नदियों की सेहत का लिटमस टेस्ट है गर्मी
हकीकत में नदियों की सेहत और प्रवाह की अविरलता एवं बायोडायवर्सिटी की जांच का सही वक्त गर्मी का मौसम होता है क्योंकि इसी मौसम में उसके पानी की शुद्धता, अविरलता, बायोडायवर्सिटी और कुदरती जल-चक्र की निरंतरता के बारे में सही-सही जानकारी मिलती है। यही वह उपयुक्त समय है जब गंदगी चरम पर और प्रवाह न्यूनतम पर होता है। गर्मी के मौसम में गंगा जैसी बड़ी और विशाल नदियों को छोड़कर छोटी और मझौली नदियाँ केवल नाम के लिए बचती हैं। यही वह उपयुक्त समय है जब व्यवस्था, समाज या तकनीकी लोगों द्वारा नदी पुनरुद्धार या पुनर्जीवन के लिए सम्पन्न किए कामों के दावों की हकीकत तथा टिकाऊपन उजागर होता है। यही वह उपयुक्त समय है जब कछारी क्षेत्र या चट्टानी क्षेत्र की नदियों को भूजल भंडारों से मिलने वाले योगदान की हकीकत का फर्क देखा तथा समझा जा सकता है। इस फर्क को समझने से ही समग्र समाधान का मार्ग प्रशस्त होता है।
नदियों की सेहत सुधारने का सिलसिला, मौटे तौर पर, यूरोप से प्रारंभ हुआ माना जाता है। इस प्रयास में हम उदाहरण के तौर पर जर्मनी की मुख्य नदी राइन का उदाहरण ले सकते हैं। यह नदी लगभग 1200 किलोमीटर लम्बी है और उसके मार्ग के आसपास चार देश, अनेक बसाहटें तथा औद्योगिक इकाइयां स्थित हैं। राईन में पानी के जहाज भी चलते हैं। विदित हो कि प्रारंभ में राइन नदी का पानी बिल्कुल साफ था पर कुछ साल पहले अनुपचारित नगरीय और औद्योगिक अपशिष्टों को नदी जल में छोड़ने के कारण वह बीमारियों तथा दुर्गन्ध का पर्याय बन गया था। उस स्थिति से निपटने के लिए सरकारों ने पर्याप्त संख्या में सीवर ट्रीटमेंट प्लान्टों को स्थापित किया और सुनिश्चित किया कि अनुपचारित पानी की एक बूँद भी राइन नदी और उसकी सहायक नदियों में नहीं छोड़ी जावेगी। देखते ही देखते राइन नदी का पानी बिल्कुल साफ हो गया। वह नदी पुनरुद्धार का उदाहरण बन गई।
उल्लेखनीय है कि पश्चिमी देशों में इस प्रकार के उदाहरण आम है क्योंकि वहाँ की सरकारें, नदी की बिगड़ती परिस्थितियों को सामान्यतः संज्ञान में लेती है। उचित समय पर आवश्यक कदम उठाती हैं। एसटीपी का संचालन सुनिश्चित करती हैं। नदी जल की गुणवत्ता को टिकाऊ बनाए रखने हेतु पुख्ता निगरानी व्यवस्था कायम करती हैं।
फिलहाल तो मलजल और सीवेज की मालगाड़ी हैं नदियां
भारत में भी नदियों के पानी की स्वच्छता को लेकर जागरुकता लगातार बढ़ रही है लेकिन प्रयासों तथा उललब्धि के मामले में हम अभी बहुत पीछे हैं। हमारा अपशिष्ट प्रबन्धन तंत्र बेहद लचर है। उसके लचर होने के कारण छोटी बसाहटों से लेकर नगरीय बसाहटों तक का उत्सर्जित अपशिष्ट नदियों में मिल रहा है। आवश्यक है कि नगरीय अवशिष्ट प्रबन्धन समुचित हो। औद्योगिक इकाईयाँ प्रदूषण फैलाने का काम बिलकुल भी नहीं करें। यही समझदारी बरसात के पानी के संचय के लिए बनाई जल संरचनाओं के लिए भी सुनिश्चित करना होगा ताकि प्रदूषित पानी की एक बूँद भी उनमें प्रवेश नहीं कर सके।
राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन का अनुभव बताता है कि नदियों के पानी के गहराते प्रदूषण की लड़ाई उस समय तक जारी रहेगी जब तक हम मानवीय मल-मूत्र की प्रत्येक इकाई से निकले अपशिष्ट को एसटीपी से नहीं जोड़ देते और एसटीपी से बाहर आए पानी की हर बूंद को प्रदूषण मुक्त नहीं कर देते। अर्थात हमें ऐसा सक्षम स्वच्छता तंत्र विकसित करना है जिसकी इकाइयां देशव्यापी हों और निरंतर काम करें। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि भारतीय नदियों तथा जलस्रोतों में स्वच्छ जल की उपलब्धता उस समय तक संदिग्ध रहेगी जब तक हम कारगर अपशिष्ट प्रबंधन नहीं कर लेते पर तब भी यह प्रबन्ध अधूरा हो सकता है।
