तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13

परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है। दिल को छूने वाली सहज भाषा आज भी खरे हैं तालाब के द्वितीय अध्याय नींव से शिखर मे अनुपम ने परम्परागत तालाबों को बनाने के बारे में निम्नानुसार लिखा है -

पाठकों को लगेगा कि अब उन्हें तालाब के बनने का - पाल बनने से लेकर पानी भरने तक का पूरा विवरण मिलने वाला है। हम खुद उस विवरण को खोजते रहे पर हमें वह कहीं नहीं मिला। जहाँ सदियों से तालाब बनते रहे है, हजारों की संख्या में बने हैं - वहाँ तालाब बनाने का पूरा विवरण न होना शुरु में अटपटा लगता है, पर यही सबसे सहज स्थिति है। ‘तालाब कैसे बनाएं’ के बदले ‘तालाब ऐसे बनाएं’ का चलन चलता था। 

कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal


नींव से शिखर के वाले अध्याय में अनुपम ने आगे लिखा है कि - रामायण और महाभारत को छोड़ भी दें तो भी भारत में तालाबों का निर्माण पांचवीं सदी से पंद्रहवीं सदी अर्थात एक हजार साल तक अबाध गति से होता रहा है। इस परंपरा में पंद्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएं आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह रुक नहीं पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लम्बे समय तक व्यवस्थित तरीके से सम्पन्न किया था उस काम को उथल-पुथल का दौर पूरी तरह से मिटा नहीं सका। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अन्त तक जगह - जगह तालाब बनते रहे थे।  उल्लेखनीय है के अनुपम ने इसी अध्याय में आगे लिखा  है कि - उपलब्ध विवरणों से जो छोटे-छोटे टुकड़ों में है, को जोडें तो काम चलाऊ चि़त्र तो सामने आ ही जाता है। 

यह आलेख परम्परागत तालाब निर्माण के उस काम चलाऊ अधूरे चित्र को, विज्ञान के नजरिए से, पूरा करने का प्रयास करता है। उम्मीद है, परम्परागत तालाबों पर शोध करने वाले लोग इस प्रयास को आगे जारी रखेंगे। यह प्रयास भारत के बिसराए जल विज्ञान को समाज के सामने लाने और यदि उसकी प्रासंगिकता है तो आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक है।

कैचमेंट का निर्धारण तथा तालाब का स्थल चयन

तालाब निर्माण का पहला बिन्दु होता है - कैचमेंट का निर्धारण तथा तालाब का स्थल चयन। इस बिन्दु पर नींव से शिखर के अध्याय में निम्नानुसार उल्लेख है- सारी बातचीत तो पहले ही हो चुकी है। तालाब की जगह भी तय हो चुकी है। तय करने वालों की आंखों में न जाने कितनी बरसातें उतर चुकी हैं। इसलिए वहां ऐसे सवाल नहीं उठते कि पानी कहां से आता है, कितना पानी आता है, उसका कितना भाग कहां रोका जा सकता है। ये सवाल नहीं हैं, बातें हैं सीधी-सादी, उनकी हथेलियों पर रखीं। इन्हीं में से कुछ आंखों ने इससे पहले भी कई तालाब खोदे हैं। और इन्हीं में से कुछ आंखें ऐसी हैं जो पीढ़ियों से यही काम करते आ रही हैं। 

यों तो दशों दिशायें खुली हैं तालाब बनाने के लिए, फिर भी जगह का चुनाव करते समय कई बातों का ध्यान रखा गया है। गोचर की तरफ है यह जगह। ढ़ाल है, निचला क्षेत्र है। जहां से पानी आएगा, वहां की जमीन मुरुम वाली है। उस तरफ शौच आदि के लिए भी लोग नहीं जाते हैं। मरे जानवरों की खाल निकालने की जगह यानि हड़वाड़ा भी इस तरफ नहीं है। इसी क्रम में आगे कहा है कि अभ्यास से अभ्यास बढ़ता है। अभ्यस्त आंखें बातचीत में सुनी - चुनी गई जगह को एक बार देख लेती हैं। वहां पहुंच कर आगौर (कैचमेंट), जहां से पानी आवेगा, उसकी साफ-सफाई, सुरक्षा को पक्का कर लिया जाता है। आगर (तालाब), जहां पानी आएगा, उसका स्वभाव परख लिया लिया जाता है।  

उपर्युक्त विवरण इंगित करता है कि कैचमेंट ईल्ड, कैचमेंट की स्वच्छता, उसकी साफ-सफाई और सुरक्षा को सुनिश्चित करने का दायित्व समाज का है। आधुनिक युग में समाज हाशिए पर है तथा कैचमेंट ईल्ड के अलावा बाकी सब घटक गौंड है। अर्थात प्राचीन पद्धति, अन्य घटकों के अलावा तालाब में जमा होने वाले पानी की गुणवत्ता पर भी ध्यान देती थी। इसके अलावा, वह कैचमेंट की धरती के गुणों के योगदान पर भी पर ध्यान देती थी। किसी भी कसौटी पर उन्नीस नहीं थी।

