक ठंड पड़ती है पर अब ग्रीनलैंड और एंटार्कटिका का वातावरण गर्म हो रहा है।

धरती पर ग्लेशियर्स के पिघलने के प्रमाण सन 1800 से मिलने लगे है। अनुमान है कि यदि ग्रीनलैंड की सारी बर्फ पिघल गई तो समुद्र के स्तर में लगभग सात मीटर की बढ़ोतरी होगी। इस बढ़ोतरी के कारण मालदीव, मुंबई जैसे अनेक शहर जो समुद्र के किनारे बसे हैं, पानी में डूब जाएंगे। वैज्ञानिक अवलोकनों से पता चलता है कि हाल के सालों में ग्रीनलैंड का औसत तापमान 5 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है तथा बर्फ पिघलने की गति साल दर साल बढ़ रही है।

एंटार्कटिका के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बर्फ का भंडार ग्रीनलैंड द्वीप में है। इस द्वीप पर स्थित अनुसंधान केन्द्र द्वारा बर्फ की चादर में ड्रिलिंग की जा रही है। ड्रिलिंग से प्राप्त सेम्पलों के अध्ययन से बर्फ के जमा होने वाले साल की जलवायु, तापमान, वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा इत्यादि के बारे में जानकारी मिल सकेगी।

’अनुमान है कि 2500 मीटर की गहराई पर मौजूद बर्फ के नमूने से 1.2 लाख साल पहले की जलवायु के बारे में जानकारी मिलेगी। वैज्ञानिकों के अनुसार ग्रीनलैंड और एंटार्कटिका का पर्यावरण, दुनिया की जलवायु परिवर्तन का बैरोमीटर हैं यह सर्वविदित है कि ग्रीनलैंड और एंटार्कटिका की बर्फ की मौजूदा चादरें पुराने हिम युग की अवशेष हैं।

धरती पर ग्लेशियर्स के पिघलने के प्रमाण सन 1800 से मिलने लगे है। अनुमान है कि यदि ग्रीनलैंड की सारी बर्फ पिघल गई तो समुद्र के स्तर में लगभग सात मीटर की बढ़ोतरी होगी। इस बढ़ोतरी के कारण मालदीव, मुंबई जैसे अनेक शहर जो समुद्र के किनारे बसे हैं, पानी में डूब जाएंगे। वैज्ञानिक अवलोकनों से पता चलता है कि हाल के सालों में ग्रीनलैंड का औसत तापमान 5 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है तथा बर्फ पिघलने की गति साल दर साल बढ़ रही है।

अवलोकनों से पता चलता है कि सन 2007 में, सन 2006 की अपेक्षा 30 प्रतिशत बर्फ अधिक गली है। सन 1993 और 2003 के बीच ग्रीनलैंड के दक्षिण पश्चिम में स्थित सरमेंक कुजालेक्र ग्लेशियर के पिघलने की सालाना दर लगभग 12.6 किलोमीटर हो गई है। दूसरी ओर, दक्षिण ध्रुव पर स्थित एंटार्कटिका में बर्फ का तेजी से पिघलना जारी है। नेचर जियोसाइंस (भाग 1, खंड 2) में प्रकाशित लेख से पता चलता है कि पिछले 10 सालों में दक्षिण ध्रुव पर जमी बर्फ की चादर के टूटकर समुद्र में गिरने की घटनाओं में 75 प्रतिशत की तेजी आई है और समुद्रों में पानी का स्तर बढ़ रहा है।

डाउन टू अर्थ (30 अप्रैल, 2008, पृष्ठ 58) में छपी जानकारी के अनुसार समुद्र पानी के विशाल भंडार मात्र नहीं हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, धरती पर जीवन की निरंतरता तथा बरसात की उत्पति के लिए वे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। गलेबल वार्मिंग और जलवायु के परिवर्तन के कारण समुद्र के स्थायित्व और उसकी जैविक उत्पादकता के लिए अनेक चुनौतियां उत्पन्न हो गईं हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार कर्क और मकर रेखा के इलाके के उथले समुद्रों में सन 2100 तक तीन डिग्री सेंटीग्रेड तक तापमान में वृद्धि संभव है। इस बदलाव के कारण वाष्पीकरण में वृद्धि के अलावा सन 2080 तक पश्चिमी पैसिफिक महासागर, हिंद महासागर, पर्शिया की खाड़ी, मिडिल ईस्ट और वेस्ट इंडीज द्वीप समूह में 80 से 100 प्रतिशत कोरल-रीफ के समाप्त होने का खतरा है। अनुमान है कि जैसे-जैसे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ेगी वैसे-वैसे समुद्रों का पानी अधिक अम्लीय होता जाएगा।

