केंद्रीय भूमि जल प्राधिकरण : परिचय
‘मिनिस्ट्री ऑफ एन्व्हिरॉनमेंट एंड फॉरेस्ट’, भारत सरकार ने भूजल के रेगुलेशन और नियंत्रण तथा उसके सम्बन्ध में रेगुलेटरी निर्देश जारी करने के लिए पर्यावरण (सुरक्षा) एक्ट, 1986 की धारा (3) के अधीन, केंद्रीय भूमि जल प्राधिकरण (Central Ground Water Authority) तथा राज्य स्तरीय भूमि जल प्राधिकरण का गठन किया है। उसे अधिकार सम्पन्न बनाने के लिए समय समय पर नोटिफिकेशन जारी किए है। देखें - नोटिफिकेशन नम्बर एस.ओ. 38 (इ) दिनांक 14 जनवरी 1997, उसके बाद नोटिफिकेशन नम्बर एस.ओ. 1124 (इ) दिनांक 6 नवम्बर 2000 और नोटीफिकेशन नम्बर एस.ओ. 1121 (इ) दिनांक 13 मई 2010। ‘भूमि जल प्राधिकरण’ जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनर्जीवन विभाग (Department of Water Resources, River Development and Ganga Rejuvenation, Ministry of Jal Shakti. Government of India) के अधीन काम करती है। यह इकाई 802 अतिदोहित एवं 169 क्रिटिकल विकासखंडों में उद्योगों/परियोजनाओं द्वारा किए जा रहे भूजल दोहन को रेगुलेट करती है।
भूमि जल प्राधिकरण के अधिकार और दायित्व
भूमि जल प्राधिकरण को पर्यावरण (सुरक्षा) एक्ट, 1986 की धारा 5 के अधीन अपने अधिकारों को प्रयुक्त करने का अधिकार है। दण्ड सम्बन्धी अधिकार धारा 15 से 21 के अधीन प्राप्त हैं। अन्य अधिकार उसे एक्ट की धारा 4 के अंतर्गत प्राप्त हैं।
माननीय नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, नई दिल्ली ने अपने आदेश दिनांक 15 अप्रैल 2015 (O.A. No. 204/2014) एवं अन्य संबंधित मामलों में निर्देशित किया है कि -
कोई भी व्यक्ति जो नलकूप का संचालन करता है या अन्य किसी तरीके से भूजल का दोहन करता है, को भूमि जल प्राधिकरण की अनुमति लेना होगा तथा इस हेतु बने नियमों के अधीन नलकूप का संचालन करना होगा। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, नई दिल्ली के आदेश में आगे कहा गया है कि यह व्यवस्था मौजूदा तथा भविष्य के औद्योगिक, अधोसंरचना तथा खनन उद्योगों के भूजल उपभोक्ताओं पर बंधनकारी होगी। उन्हें 30 जून 2020 तक अनिवार्य तौर पर अनापत्ति प्रमाण पत्र (No Objection Certificate : NOC) प्राप्त करना होगा। अनापत्ति प्रमाण पत्र हेतु अधिसूचना दिनांक एक अप्रैल 2020 द्वारा जारी हुई थी और भूजल दोहन हेतु अनापत्ति प्रमाण पत्र की संशोधित गाइडलाइन (Notification No. S.O. 3289(E) , 24 सितम्बर 2020 द्वारा जारी हुई थी। सर्व साधारण के उपयोग तथा जानकारी हेतु यह विवरण केन्द्रीय भूमि जल प्राधिकरण की वेबसाइट (http://cgwa-noc.gov.in) पर उपलब्ध है।
उल्लेखनीय है कि पर्यावरण विभाग का उक्त अधिनियम भूजल स्रोतों की सतत टिकाऊ सेवा हेतु भूजल दोहन की लक्ष्मण रेखा का निर्धारण नहीं करता। उन अनिवार्य कदमों को बन्धनकारी नहीं बनाता जिनके पालन करने से संसाधन को स्थायित्व प्राप्त होता है। अधिनियम की उपर्युक्त खामियों के कारण ही भूजल स्रोतों पर संकट गहराया है। दूसरे, भूजल के मामले में संविधान मौन है लेकिन अंग्रेज सरकार के समय जारी भारतीय भोगाधिकार अधिनियम, 1882 (Indian Easement Act, 1882) के कारण कुछ बाध्यताएँ भी हैं।
पर्यावरण विभाग की उपर्युक्त अधिसूचना के उपरान्त सभी उपभोक्ताओं (अधिसूचना के सेक्शन 1 में दी गई छूट को छोडकर बाकी) यथा आवासीय अपार्टमेंट, ग्रुप हाउसिंग सोसायटियों, सरकारी नगरीय जल प्रदाय ऐजेन्सियाँ, अधोसंरचना तथा खनन परियोजनायें और स्वीमिंग पूल (Residential apartments, Group Housing Societies, Government water supply agencies in urban areas and Industrial, Infrastructure and Mining Projects and Swimming Pools), जो अस्तित्व में हैं अथवा प्रस्तावित हैं, का दायित्व था कि उक्त निर्देशों का पालन करने तथा आन-लाईन अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करते। जिन