पाल और अपरा 

तालाब निर्माण का दूसरा बिन्दु होता है - पाल और अपरा अर्थात वेस्टवियर। इस बिन्दु पर नींव से शिखर के अध्याय मे निम्नानुसार उल्लेख है- 
पाल कितनी ऊँची होगी, कितनी चौड़ी होगी, कहां से कहां तक बंधेगी तथा तालाब में पानी पूरा भरने पर उसे बचाने के लिए कहां पर अपरा बनेगी, इसका भी अन्दाज लिया गया है। कहां से मिट्टी निकलेगी और कहां - कहां डाली जावेगी, पाल से कितनी दूरी पर खुदाई होगी ताकि पाल के ठीक नीचे इतनी गहराई न हो जाए कि पाल, पानी के दबाव से कमजोर होने लगे। 

सैकड़ों हाथ मिट्टी काटते हैं, सैकड़ों हाथ पाल पर मिट्टी डालते हैं। धीरे-धीरे पहला आसार पूरा होता है, एक स्तर उभर कर दिखता है। फिर उसकी दवाई शुरु होती है। दवाने का काम नन्दी कर रहे हैं। चार नुकीले खुरों पर बैल का बजन पडता है। पहला आसार पूरा हुआ तो दूसरी तह डलनी शुरु हो जाती है। हरेक आसार पर पानी सींवते हैं, बैल चलाते हैं। सैकड़ों हाथ तत्परता से चलते रहते हैं। आसार बहुत धीरज के साथ धीरे-धीरे उठते जाते हैं। 

आगौर से आने वाला पानी, जहां पाल पर जोरदार बल आजमा सकता है, वहीं पर पाल में भी बल दिया जाता है। इसे कोहनी भी कहा जाता है। पाल यहां ठीक हमारी कोहनी की तरह मुड जाती है।

उपर्युक्त विवरण पाल निर्माण की सभी सावधानियों का समग्र विवरण प्रस्तुत करता है। पाल निर्माण में उपयोग में लाई मिट्टी को पक्का करने, चूना और पत्थर के काम को पुख्ता करने और पाल को बल देकर उसकी सुरक्षा तथा पहली बरसात के दौरान निर्माण संबंधी कमजोरी दूर करने तक की। विवरणों के आधार पर कहा ला सकता है कि पुराने जमाने की पद्धति किसी भी कसौटी पर उन्नीस नहीं थी। वह सभी बिंदुओं पर ध्यान देती थी। बेहतर थी।

तालाब की पाल के निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण् बिन्दु होता है - उसकी मजबूती, पानी की लहरों की मार झेलने की क्षमता इत्यादि। वहीं नेष्टा अर्थात वेस्टवियर के निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण् बिन्दु होता है पाल को सुरक्षित रख, बाढ़ के अतिरिक्त पानी की सुरक्षित निकासी। विदित है कि यह क्षमता तभी संभव है जब नेष्टा की डिजायन सही हो। उपरोक्त बिन्दुओं पर नींव से शिखर मे निम्नानुसार उल्लेख है- 
पाल नीचे कितनी चौड़ी होगी, कितनी ऊपर उठेगी और ऊपर की चौड़ाई कितनी होगी - ऐसे प्रश्न गणित या विज्ञान का बोझ नहीं बढ़ाते। वेस्टवियर को लेकर भी इसी प्रकार की व्यवस्था है। पाल की नींव की चौड़ाई से ऊँचाई होगी आधी और पूरी बन जाने पर ऊपर की चौड़ाई कुल ऊँचाई की आधी होगी। इसी प्रकार वेस्टवियर, पाल से नीचा रखा जाता था। जमीन से उसकी ऊँचाई, पाल की ऊँचाई के अनुपात में तय होगी। अनुपात होगा कोई 10 और 7 हाथ का। पहली बरसात में पाल का सामूहिक निरीक्षण होगा। 

उपर्युक्त विवरण पाल और वेस्टवियर की सभी सावधानियों तथा समाज की भूमिका का का विवरण प्रस्तुत करता है। उपर्युक्त विवरणों के आधार पर कहा ला सकता है कि पुराने जमाने में बनने वाले मिट्टी की पाल वाले तालाब, मजबूती के मामले में किसी भी कसौटी पर कमतर नहीं थे। इसी कारण परम्परागत तालाबों की पाल टूटने के उदाहरण लगभग अनुपलब्ध है। 

अन्त में 

अन्त में, आवश्यकता है उस सुरक्षित गणितीय सम्बन्ध को समझने और अपनाने की जिसके कारण प्राचीन तालाबों में बहुत कम गाद जमा होती थी। वे बारहमासी और दीर्घायु थे। जल संकट के मौजूदा दौर में आवश्यकता है उसे पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने की।