इस अम्लीय पानी का असर ठंडे पानी की कोरल-रीफ और घोंघों की प्रजाति के समुद्री जीवों पर पड़ेगा। मानवीय गतिविधियों और खगोलीय कारणों से हो रहे जलवायु बदलाव के कारण, समुद्री पानी में ऑक्सीजन की कमी वाले इलाके (संख्या) बढ़ रहे हैं। गौरतलब है कि सन 2003 में ऑक्सीजन की कमी वाले क्षेत्रों की संख्या 149 थी जो सन 2006 में बढ़कर 200 हो गई है। इस बदलाव के कारण प्रभावित इलाकों में मछलियों की पैदावार घटी है।

विश्व बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न (2006) के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्था में लगभग 20 प्रतिशत की कमी आ सकती है। इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री के अनुसार समुद्र तल के ऊपर उठने के कारण लगभग 10 करोड़ लोग विस्थापित होंगे। हर छठवां व्यक्ति जल कष्ट से पीड़ित होगा। बरसात घटेगी, सूखे के इलाकों में पांच गुना वृद्धि होने के कारण लाखों लोग जल शरणार्थी बनेंगे। पानी की कमी के कारण जंगली जानवरों के जीवन पर गंभीर खतरा होगा और लगभग 40 प्रतिशत प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी।

वैज्ञानिकों ने कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन गैस को ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण माना है। कोयले और पेट्रोलियम पदार्थों के अधिकाधिक बढ़ते उपयोग के कारण वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा लगातार बढ़ रही है। पूरी दुनिया में कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का 93 प्रतिशत अकेले बिजली उत्पादन के कारण है। इसी तरह कारों और वायुयानों में गेसोलिन के कारण भी वातावरण को भारी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसें मिल रही हैं।

इसके अलावा, चावल के खेतों की क्षारीय मिट्टी के ऑक्सीजन विहीन वातावरण में होने वाली सड़न और जानवरों के पेट में पैदा होने वाली गैसों के कारण धरती पर मीथेन गैस की मात्रा लगातार बढ़ रही है। भारत चूंकि चावल उत्पादक देश है और उसके पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भाग की कार्बन समृद्ध मिट्टी में चावल पैदा किया जाता है इसलिए भारत के वास्तविक योगदान को तय करने के लिए, अनुमानों के स्थान पर, प्रयोग आधारित वास्तविक आकलन की जरूरत है।

विश्व संसाधन संस्था, वाशिंगटन के अध्ययन के अनुसार हार्ड-कोयले के उत्पादन, प्राकृतिक गैस के अन्वेषण तथा परिवहन, जल-मल निपटान (सीवर) संयंत्र एवं नगरीय अपशिष्टों को जमीन की सतह के नीचे दबाने वाली भूमिगत निपटान व्यवस्था के कारण भी पानी का प्रति व्यक्ति खर्च तथा वायुमंडल में मीथेन गैस की मात्रा बढ़ रही है। इसके अलावा साइबेरिया की कड़कड़ाती ठंड के कारण स्थायी रूप से ठोस हुए पीट बाग्स (कच्चे कोयले के भंडारों) के गर्म होने के कारण, उनसे मीथेन गैस के उत्सर्जन की परिस्थितियां बन रही हैं।

आईपीसीसी के अनुसार पिछले 250 सालों में धरती के वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड गैस की मात्रा 280 पीपीएम (पार्ट पर मिलियन अर्थात दस लाख भाग में एक भाग) से बढ़कर 379 पीपीएम हो गई है। आईपीसीसी के अनुसार पिछले लगभग 1000 साल तक तापमान के स्थिर रहने के बाद सन 1800 से उसमें तेजी से बदलाव शुरू हुआ है।

ड्यूक युनिवर्सिटी के ब्रूस वेस्ट और निकोला स्केफटा के अनुसार सन 1900 से 2000 के बीच तापमान की बढ़ोतरी का लगभग 45 से 50 प्रतिशत हिस्सा सूर्य के रेडिएशन के प्रभाव से हुआ है। ब्रूस वेस्ट और निकोला स्केफटा के अनुसार तापमान बढ़ोतरी का 25 से 35 प्रतिशत तो संभवतः सन 1980 और 2000 के बीच हुआ है। पीटर स्काट और उनके अनुसंधान दल के अनुसार ग्रीनहाउस प्रभाव में गैसों के प्रभाव को बढ़ा चढ़ाकर और सोलर रेडिएशन के प्रभाव को कम कर के पेश किया जा रहा है।

