नदी जल विवाद चाहे वे अन्तरराष्ट्रीय हों या अन्तरराज्यीय, उनके समाधानों की तो खूब चर्चा होती है पर समाधानों के स्थायित्व और उनकी निरापदता की चर्चा नहीं होती। वह (स्थायित्व एवं निरापदता) समाधान सम्बन्धी विचार गोष्ठियों में चर्चा का मुख्य बिन्दु भी नहीं होता। इस कमी या अनदेखी के कारण, सामान्य व्यक्ति के लिये नदी जल विवादों के समाधानों के टिकाऊपन और वास्तविक असर को समझ पाना बेहद कठिन होता है।
यह अनदेखी, मुख्य रूप से जल्दी-से-जल्दी फैसले पर पहुँचने की उत्कट इच्छा और पानी की लगातार बढ़ती माँग का परिणाम होती है। अब समय आ गया है जब हमें आवंटित पानी के उपयोग की टिकाऊ और निरापद रणनीति विकसित करने और उस पर अमल करने की आवश्यकता है।
इन दिनों सिंधु अन्तरराष्ट्रीय नदी जल संधि की समग्र समीक्षा के लिये आवाज उठ रही है। यह वही संधि है जिसे अब तक सारी दुनिया, दो युद्धों के उपरान्त भी सफलतम समझौते के रूप में स्वीकारती रही है। मौजूदा स्थिति यह है कि भारत ने 1960 से लेकर अब तक अपने हिस्से के पूरे पानी का उपयोग नहीं किया है।
जाहिर तौर पर जो कारण समझ में आता है वह है हर प्रस्ताव को लेकर पाकिस्तान द्वारा अड़ंगेबाजी। जहाँ तक देश के अन्दर के अन्तरराज्यीय नदी जल विवादों का प्रश्न है तो उनमें से कुछ सुलझ गए हैं तो कुछ में पानी के बँटवारे को लेकर अन्तहीन अन्तर्कलह है। इस कारण, कई बार विवाद सुलझाने का तरीका कानून व्यवस्था की चुनौती बनता है। अपने पक्ष में न्याय के लिये न्यायालय में गुहार लगाता है। विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित कराता है।
अन्तरराज्यीय नदी विवादों की कहानी में कावेरी विवाद और रावी-व्यास विवाद मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं। कावेरी विवाद अन्तहीन लगता है तो रावी-व्यास विवाद विधानसभा में पारित हुए प्रस्ताव के कारण असहमति का सम्भवतः अलग किस्म का पहला उदाहरण है। विवादों की अन्तहीन कहानी में महानदी भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। उसके पानी के बँटवारे को लेकर छत्तीसगढ़ और ओड़िशा के बीच विवाद पनप चुका है।
केन्द्र सरकार कानून की सीमा में दोनों के बीच सहमति बनाने के लिये प्रयासरत है। गौरतलब है कि इन दिनों भारत में अन्तरराज्यीय नदी विवादों की कहानी आम हो रही है और अधिकांश राज्य उस बीमारी का दंश भोग रहे हैं। इन विवादों की जड़ में पानी की बढ़ती माँग है। ऐसी माँग जो कई बार पानी की उपलब्धता की अनदेखी करती है तो कई बार मानवता के निरापद जीवन की।
अन्तरराष्ट्रीय नदी घाटी जल विवादों का समाधान, हेलसेंकी समझौते के प्रावधानों के अनुसार तर्कसंगत तथा समानता के आधार पर होता है। विवाद की स्थिति में आपसी चर्चा और अन्त में अन्तरराष्ट्रीय प्राधिकरण का दरवाजा खटखटाया जाता है। यही मौजूदा अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था है। अन्तरराज्यीय नदी जल विवादों में भारतीय संविधान के प्रावधान मार्गदर्शी और न्यायालय के फैसले बन्धनकारी होते हैं।
भारत की अधिकांश नदी घाटियों में बारिश के मौसम में ही अधिकतम पानी उपलब्ध होता है। वही मुख्यतः आवंटन का आधार है। उसे ही बाँधों और बैराजों में जमा किया जाता है। विदित है कि बाढ़ के साथ बड़ी मात्रा में गाद आती है और उसकी अधिकांश मात्रा जलाशय में जमा होती है। गाद जमाव के कारण एक ओर हर साल यदि बाँध और बैराज अपनी क्षमता खोते हैं तो दूसरी ओर इलाके में पानी की माँग सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती है।
आवंटन में गाद जमाव के कारण जल संचय में होने वाली हानि की अनदेखी होती है। आवंटन को टिकाऊ बनाने के लिये बाँधों और बैराजों की सेवा अवधि की निरापद निरन्तरता के बारे में विचार होना चाहिए। उसकी अनदेखी अन्ततः नदी जल विवादों के समाधानों के भविष्य को प्रभावित करेगी।
नदी जल बँटवारे की मौजूदा व्यवस्था में ग्लोबल वार्मिंग के सकारात्मक या नकारात्मक असर का समावेश नहीं है। विदित है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण बारिश की मात्रा और उसके पैटर्न में अन्तर आएगा। वर्षा दिवस कम होगे। बाढ़ें अधिक भयावह होंगी। इस कारण मौजूदा बाँधों और बैराजों के फूटने का खतरा बढ़ेगा।
