श्रीलंका आज चर्चा का विषय है। 900 मिमी से लेकर 5000 मिमी तक की वर्षा वाला देश अगर सूखे की वजह से आर्थिक संकट की बात करे तो स्थिति हास्यास्पद ही कहेंगे।
श्रीलंका ने अपने आप को किया दिवालिया
भारत के पड़ौसी देश श्रीलंका ने लगातार ध्वस्त होती आर्थिक स्थिति के चलते अपने आप को दिवालिया घोषित कर दिया है। श्रीलंका में यह स्थिति, उसके द्वारा द्वारा अपनाई गलत आर्थिक नीतियों जिसका मूल आधार ऋणं कृत्वा घृतमं पीवेत था, के कारण पनपी। कहा जा रहा है कि यह स्थिति श्रीलंका द्वारा विदेशों से बहुत अधिक कर्ज लेने और उसे लौटाने में असमर्थ होने के कारण बनी है। लंका के परेशान लोग सड़कों पर हैं। रास्ता नहीं सूझ रहा है क्योंकि देश दिवालिया घोषित हो चुका है।
यह उदाहरण अकारण नहीं दिया जा रहा है। इस उदाहरण को भारत में बढ़ते भूजल दोहन के कारण, आने वाले गंभीर संकट से जोड़ा जा सकता है। ऐसा संकट जो दुनिया में, सबसे पहले समुद्र के किनारे स्थित दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर ने भोगा था। उस दौर में केपटाउन की पानी की सप्लाई ठप पड गई थी। यह पानी की बद-इन्तजामी का परिणाम था। पानी की उस बद-इंतजामी के आधार पर कहा जा सकता है कि कुछ दिनों के लिए ही सही, पानी के मामले में केपटाउन शहर दिवालिया हो गया था।
डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ.(WWF) के सर्वे के आधार पर संभावना है कि सन 2050 तक दुनिया के 3500 लाख लोग गंभीर जल संकट की चपेट में आवेंगे। सर्वे के अनुसार सारी दंनिया में 100 नगरों में यह संकट बेहद गंभीर होगा। इन नगरों में चीन के 40 और भारत के 30 शहर होंगे। जल संकट के दिवालियेपन की ओर बढ़ते भारतीय नगरों के नाम हैं - दिल्ली, जयपुर, इंदौर, अमृतसर, पुणे, श्रीनगर, कोलकता, बैंगलुरु, मुम्बई, कोजीकोडा और विसाखापटनम। पिछले सालों में शिमला और चेन्नई जल संकट की त्रासदी भोग चुके हैं। जल संकट के पीछे अनेक कारण बताए जाते हैं जिनमें प्रमुख हैं - बढ़ता शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और संकट से निपटने में सक्षम इफ्रास्ट्रक्टर का अभाव और संभवतः सही सोच की कमी। वर्षा आधारित इलाकों में जल संकट का मुख्य कारण है भूजल का बढ़ता उपयोग। मुख्य खामी जिस पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए वह है - कुदरत के नियमों की अनदेखी करता अवैज्ञानिक भूजल दोहन और पानी की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद विकल्पों की अनदेखी। आईए, श्रीलंका के संदर्भ में इसे समझने का प्रयास करें।
कुदरत ने भूजल भण्डारों के रिचार्ज होने और खाली होने के लिए स्वचालित व्यवस्था कायम की है। इस व्यवस्था के कारण, हर साल, बरसात में खाली हुआ भूजल भंडार फिर से भर जाता है। कुदरती व्यवस्था के कारण ही बरसात के बाद, उन भंडारों से, अपने आप, कुछ मात्रा में पानी बाहर आता है और सोतों, झरनों तथा नदियों को जिन्दा रखता है। यह कुदरत द्वारा निर्धारित व्यवस्था है जो धरती के नीचे के पानी के संतुलन को स्थायित्व प्रदान करती है। कछार को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाती है। सूखे दिनों में बाहर आए पानी के बाद शेष बचे पानी को धरती की कोख में फिक्स डिपॉजिट की तर्ज पर जमा रखती है। इसी व्यवस्था के कारण पूर्व में सब कुछ सामान्य रहता था।