आईपीसीसी के आंकड़े बताते हैं कि सन 2007 में वातावरण में सभी ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा 430 पीपीएम थी। क्योटो प्रोटोकाल के अनुसार सभी देशों को सन 1990 की स्थिति को आधार वर्ष मानते हुए सन 2008-12 तक ग्रीनहाउस गैसों में 5.2 प्रतिशत की कमी करना है पर कोई भी देश इस पर अमल करता प्रतीत नहीं होता। धनवान और विकसित देशों (यूएसए में 16 प्रतिशत, कनाडा और आस्ट्रेलिया में 25-30 प्रतिशत) में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बहुत तेजी से बढ़ा है।

आईपीसीसी की चौथी आकलन रिपोर्ट (2007) के अनुसार सन 2100 तक वातावरण में कुल ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा कठोर कदम उठाने की हालत में 420 पीपीएम, कुछ कदम उठाने की हालत में 600 पीपीएम और कोई कदम नहीं उठाने की हालत में 1,250 पीपीएम हो सकती है। उठाए कदमों के अनुसार तापमान वृद्धि क्रमशः 0.6 डिग्री, 1.8 डिग्री और 3.4 डिग्री सेंटीग्रेड हो सकती है।

अनिल अग्रवाल एवं सुनीता नारायण (ग्लोबल वार्मिंग इन एन अनइक्वल वर्ल्ड, पेज 6, 1991) ने विश्व संसाधन संस्था, वाशिंगटन के चावल के खेतों और पशुधन से उत्सर्जित मीथेन के आंकड़ों से असहमति जताते हुए भारत के संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाया है। अनिल अग्रवाल एवं सुनीता नारायण के अनुसार, कुल उत्सर्जित मीथेन का दो तिहाई हिस्सा अकेले कनाडा और अमेरिका की देन है।

ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में एक अमेरिकी 8150 भारतीयों के बराबर है। आईपीसीसी के अध्यक्ष आरके पचौरी का कहना है कि जलवायु परिवर्तन मानव निर्मित समस्या है इसलिए दुनिया भर में इससे बचने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।

भारत के समुद्र तटीय पूर्वी मैदानों, पूर्वी घाट, उत्तर की पहाड़ियों, पश्चिमी घाट और उत्तर पूर्व की पहाड़ियों में बरसात का औसत सुधरा है। महाराष्ट्र के अधिकांश भाग में बरसात की मात्रा में बदलाव नहीं है पर लद्दाख और नार्थ ईस्ट के इलाके को छोड़कर बाकी भारत के 68 प्रतिशत भूभाग में बरसात घटी है। यह अध्ययन, भविष्य के गंभीर जल संकट की दस्तक का संकेत ही तो है। लगभग 1800 लाख साल पहले (जुरासिक पीरियड में) ग्रीनहाउस गैसों के कारण वातावरण का तापमान लगभग 5 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ गया था। इस बदलाव के कारण चट्टानों की अपक्षय (मौसम तथा पानी के संयुक्त प्रभाव से चट्टानों का रासायनिक और भौतिक परिवर्तन) की गति 400 प्रतिशत अधिक हो गई थी और वातावरण में मौजूद बहुत सी कार्बन डाइऑक्साइड गैस, केल्साइट और डोलोमाइट के रूप में चट्टानों में जमा हो गई और वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का अनुपात सुधरकर पहले जैसा अर्थात सामान्य हो गया था। इस तरह के खगोलीय ताकतों से नियंत्रित जलवायु बदलावों की फेहरिस्त लंबी है और उसके प्रमाण धरती के इतिहास में दर्ज हैं।

भारत की जलवायु के बदलाव का बैरोमीटर, हिमालय के पर्यावरण को माना जा सकता है। इस अनुक्रम में, डी. टेरा और पीटरसन ने सबसे पहले, सिंध और कश्मीर की लिदर घाटी में चार से पांच हिमयुगों और उनके बीच के तीन इंटरग्लेशियर युगों की मौजूदगी की पहचान की थी। यह खोजी रिपोर्ट आरके पचौरी की जलवायु परिवर्तन की थ्योरी के कई साल पहले की है। डी. टेरा और पीटरसन की रिपोर्ट सन 1939 में वाशिंगटन से प्रकाशित हुई थी।