प्वाइंट स्रोत के साथ ही नॉन प्वाइंट स्रोत पर भी ध्यान देने की जरूरत
उपरोक्त विवरण पूरी कहानी का मात्र एक पक्ष है। कहानी का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है रासायनिक खेती के कारण प्रदूषित भूजल का नदियों को मिलना। गौरतलब है कि कहीं कहीं प्रदूषित जल कुओं तथा नलकूपों से भी बाहर आ रहा है। नदियों पर उसका असर लगातार बढ़ रहा है। कहानी का तीसरा महत्वपूर्ण पक्ष है छोटी तथा मंझौली नदियों का मौसमी होना और बड़ी नदियों का लगातार घटता नान-मानसूनी प्रवाह। कहा जा सकता है कि उपचारित पानी को नदियों में छोडने से प्रवाह में वृद्धि होगी पर यह कथन भारत के लिए उस प्रकार लागू नहीं है जैसा यूरोपीय देशों की नदियों पर लागू होता है। भारत में पेयजल, निस्तार और औद्योगिक इकाईयों में खेती की तुलना में बहुत कम पानी प्रयुक्त होता है। यह मात्रा, खेती में होने वाली खपत का मात्र चैथाई भाग ही होता है इसलिए सीवर के उपचारित जल से सभी छोटी तथा मंझौली नदियों का बारहमासी होना संभव नहीं है। तकनीकी भाषा में, नेशनल वाटरशेड एटलस की पांचवी तथा चैथी श्रेणी की नदियों का बारहमासी होना संभव नहीं है। तीसरी श्रेणी की नदियों के प्रवाह में बदलाव हो सकता है पर वह अनेक घटकों द्वारा नियंत्रित होगा। संभव है, टिकाऊ नहीं हो।
उल्लेखनीय है कि यूरोप में नदियों के प्रवाह की बहाली के लिए कोई खास प्रयास नहीं किया जाता। उन देशों में ठंडी जलवायु के कारण साल के लगभग सात-आठ माह बरसात होती है या बर्फ गिरती है। यह व्यवस्था नदियों के प्रवाह को अविरल बनाने और किसी हद तक अपशिष्टों हटाने में में मदद करती है। अतः कहा जा सकता है कि बरसात की लम्बी अवधि के कारण यूरोप के उदाहरणों को पूरी तरह भारत पर लागू नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, गौरतलब है कि छोटी बसाहट के प्रदूषित जल की मात्रा बहुत कम होती है। मात्रा के कम होने के कारण नदी के प्रवाह की अविरलता या नदी का बारहमासी चरित्र बनना कठिन होता है।
पिछला अनुभव बताता है कि छोटी बसाहटों में सेप्टिक टैंक व्यवस्था को आंशिक परिवर्तन के बाद बहाल करना व्यावहारिक हो सकता है। सही तरीके से निस्तारित मल को ट्रीटमेंट प्वाईंट तक ले जाया जा सकता है ताकि उसे पुनः इस्तेमाल के लिए निरापद बनाया जा सके। मानव मल-मूत्र का रूपांतरण कर उसे आर्गेनिक खाद के रूप में काम में लाया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि जापान के पारम्परिक समाज ने अपने मल-मूत्र को नदियों में प्रवाहित नहीं किया। उन्होंने उसे खाद में परिवर्तित किया और खेतों में उपयोग में लाकर रसायन-मुक्त अनाज पैदा किया।
गर्मी में अब कुछेक को छोड़कर सारी नदियां सूख जाती हैं
आवश्यक है कि गर्मी के मौसम में भारत की सभी नदियों में प्रवाह और प्रदूषण की स्थिति का आकलन किया जाए। प्रवाह की कमी / नदी सूखने तथा प्रदूषण की गंभीरता के आधार पर रोडमेप बने। यह काम एक या दो साल का नहीं है। इसे पूरा करने तथा स्थायित्व प्रदान करने के लिए ढेरों काम करने होंगे। अनेक विभागों के बीच समन्वय बिठाना होगा। पिछली गलतियों से सबक लेकर तकनीकी सुधारवादी कदम उठाने होगे। भूजल के उपयोग की लक्ष्मण रेखा खींचना होगी। यह काम किसान को बिना आर्थिक नुकसान पहुँचाए करना होगा। अनुभव बताता है कि आर्गेनिक खेती में पानी की खपत तथा उत्पादन लागत कम है। उसे मुख्यधारा में लाना होगा। पानी के अपव्यय को कम करने तथा उपचारित पानी को रीसाईकिल करने को बढ़ावा देना होगा। उपरोक्त आधार पर कहा जा सकता है कि नदियों में शुद्ध जल की उपलब्धता तथा प्रवाह बहाली को पानी के विवेकी प्रबन्धन, समुचित अपशिष्ट प्रबन्धन तथा आर्गेनिक खेती की सहायता से हासिल किया जा सकता है।