संस्थाओं ने नियत दिनांक तक अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल नहीं किया है उन्हें दिनांक 24.9.2020 से एक लाख रुपये की राशि बतौर लेट-फीस और दोहन/ पुनःभरण चार्ज (Groundwater abstraction/ restoration charges ) का भुगतान करना होगा। ऐसी सभी भूजल दोहन संस्थानों को जिन्होंने 31.3.2022 तक अनापत्ति प्रमाण पत्र हेतु आवेदन नहीं दिया है, को कानूनी कार्यवाही का सामना करना होगा और उन्हें अवैध तरीके से भूजल दोहन करने के कारण पर्यावरणी मुआवजा (Ground Environmental Compensation) देना होगा। जिन संस्थाओं के आवेदन आधे-अधूरे थे, को 31.3.2022 तक बाकी दस्तावेज भेजना था। उक्त तिथियों के बीत जाने के कारण, केन्द्रीय भूमि जल प्राधिकरण के सामने अब कानूनी कार्यवाही करने का विकल्प बचता है।
गौरतलब है कि अधिनियम में किसानों द्वारा सिंचाई के लिए और पेयजल के लिए आवास में खोदे नलकूपों को उक्त अधिसूचना में छूट प्रदान की गई है। यह छूट रक्षा संस्थानों को भी उपलब्ध है। नियम कायदों की संक्षिप्त चर्चा के उपरान्त कुछ व्यावहारिक बिन्दुओं पर चर्चा आवश्यक है।
उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों ने ही सबसे पहले जल कानून लागू किए। उनके द्वारा लागू किये जल कानूनों के दो मुख्य केन्द्र बिन्दु थे। पहला केन्द्र बिन्दु था पानी पर सरकार का अधिकार। उस अधिकार को सुरक्षित रखते हुए उन्होंने अनेक कानून बनाए और उन कानूनों की मदद से सतही पानी पर लोगों के अधिकार को परिभाषित और निर्धारित किया। इसके अन्तर्गत उन्होंने भूस्वामी को जल-धारा से सीमित मात्रा में पानी लेने के लिये सुविधा प्रदान की पर भूजल दोहन के मामले में उन्होंने भूस्वामी को उसकी भूमि से असीमित मात्रा में पानी लेने का अधिकार दिया। यह अधिकार भारतीय भोगाधिकार अधिनियम, 1882 (Indian Easement Act, 1882) कहलाता है। यह अधिकार भी, भूस्वामी के लिए भूजल दोहन की लक्ष्मण रेखा निर्धारित नहीं करता। वह अधिनियम उसे भूजल रीचार्ज या अन्य कार्यवाही करने के लिए बन्धनकारी भी नहीं है।
गौरतलब है कि भूजल दोहन में खेती का हिस्सा लगभग 80 प्रतिशत है। बाकी 20 प्रतिशत में पेयजल, औद्योगिक आवश्यकतायें तथा अन्य सेक्टर में पानी का उपयोग आता है। अधिनियम में निजी पेयजल स्रोत की छूट तो समझ में आती है पर खेती में पानी के उपयोग की सीमा निर्धारित नहीं करना, वास्तव में, अधिनियम को तार्किकता प्रदान नहीं करता। उल्लेखनीय है कि भूजल का संकट पेयजल, औद्योगिक इकाइयों के उपयोग या आवासीय परिसरों में उपयोग के कारण नहीं है। वह जीवनशैली के बदलाव के कारण भी नहीं है। उसका असली कारण हरित क्रांति अर्थात रासायनिक खेती है। उसी के कारण पिछले लगभग 60 सालों में जल चक्र बाधित हुआ, पर्यावरणीय संकट पनपा और लाखों लोग जल-जनित बीमारियों के संकट की चपेट में आते जा रहे हैं।
अधिनियम के दायरे में आवासीय अपार्टमेंट, ग्रुप हाउसिंग सोसायटियों, सरकारी नगरीय जल प्रदाय ऐजेन्सियाँ, अधोसंरचना तथा खनन परियोजनाओं और स्वीमिंग पूल का लाना न्यायोचित प्रतीत नहीं होता। यदि उन्हें प्रदूषण के दायरे में लाना न्यायसंगत आधार है तो खेती में प्रयुक्त हानिकारक रसायनों के द्वारा किया अदृश्य प्रदूषण किसी भी कसौटी पर कम नहीं है। उसे भी समान आधार या कसौटी पर देखा जाना चाहिए।
अन्त में, अनेक बार, भूजल का दोहन, भूस्वामी की जमीन की सीमा तक सीमित नहीं होता। वह अनेक पैरामीटर पर निर्भर होता है। उपर्युक्त आधार पर कहा जा सकता है कि वैज्ञानिकों को अधिनियम को मानवीय और वैज्ञानिक चेहरा प्रदान करने के लिए काफी कुछ करना बाकी है। सबसे अधिक आवश्यक है सामाजिक स्वीकार्यता। यदि अधिनियम से सामाजिक स्वीकार्यता अनुपस्थित है तो अधिनियमों को धरती पर उतारना और समस्या को हल करना कठिन हो सकता है। भूमि जल प्राधिकरण के सामने यही असली चुनौती है।