इस रिपोर्ट के अनुसार कश्मीर में सबसे पहला हिमयुग दस लाख साल पहले और दूसरा हिमयुग पांच लाख साल पहले आया था। इनके बीच की अवधि (लगभग आठ लाख साल पहले) में जलवायु गर्म थी। तीसरा और चौथा हिमयुग क्रमशः तीन लाख और एक लाख पचास हजार साल पहले दर्ज किया गया है। पांचवें हिमयुग (तीस हजार साल पहले) का अंत पंद्रह हजार साल पहले हुआ है और वर्तमान कालखंड इंटरग्लेशियर जलवायु का है। डी. टेरा और पीटरसन के अलावा, हिमालयीन हिमयुगों का अध्ययन वाडिया डीएन (1941) और राइट डब्ल्यूबी (1937) ने किया है।

एमएस कृष्णनन (जियोलॉजी ऑफ इंडिया एंड बर्मा, 1982, पेज 514) के अनुसार 3000 से 4000 साल पहले थार मरुस्थल की जलवायु पर्याप्त आर्द्र थी। उन दिनों राजस्थान में जंगल थे और उन जंगलों में हाथी पाए जाते थे। आज से लगभग 2500 साल पहले खगोलीय ताकतों से नियंत्रित हुए जलवायु बदलावों ने थार के इलाके को धीरे-धीरे मरुस्थल में बदल दिया।

इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ट्रापीकल मीटियोरालॉजी, पुणे ने सन 1813 से 2006 की अवधि की बरसात का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के आधार पर अनुमान है कि देश के बारह प्रतिशत इलाके में बरसात की मात्रा में बढ़ोतरी हुई है तो दस प्रतिशत इलाके में स्थिति यथावत है। शेष 10 प्रतिशत इलाके के बारे में आंकड़े अनुपलब्ध होने के कारण अनुमान प्रस्तुत नहीं किए गए हैं। इस अध्ययन की संक्षिप्त रिपोर्ट डाउन टू अर्थ (सितंबर 1-15, 2008, पेज 58) में प्रकाशित है।

इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के समुद्र तटीय पूर्वी मैदानों, पूर्वी घाट, उत्तर की पहाड़ियों, पश्चिमी घाट और उत्तर पूर्व की पहाड़ियों में बरसात का औसत सुधरा है। महाराष्ट्र के अधिकांश भाग में बरसात की मात्रा में बदलाव नहीं है पर लद्दाख और नार्थ ईस्ट के इलाके को छोड़कर बाकी भारत के 68 प्रतिशत भूभाग में बरसात घटी है। यह अध्ययन, भविष्य के गंभीर जल संकट की दस्तक का संकेत ही तो है।

जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप भारत के समुद्र तटीय पूर्वी मैदानों, पूर्वी घाट, उत्तर की पहाड़ियों, पश्चिमी घाट और उत्तर पूर्व की पहाड़ियों में जहां बरसात का औसत सुधरा है, अतिवर्षा की स्थितियां बन रही हैं। इन इलाकों में बने बड़े और मध्यम बांधों के फूटने और उनसे पानी छोड़ने की स्थिति में बाढ़ का खतरा बढ़ गया है। सन 2008 में हिमालयीन क्षेत्र की अतिवर्षा और नेपाल स्थित बांधों से पानी छोड़ने के कारण कोसी नदी की बाढ़, सबसे बड़े संकट और मानवीय त्रासदी के रूप में सामने आई।

उस बाढ़ के कारण बिहार का बहुत बड़ा इलाका और लाखों लोग लगभग 15 दिन तक बाढ़ की विभीषिका को भोगते रहे। बरसात की मौजूदा प्रकृति में हो रहे बदलावों की पृष्ठभूमि में बाढ़ की ऐसी घटनाओं की बार-बार पुनरावृति बड़े और मध्यम बांधों की साइज, उनमें संचित पानी की मात्रा और उनके ठिकाने तय करने पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है। जलवायु बदलाव की पृष्ठभूमि में संभवतः भविष्य में जल संग्रहण की फिलासफी को नए तरीके से परिभाषित भी करना पड़ सकता है।

जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के 68 प्रतिशत भूभाग में, जहां से बरसात घटने के संकेत मिल रहे हैं, जल उपलब्धता कम होगी। जल उपलब्धता कम होने से नदियों के सूखने की गति बढ़ेगी, भूजल का प्रदूषण बढ़ेगा, प्रदूषित जल की मात्रा बढ़ेगी, खाद्यान्नों में हानिकारक एवं विषैले पदार्थों की मात्रा बढ़ेगी, अनुपचारित सीवेज की समस्या गंभीर होगी और बीमारियां बढ़ेंगी।

पानी की उपलब्धता घटने के कारण खतरनाक रसायनों के निपटारे और जीवन में व्यक्तिगत स्वच्छता के नए तौर तरीके खोजने की आवश्यकता पड़ेगी। इन इलाकों में पहले से बने बड़े और मध्यम बांध कम भरेंगे, भूजल की उपलब्धता घटेगी और सिंचाई का रकबा कम होगा। कुछ इलाकों में पेयजल की पूर्ति अत्यंत कठिन हो जाएगी और पानी के कारण आबादी का कुछ भाग जल-शरणार्थी बनेगा। बंजर जमीन का रकबा बढ़ेगा, जंगल सूखेंगे और जंगलों का घनत्व कम होगा। थार मरुस्थल के रकबे का विस्तार होगा और अनेक प्रजातियां हमेशा-हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएंगी।

भारत के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा युनाइटेड नेशन्स कंजर्वेशन आन क्लाइमेट को भेजी रिपोर्ट (ट्रिब्यून, 21 जून, 2004) में आशंका जाहिर की है कि जलवायु परिवर्तन तथा बदलाव के मिले-जुले असर के परिणामस्वरूप भारत में पानी का गंभीर संकट पैदा हो सकता है। इसी रिपोर्ट में जल संकट के अलावा समुद्र तल के ऊपर उठने, मौसम के बदलाव, बरसात और वनों पर प्रतिकूल प्रभावों का जिक्र किया गया है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत का ग्रीनहाउस गैस योगदान मात्र तीन प्रतिशत है जो उन्नत देशों के योगदान की तुलना में नगण्य है।

भारत में मौसम के बदलाव के प्रमाण यदाकदा मिलते रहते हैं। मुंबई, गुजरात और बिहार की सन 2005, 2006 और 2008 की अतिवर्षा को इसके संकेत के रूप में देखा जा सकता है। इसी क्रम में बाड़मेर की 2006 की अति वर्षा, बिहार और असम में सन 2006 की अल्प वर्षा भी जलवायु परिवर्तन एवं बदलाव का परिणाम लगता है। सन 2003 में लू से मरने वाले लोगों की संख्या 1400 थी। इसी अवधि में अमेरिका में 562 बवंडर रिकार्ड किए गए थे। जलवायु परिवर्तन एवं बदलाव के कुप्रभावों के कारण दक्षिण एशिया के देशों पर अन्न उत्पादन पर खतरा बढ़ गया है। कुछ लोग इसे संयोग भी मानते हैं।

जादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्र विज्ञान विभाग का अध्ययन (हिन्दुस्तान टाइम्स, 1 नवम्बर, 2006) बताता है कि समुद्र तल के ऊपर उठने के कारण सुंदरवन के पूर्वी और पश्चिमी भाग में रहने वाले लगभग 50,000 व्यक्ति प्रभावित होंगे। अध्ययन के अनुसार पिछले 30 सालों में सुंदरवन का 100 वर्ग किलोमीटर इलाका और पिछले 22 सालों में उसके दो द्वीप (लोहामारा और सुपेरडांगा) समुद्र में डूब चुके हैं।

इस मामले में उड़ीसा का समुद्री तट सबसे अधिक संवेदनशील है। इस इलाके में एक मीटर जल स्तर बढ़ने से लगभग 800 वर्ग किलोमीटर जमीन के डूबने की संभावना है। उल्लेखनीय है कि समुद्री जल स्तर बढ़ने के कारण केन्द्रापाड़ा जिले के काहनपुर और सतभया ग्रामों के 150 से अधिक परिवारों को पीछे हटना पड़ा है। हाल के सालों में समुद्र की लहरों ने चिल्का लेक का मुहाना काट दिया है जिसके कारण इसका पानी खारा हो रहा है और झील के पानी के मूल गुण बदलने की कगार पर हैं।