सभ्यता के विकास के साथ जब मनुष्य ने नदियों से दूर बसने का निर्णय लिया तो जलापूर्ति के लिए तालाब, कुए और बावडियाँ विकसित की गईं। धीरे-धीरे, धरती की कोख में फिक्स डिपॉजिट की तर्ज पर जमा भूजल का दोहन आरंभ हुआ। प्रारंभ में उस दोहन का प्रभाव नगण्य था पर धीरे-धीरे हालात बदलने लगे। बदलते हालातों की अनदेखी हुई और अधिकांश लोग बरसात के कुदरती रिचार्ज को पर्याप्त मानने की भूल करने लगे। जाहिर है, सूखे दिनों में समानुपातिक रिचार्ज की व्यवस्था का अभाव इंगित करता है कि अनदेखी बदस्तूर चालू है।
धरती की कोख खाली हो रही
सभी जानते हैं कि धरती की कोख से पानी की निकासी के कारण अधिकांश जगह जल संकट का जन्म होता है। उस निकासी के ही कारण कुए, तालाब, नलकूप सूखते हैं और छोटी तथा मंझौली नदियों के सूखे दिनों के प्रवाह में गंभीर कमी पनपती है। अधिकांश नदियाँ बरसाती बन जाती हैंं। गंगा, बृह्मपुत्रा या सिन्धु जैसी बडी नदियों का भी प्रवाह घट जाता है। प्रयासों के अभाव में स्थिति लगातार गंभीर हो रही है। प्रवाह बहाली बढ़ाने का रोडमेप अनुपलब्ध है। पब्लिक डोमेन में जानकारी का अभाव है।
तकनीकी लोगों तथा स्वयं सेवी संस्थानों ने भूजल स्तर की गिरावट का संज्ञान अवश्य लिया पर लगभग सभी लोग बरसात के दिनों में कुदरती रीचार्ज को बढ़ाने में लगे हैं। गौरतलब है कि रीचार्ज का यह प्रयास, सूखे दिनों में फिक्स डिपाजिट से बाहर निकाले पानी की भरपाई अर्थात समानुपातिक रीचार्ज के लिए किया जाना था। देश में पर्याप्त पानी होते हुए भी यह नहीं हुआ। अभी भी प्रयास या विकल्प मुख्य धारा में नहीं है। अभी भी जल संकट से निपटने के लिए नए गहरे नलकूप खोदने की मानसिकता बरकरार है। यही मानसिकता जल संकट को हवा दे रही है।
अगली खामी और भी अधिक दुखदायी है। उल्लेखनीय है कि भूजल संगठनों द्वारा समय समय पर विकासखंडों को इकाई मानकर उनमें संचित भूजल की कुल मात्रा और भूजल दोहन की कुल मात्रा का अनुमान लगाया जाता है। विदित हो कि सन 2020 की भूजल आकलन रिपोर्ट .(Dynamic Ground Water Resource Assessment Report 2020) के अनुसार देश के कुल सालाना भूजल भंडार 436 बिलियन क्यूबिक मीटर और दोहन योग्य भंडार 398 बिलियन क्यूबिक मीटर हैं। रिपोर्ट की तालिका - 1 (State wise Ground Water Availability, Utilization and Stage of Extraction) पेज 87 में कहा गया है कि देश में भूजल का मौजूदा सालाना दोहन 244.92 बिलियन क्यूबिक मीटर और भविष्य में दोहन योग्य भूजल की बाकी मात्रा 184.56 बिलियन क्यूबिक मीटर है। यह प्रस्तुति बेहद खतरनाक है क्योंकि यदि भूजल आकलन रिपोर्ट की अनुशंसा पर अमल किया जाए अर्थात बाकी बचे 184.56 बिलियन क्यूबिक मीटर भूजल का किसी तरह उपयोग कर लिया तो तो गर्मी आते-आते देश की हर जल संरचना सूख जावेगी। हर नदी सूख जावेगी। जीवन के अस्तित्व पर संकट आ जावेगा। यदि कुछ पानी बचेगा तो वह गहरे एक्वीफरों में जमा पानी होगा जिसकी हर बूंद में खतरनाक रसायनों यथा आर्सेनिक, फ्लोराइड इत्यादि के मिलने की संभावना होगी। देश पानी के मामले में दिवालिया हो जावेगा।
श्रीलंका की कहानी के सबक
अब लौटें श्रीलंका की कहानी के सबक पर। बरसात के बाद की पानी की आवश्यकता सतही जल से या/तथा भूजल और सतही जल के मिलेजुले उपयोग से यथासंभव पूरी की जावे। रबी के मौसम में खेती, पेयजल या अन्य उपयोग के लिए जितने भूजल का दोहन किया जाता है उसकी भरपाई रिचार्ज तालाबों से पूरी करने का प्रयास किया जाए। गौरतलब है कि देश में पानी का टोटा नहीं है। टोटा सही रोडमैप के अभाव का है। अर्थात पहली आवश्यकता है भूजल दोहन के अवैज्ञानिक अतिदोहन के खतरों को सही तरीके से पब्लिक डोमेन में पेश करने, सूखे मौसम में समानुपातिक रिचार्ज करने और दिवालिया होने से बचने की।