अटल भूजल योजना: कुछ यक्ष प्रश्न

Submitted by Shivendra on Fri, 01/03/2020 - 15:22

भूजल दोहन के इतिहास में 11 अगस्त 1952 उल्लेखनीय तारीख है क्योंकि इसी दिन भारत और अमेरिका के अधिकारियों के बीच एक महत्वपूर्ण बैठक आयोजित हुई थी। इस बैठक में देश के चन्द चयनित इलाकों में 350 अन्वेषण नलकूपों के खनन के लिए सहमति बनी थी। इस सहमति के अनुसार एक्सप्लोरेटरी ट्यूबवेल आर्गेनाईजेशन (अब सेन्ट्रल ग्राउन्ड बोर्ड) को स्थानीय भूविज्ञान और सिंचाई की आवश्यकता को ध्यान में रख, आर्थिक नजरिए से नलकूपों के खनन की संभावना तलाशना था। यह कार्यक्रम अधिक अन्न उत्पादन के लिए संचालित राष्ट्रीय अभियान (National Grow More Food Campaign) का हिस्सा था। इन सरोकारों के कारण देश के कछारी और कम कठोर चट्टानी इलाकों में अन्वेषण नलकूपों के खनन का सिलसिला प्रारंभ हुआ।

कार्यक्रम के अन्तर्गत पानी देने वाले जलभ्रतों (Aquifers) की क्षमता और उनके भूजलीय गुणों की बारीकी से पहचान की गई। उच्चस्तरीय अनुसंधान प्रारंभ हुआ। पानी की सुनिश्चित उपलब्धता ने कार्यक्रम को आगे बढ़ाया और हरित क्रान्ति के विस्तार के कारण कछारी क्षेत्रों सहित सीमित क्षमता वाले चट्टानी इलाकों में भी नलकूप खनन के कार्यक्रम को पंख लगे। हर स्तर पर धरती के नीचे से पानी निकालने की होड लगी। उस पानी को खेती, पेयजल और औद्योगिक आवश्यकता की आपूर्ति के सर्वकालिक भरोसेेमन्द स्रोत के तौर पर मान्यता मिली। इस सफलता को भूजल के नोडल संगठनों ने अपनी अप्रत्याशित सफलता का पर्याय माना। सफलता के इसी दौर में सभी लोगों द्वारा भूजल के अति दोहन के दुष्परिणामों और कुदरती जलचक्र के असन्तुलन की अनदेखी हुई। इस अनदेखी अर्थात साल-दर-साल समानुपातिक रीचार्ज नहीं करने और कुदरती जलचक्र की अनदेखी का परिणाम सामने है। अनेक इलाकों में लक्ष्मण रेखा के उस पार खडा भूजल दोहन, सुरसा की तरह मुँह फैलाए, राज और समाज के लिए गंभीर चुनौती का पर्याय बन रहा है। दूसरी ओर, असहाय समाज, सुरक्षित विकासखंडों को अतिदोहित, क्रिटिकल और सेमी-क्रिटिकल विकासखंडों में बदलते देख रहा है। कुओं, नदियों तथा जलस्रोतों को सूखते देख रहा है। अटल भूजल योजना उसी चिन्ता का परिणाम है। इसी कारण अटल योजना को देश के 8000 से अधिक ग्रामों में संचालित करने का प्लान है। यह योजना गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तरप्रदेश के कुल 78 जिलों में संचालित होगी। उचित होता इसमें उन सारे विकासखंडों को जोडा जाता जहाँ कुएं और नदियाँ समय के पहले दम तोड रहे हैं। उल्लेखनीय है कि कुछ सेमी-क्रिटिकल विकासखंडों और ओपन-कास्ट माइनिंग वाले इलाकों में भी जल संकट कम नहीं है। अभी भी उन्हे जोड़ा जा सकता है। 

उल्लेखनीय है कि देश में पानी का टोटा नही है। आंकड़े बताते हैं कि भारत की धरती पर लगभग 4000 लाख हेक्टेयर मीटर पानी बरसता है। उसमें सतही जल अर्थात रन-ऑफ की मात्रा लगभग 1,963 हेक्टेयर मीटर और उपयोग में आ सकने वाले भूमिगत जल की मात्रा 398 लाख हेक्टेयर मीटर है। वहीं अनप्रयुक्त सतही जल की मात्रा 1273 लाख हेक्टेयर मीटर है। यह पानी समुद्र में गाद और गंदगी को पहुँचा रहा है। कुदरती जलचक्र को सहयोग कर रहा है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश में 245 लाख हेक्टेयर मीटर से थोड़े अधिक भूजल का उपयोग हो रहा है। यदि अनप्रयुक्त सतही जल अर्थात रन-ऑफ (1273 लाख हेक्टेयर मीटर) के केवल 10 प्रतिशत (127 लाख हेक्टेयर मीटर ) पानी का उपयोग भूजल रीचार्ज में कर लिया जाए तो देश का भूजल संकट दूर हो सकता है। अर्थात अटल भूजल योजना सफल हो सकती है। 