समुद्र द्वारा किए जा रहे भूमि कटाव के कारण समुद्र तट पर बहुतायत से पैदा होने वाली वनस्पति (मैंग्रोव) का इकोसिस्टम खतरे में है। पिछले 50 सालों में ओडीशा के 1000 वर्ग किलोमीटर से भी अधिक इलाके के मैंग्रोव घट कर मात्र 219 वर्ग किलोमीटर रह गए हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन 1940 तक महानदी का सारा डेल्टा क्षेत्र मैंग्रोव वनस्पतियों से ढंका था। सन 1960 में पाराद्वीप बंदरगाह बनाने के लिए लगभग 2500 हेक्टेयर मैंग्रोव वनस्पतियों को समाप्त किया था, तब से इस इलाके पर समुद्री तूफानों का असर काफी बढ़ गया है।

आईपीसीसी के अनुसार दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग के लिए छह गैसें जिम्मेदार हैं। इनमें से तीन गैसें यथा कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड बड़े बांधों से मिलती हैं। आईपीसीसी के अनुसार लगभग 23 प्रतिशत मीथेन का जरिया मानवीय गतिविधियां हैं। ब्राजील के नेशनल इंस्टीट्यूट फार स्पेस रिसर्च की इवान लिमा के हालिया अध्ययन से पता चला है कि भारतीय ग्लोबल वार्मिंग का 20 प्रतिशत बड़े बांधों की देन है।

इस अध्ययन से यह पता चला है कि भारत के बड़े बांधों का ग्रीनहाउस योगदान अन्य देशों की तुलना में सबसे अधिक है। इस अध्ययन के दायरे में पनबिजली पैदा करने वाले बांधों को भी सम्मिलित किया गया था। ब्राजील की इवान लिमा के अनुमानों के अनुसार भारत के बड़े बांध हर साल लगभग 33.5 मिलियन टन ग्रीन हाउस गैसें पैदा करते हैं। इसमें जलाशयों का योगदान 1.1 मिलियन टन, स्पिलवे का योगदान 13.2 मिलियन टन और पानी से बिजली पैदा करने वाले बांधों का योगदान 19.2 मिलियन टन है।

इवान लिमा का सारा अध्ययन ब्राजील, केनेडा और फ्रेंच गुयाना का है। उन्होंने उन देशों के अध्ययन परिणामों को भारतीय बांधों से जोड़ने का प्रयास किया है। अतः इन परिणामों में थोड़ा परिवर्तन या सुधार संभव है। इवान लिमा के अनुसार बाढ़ की मिट्टी के साथ बहकर आने वाले कार्बनिक पदार्थों और जलाशय में पैदा होने वाली वनस्पतियों के जलाशय की तली के आक्सीजन विहीन वातावरण में सड़ने के कारण मीथेन गैस बनती है जो जलाशय की सतह, हाइड्रल-बांधों के टर्बाइन, बांध के डाउनस्ट्रीम और स्पिलवे पर उत्सर्जित होती हैं।

इसके अलावा जब मीथेन गैस जलाशय की तली से ऊपरी उठती है तो उसका कुछ भाग आक्सीत होकर कार्बन डाइऑक्साइड में बदल जाता है। अनुमान है कि पूरी दुनिया में बड़े बांधों से हर साल लगभग 120 मिलियन टन मीथेन पैदा होती है। जाहिर है कि दुनिया भर के बांधों का ग्रीनहाउस योगदान, बरसात की मात्रा से नियंत्रित हो, उनकी उम्र पूरी होने तक, अबाध गति से चलेगा।

भारत की केन्द्रीय विद्युत अथॉरिटी ने सन 2006 में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा का आकलन किया है। भारत सरकार, हाइड्रो-पावर प्रोजेक्ट्स को सुरक्षित मानती है इसलिए उसके आकलन में हाइड्रो पावर प्रोजेक्टों द्वारा उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा का उल्लेख नहीं है।

भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय ने जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन कराने का फैसला किया है। इस अध्ययन में जलवायु परिवर्तन का जल संसाधनों एवं जल प्रवाह के चरित्र पर पड़ने वाले प्रभाव को समझा जाएगा। इस अध्ययन की जिम्मेदारी केन्द्रीय जल आयोग, ब्रह्मपुत्रा बोर्ड और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलाजी, रुड़की को सौंपी गई है जो अन्य अकादमिक संस्थाओं के सक्रिय सहयोग से अध्ययन पूरा करेंगे।