आवश्यक है कि ग्लोबल वार्मिंग के नदी प्रवाह पर पड़ने वाले प्रभावों का अविलम्ब अध्ययन प्रारम्भ किया जाये। नदी घाटी में पानी की उपयोग योग्य इष्टतम मात्रा का निर्धारण हो। बाढ़ को ध्यान में रख पुराने बाँधों और बैराजों को सुरक्षित बनाने का प्रयत्न हो। नए सिरे से प्लानिंग हो। नए सिरे से जल बँटवारे की समीक्षा हो। आवश्यक हो तो उसे परिमार्जित किया जाये। उपभोक्ता समाज के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिये पूरा-पूरा प्रयास हो।
ग्लोबल वार्मिंग के असर से बारिश की मात्रा और उसके चरित्र में उल्लेखनीय अन्तर आएगा। उसकी तीव्रता बढ़ेगी। तीव्रता बढ़ने के कारण भूमि कटाव बढ़ेगा। गाद अधिक उत्पन्न होगी। उसकी बड़ी मात्रा जलाशयों में जमा होगी, उनकी उम्र घटाएगी और समाधानों के भविष्य को प्रभावित करेगी। इसलिये बारिश के चरित्र में हो रहे सम्भावित बदलाव को ध्यान में रख जल संचय की विधियों में नवाचार और टिकाऊ विकल्पों पर विचार होना चाहिए। वही नदी जल विवादों के समाधान के स्थायित्व, निरापद सेवा और भविष्य का पुख्ता आधार है।
यह सच है कि जल विवादों से जुड़े देश या राज्य अपने अधिकारों के प्रति बेहद सचेत होते हैं पर नदी के पानी के बँटवारा करते समय उसकी कुदरती भूमिका की अक्सर अनदेखी होती है। उसके पीछे अनेक दबाव होते हैं। कुछ दबावों के कारण नदी की बायोडायवर्सिटी प्रभावित होती है और प्रदूषण पनपता है तथा अन्ततः निर्मलता प्रभावित होती है। नदी की निर्मलता पर बढ़ते खतरे के कारण नदी की कुदरती भूमिका गड़बड़ाती है।
निर्मलता खोता पानी अनेक प्रकार के खतरों को जन्म देता है। घटती बायोडायवर्सिटी के कारण नदी की पानी को स्वतः निर्मल बनाने वाली काबिलियत घटती है। उसके घटने के कारण पानी का उपयोग सीमित होता है तथा प्रकारान्तर से समझौते के भविष्य तथा स्थायित्व के लिये संकट का कारण बनता है।
नदी जल आवंटन के फलस्वरूप जब मनचाहा पानी उपलब्ध होता है तो किसान को उन्नत खेती अपनाने तथा उद्योगों को कल-कारखाने लगाने के लिये प्रेरित किया जाता है। अनुभव बताते हैं कि उन्नत खेती तथा उद्योगों के साइड इफेक्ट, पर्यावरणीय और प्राकृतिक संसाधनों की हानि के रूप में सामने आने लगे हैं। इसलिये नदी जल आवंटन को रासायनिक खेती और औद्योगिक के फायदों तथा नुकसानों से जोड़कर देखना चाहिए। इसमें हवा, पानी और मिट्टी की बिगड़ती गुणवत्ता और उसके कारण होने वाली बीमारियों का भी संज्ञान लेना चाहिए। इस संज्ञान में सूखती और प्रदूषित होती नदियों का मुद्दा जुड़ा होना चाहिए।
जैवविविधता का संकट भी सम्मिलित होना चाहिए। उन्नत खेती की बढ़ती लागत और छोटे किसान का मोहभंग भी सम्मिलित होना चाहिए। यदि उक्त सम्बन्ध सहज नहीं रहा तो देश को करोड़ों अकुशल ग्रामीण मजदूरों तथा लघु और सीमान्त किसानों के लिये नौकरी या आजीविका के अवसर उपलब्ध कराना होगा। यह नदी जल आवंटन विवादों से बड़ी चुनौती होगी।
गौरतलब है कि सम्बन्धित राज्य सामान्यतः अधिक-से-अधिक पानी के उपयोग का प्रयास करते हैं। जलनीति में इस उपयोग की प्राथमिकता तो तय है पर सीमा तय नहीं है। सीमा तय नहीं होने के कारण पानी के उपयोग पर बाजार हावी होने लगता है और मूलभूत आवश्यकताएँ पीछे छूट जाती हैं। उल्लेखनीय है कि कावेरी के पानी की लगभग 95 प्रतिशत मात्रा उपयोग में लाई जा रही है। नदी विज्ञान की नजर में यह सीमा अनुचित है। नदी की सेहत और उसकी प्राकृतिक भूमिका को ध्यान में रख कुदरती प्रवाह की अनदेखी नहीं करना चाहिए।
इसलिए हर नदी घाटी के जल आवंटन को जलनीति की प्राथमिकता के अनुसार नए सिरे से तय कर लागू कराना चाहिए। अधिक पानी चाहने वाली फसलों और प्रदूषण पैदा करने वाले उद्योगों को हतोत्साहित करना चाहिए अन्यथा नदी जल विवाद नासूर बन जाएगा। संक्षेप में नदी जल विवाद मात्र पानी का बँटवारा ही नहीं है वह बेहद गम्भीर और समाज के जीवन से जुड़ा मामला है। इसलिये पानी को आवंटित कराने से अधिक महत्त्वपूर्ण है आवंटित पानी के सुरक्षित उपयोग की टिकाऊ और निरापद नीति बनाना। वही उसकी अनिवार्य आवश्यकता है। वही उसका भविष्य है।
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