अटल योजना के लिए धनराशि की व्यवस्था विश्वबैक और भारत सरकार द्वारा की जाएगी। अनुभव बताता है कि अच्छी योजनाओं के लिए कभी भी धन की कमी नहीं रही। यदि कमी होती है तो वह स्थायी समाधान के लिए उचित तकनीक के चुनाव की। उदाहरण के लिए पिछले कुछ सालों से भूजल रीचार्ज के लिए रुफ वाटर हार्वेस्टिंग को कारगर उपाय के तौर पर पेश किया जाता है, पर चेन्नई का 1919 की गर्मी का अनुभव, उस प्रयास की तकनीकी सफलता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इसके अलावा, अनेक लोग पानी बचाने के छुट-पुट प्रयासों या मनरेगा को लगातार गंभीर हो रहे संकट का समाधान मानते हैं, पर अनुभव बताता है कि कुछ इलाकों में स्थिति बद से बदतर हो रही है। अर्थात मामला धन का नहीं वरन सही तकनीकों के चयन का है।  मामला किए कामों के स्थायित्व का है। सेवा की गैरन्टी का है। कुछ प्रमुख बातें जिन पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए, निम्नानुसार हैं-

रीचार्ज के लिए सही मात्रा में सही संरचनाओं का चुनाव। मौजूदा समय में यह सबसे बड़ी कमी है। सोख्ता गड्ढा जैसे छोटे-छोटे प्रयासों और ड्रेनेज लाइन अर्थात डिस्चार्ज जोन में जल संरक्षण के लिए बनाई संरचनाओं से वांछित मात्रा में रीचार्ज नही हो सकता। अतः इस बिन्दु पर नए सिरे से सोचने और विकल्प तय करने की आवश्यकता है। निर्मित संरचनाओं के रख-रखाव का आधार उनकी सेवा प्रदाय क्षमता है। यदि वे कुछ ही समय में सिल्ट से भर जाती हैं तो उनकी डिजाइन में बदलाव ही सही विकल्प है। प्रत्येक इलाके में भूजल दोहन की वृद्धि की मात्रा अलग-अलग है। इस मात्रा को ज्ञात कर उससे कम से कम दोगुनी मात्रा को गहरे रीचार्ज-सह-जल संचय तालाबों में जमा करना चाहिए। पूरे एक्वीफर को शत-प्रतिशत रीचार्ज करना होगा। सूखे दिनों में उसकी आंशिक प्रतिपूर्ति के लिए अतिरिक्त जल का संचय करना होगा। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो स्थिति में सुधार नहीं होगा। पानी के उपयोग में संयम बरतना होगा। कृषि और उद्योग क्षेत्र में जल उपयोग पद्धतियों को बिना कारगर बनाए स्थिति में सुधार संभव नहीं है। जो जितना पानी खर्च करता है, उसे उतना पानी धरती को लौटाना होगा। हर स्तर पर जल बजट बनाना और उसे अमल में लाना आवश्यक है। 

सेन्ट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड और राज्य के भूजल संगठनों को भूजल रीचार्ज के लिए नोडल विभाग का उत्तरदायित्व सौंपना और उत्तरदायी बनाना होगा। अगले कुछ सालों तक भूजल रीचार्ज योजनाओं की बंदरबांट बन्द करनी होगी। यह तकनीकी काम है। हर किसी को अन्ना हजारे या राजेन्द्र सिंह मानना बहुत भारी पडेगा। पंचायतों और नगरीय निकायों को समस्याओं के विवरण पेश करने की जिम्मेदारी सौंपनी होगी। बिना तकनीकी दक्षता और परिणामदायी क्षमता के उन्हें काम सौंपने से परिणाम नहीं मिलेंगे। उन्हें जल बजट, रख-रखाव, जल साक्षरता जैसी जिम्मेदारी ही सौंपी जाना चाहिए। 

 

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