पिछले युगों के सभी जलवायु बदलाव केवल खगोलीय शक्तियों से नियंत्रित थे। वर्तमान युग के जलवायु बदलाव में, लक्ष्मण रेखा लांघती मानवीय गतिविधियों की भूमिका आग में घी डाल रही है। खगोलीय शक्तियों और मानवीय गतिविधियों, बरसात के बदलते मिजाज की दम पर दस्तक देता जल संकट, विभिन्न देशों का रवैया और संगठनों की आर्थिक कठिनाइयां धरती की सेहत को कब तक और कितना बर्बाद करेगी, निश्चित तौर पर कह पाना सरल नहीं है पर यह कहना बहुत सरल है कि जलवायु बदलाव तथा परिवर्तन के कुप्रभावों से मुक्ति के बाद, भाग्यशाली प्रजातियां ही धरती पर अस्तित्व में रहेंगी।यह भी उतना ही सच है कि सारे जलवायु बदलावों के बाद भी, कभी भी धरती का वातावरण इतना बदतर नहीं हुआ कि धरती पर मौजूद सारा का सारा जीवन समाप्त हो जाए। बदलाव आए और गए, उन्होंने अपना प्रभाव डाला, पर धरती ने अपनी सुधारवादी विलक्षण प्राकृतिक क्षमता से अपने आपको हर बार रहने योग्य बनाया।

बीपी राधाकृष्णन (जर्नल ऑफ जियोलॉकिल सोसाइटी ऑफ इंडिया, अगस्त 2008, पेज 183) के अनुसार “जीवन की निरंतरता ने धरती को थर्मोस्टेट में बदल दिया है” अर्थात तापमान के सारे उतार चढ़ावों के बावजूद धरती पर घटित तापमान (जलवायु) का बदलाव, जीवन की निरंतरता के लिए, कभी भी गंभीर चुनौती नहीं बना; पर आज लगता है कि सार्थक प्रयासों के बाद ही आशा की किरण दिखाई देगी।

आशा की किरण, बदलाव और फैसले लेने की मांग करती है। इन फैसलों के तहत काम करने होंगे और पूरी दुनिया में पेट्रोल और डीजल चलित वाहनों की फ्यूल-दक्षता बढ़ानी होगी। वाहनों में बायोडीजल और एथीनाल का अधिकाधिक उपयोग करना होगा। उल्लेखनीय है कि बायोफ्यूअल का उपयोग पेट्रोल के उपयोग को पूरी तरह समाप्त नहीं करता। अनुमान है कि सन 2000 में वाहनों द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड का सकल ग्रीनहाउस योगदान मात्र 14 प्रतिशत था।

इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी का अनुमान है कि फ्यूल दक्षता और बायोफ्यूअल के इस्तेमाल को लागू कर सन 2030 में कार्बन डाइऑक्साइड का सालाना उत्सर्जन 14 अरब टन तक कम किया जा सकता है। इसके लिए कारों की निर्माण तकनीक को पूरी तरह बदल कर पेट्रोल खर्च को करीब 60 प्रतिशत कम करना होगा। यह प्रयास बहुत कारगर परिणाम देगा, इसकी संभावना बहुत कम है, क्योंकि इसे हासिल करना सरल नहीं है।

गौरतलब है कि आटोमोबाइल उद्योग का सालाना व्यापार लगभग 7000 अरब अमेरिकन डालर है। यह राशि सारी दुनिया के सालाना व्यापार का लगभग 10 प्रतिशत है। इसलिए सारा बदलाव आटोमोबाइल उद्योग की इच्छा से ही नियंत्रित हो तो किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह बदलाव केवल औद्योगिक क्षेत्रों से जुड़ा बदलाव है।

ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए सौर ऊर्जा का अधिक से अधिक उपयोग करना होगा। सौर ऊर्जा के उपयोग से कार्बन डाइऑक्साइड या अन्य किसी भी प्रकार की ग्रीनहाउस गैसें पैदा नहीं होतीं। इसके उपयोग से पानी गर्म किया जा सकता है और बिजली भी बनाई जा सकती है। डाउन टू अर्थ दिसंबर 15, 2007, पेज 49) के अनुसार राजस्थान के अकेले बाड़मेर ब्लॉक में इतनी क्षमता है कि उसके समग्र दोहन से उत्पन्न सौर ऊर्जा से भारत की बिजली की सारी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं और ताप-विद्युत संयत्रों में जलाए जा रहे कोयले से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन समाप्त किया जा सकता है।

ग्रीनहाउस गैस की मात्रा घटाने के लिए हवा की शक्ति (विंड एनर्जी) का अधिक से अधिक उपयोग करना होगा। हवा की शक्ति के उपयोग से बिजली बनाई जा सकती है। हवा की शक्ति का उपयोग करने से कार्बन डाइऑक्साइड या अन्य किसी भी प्रकार की हानिकारक गैसें पैदा नहीं होतीं। विंड एनर्जी का उपयोग, कोयले पर निर्भरता घटाएगा और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करेगा। अनुमान है कि कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन की कमी का बरसात के व्यवहार पर असर पड़ेगा।

विकासशील देशों को सुरक्षित विकास व्यवस्था (क्लीन डेवलपमेंट मेकेनिज्म) अपनाना होगा। क्योटो प्रोटोकाल द्वारा इस व्यवस्था को इस कारण आगे बढ़ाया था ताकि गरीब देश भी विकास के टिकाऊ लक्ष्य को प्राप्त कर सकें और अमीर देश ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम कर सकें, ताकि दोनो वर्गों के देशों के प्रयासों से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की सकल मात्रा का संतुलन बना रहे।

विकसित देशों की औद्योगिक इकाइयों से अपेक्षा की गई थी कि वे सुरक्षित विकास व्यवस्था में लगने वाले धन को उपलब्ध कराने के लिए आगे आएंगे। इस मोर्चे पर सभी देशों को ईमानदारी से प्रयास करने और उसे बाजारीकरण से बचाने की आवश्यकता है।

इवान लिमा के अनुसार मीथेन गैस को जमा कर बिजली पैदा की जा सकती है। इस दिशा में कदम उठाने से ग्लोबल वार्मिंग को किसी हद तक कम किया जा सकता है। इवान लिमा के अनुसार प्रत्येक बांध की मीथेन पैदा करने वाली क्षमता का आकलन किया जाना चाहिए और उसके उपयोग के बारे में कदम उठाने चाहिए। गौरतलब है कि भारत में अभी तक बांधों से पैदा होने वाली मीथेन की मात्रा की गणना के लिए अध्ययन प्रारंभ नहीं किया गया है।

धरती पर मौजूद कुल कार्बन का 60 प्रतिशत दुनिया भर में फैले जंगल में सिमटा है। जंगल की जमीन का उपयोग के बदलने से भी ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में इजाफा होता है इसलिए लोग जंगल बचाने और कार्बन को सोखने के लिए वनीकरण की सलाह देते हैं।

दूसरी ओर, नेचर पत्रिका (भाग 451, खंड 7174) में प्रकाशित अनुसंधानों से संकेत मिले हैं कि वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को कम करने में वृक्षों को बहुत कारगर नहीं माना जा सकता है। क्योंकि तापमान बनने के कारण वृक्षों की कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने की क्षमता कम हो रही है। कोलोराडो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जान मिलर के अनुसार वनस्पतियों की सही क्षमता आंकने के लिए समद्रों और दुनिया के बहुत से इलाकों में और अधिक अनुसंधान करने की आवश्यकता है। इसी तरह वर्षा कराने में वनों की भूमिका को समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है।

ग्रीनहाउस गैसों के दुष्परिणामों से बचने के लिए सभी देशों को ऐसी ऊर्जा पैदा करने वाली नीति अपनानी होगी जिसमें कार्बन का उपयोग नहीं होता। अमीर देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना होगा। गरीब देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को विकास की सीमा में रखने के लिए छूट देनी होगी। संक्षेप में, सभी देशों के नागरिकों को तय उत्सर्जन सीमा में अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लाना होगा।

खगोलीय शक्तियों से नियंत्रित पिछले जलवायु बदलावों और वर्तमान युग के मानवीय गतिविधियों से प्रेरित जलवायु परिवर्तन में एक बुनियादी फर्क है। पिछले युगों के सभी जलवायु बदलाव केवल खगोलीय शक्तियों से नियंत्रित थे। वर्तमान युग के जलवायु बदलाव में, लक्ष्मण रेखा लांघती मानवीय गतिविधियों की भूमिका आग में घी डाल रही है।

खगोलीय शक्तियों और मानवीय गतिविधियों, बरसात के बदलते मिजाज की दम पर दस्तक देता जल संकट, विभिन्न देशों का रवैया और संगठनों की आर्थिक कठिनाइयां धरती की सेहत को कब तक और कितना बर्बाद करेगी, निश्चित तौर पर कह पाना सरल नहीं है पर यह कहना बहुत सरल है कि जलवायु बदलाव तथा परिवर्तन के कुप्रभावों से मुक्ति के बाद, भाग्यशाली प्रजातियां ही धरती पर अस्तित्व में रहेंगी।