हाईटेक शहरों में बारिश का कहर

Submitted by RuralWater on Sat, 07/30/2016 - 11:50


.गुरूग्राम बनाम गुड़गाँव समेत देश के दिल्ली-मुम्बई बंगलुरु और हैदराबाद जैसे हाईटेक शहर बारिश की चपेट में हैं। आफत की बारिश के चलते डूब में आने वाले इन शहरों ने संकेत दिया है कि तकनीकी रूप से स्मार्ट सिटी बनाने से पहले शहरों में वर्षाजल के निकासी का समुचित ढाँचा खड़ा करने की जरूरत है। लेकिन हमारे नीति नियंता हैं कि इन संकेतों को उत्तराखण्ड में देवभूमि की तबाही तथा कश्मीर एवं चेन्नई में आ चुकी प्रलंयकारी बाढ़ के बावजूद नजरअन्दाज कर रहे हैं।

बाढ़ की यह स्थिति शहरों में ही नहीं है, इस त्रासदी को असम व बिहार जैसे वे राज्य भी झेल रहे हैं, जहाँ बाढ़ दशकों से आफत का पानी लाकर हजारों ग्रामों को डुबो देती है। इस लिहाज से शहरों और ग्रामों को कथित रूप से स्मार्ट व आदर्श बनाने से पहले इनमें ढाँचागत सुधार के साथ ऐसे उपाय करने की जरूरत है, जिससे ग्रामों से पलायन रुके और शहरों पर आबादी का दबाव न बढ़े?

गुड़गाँव और बंगलुरु मानसूनी बारिश की सबसे ज्यादा चपेट में हैं। वर्तमान मुसीबत का वजह कम समय में ज्यादा बारिश होना तो है ही, जल निकासी के इन्तजाम नाकाफी होना भी है।

दरअसल औद्योगिक और प्रौद्योगिक विकास के चलते शहरों के नक्शे निरन्तर बड़े हो रहे हैं। गुड़गाँव तो भूमण्डलीकरण के दौर में ही एक ममूली गाँव से महानगर के रूप में विकसित हुआ है। इस विकासक्रम मेें गाँव से शहर बनते गुड़गाँव के नदी-नाले और ताल-तलैया तो नष्ट हुए ही, अरावली की उन पहाड़ियों को भी सीमेंट-कंक्रीट का जंगल खड़ा करने के लिये रेत में बदल दिया जो गुड़गाँव से लेकर दिल्ली तक जलवायु सन्तुलित रखने का काम करती थीं।

इन कारणों के चलते, जहाँ जल संग्रहण का क्षेत्र कम हुआ, वहीं अनियोजित शहरीकरण में बरसाती पानी के निकासी के रास्तों का ख्याल ही नहीं रखा गया। यही कारण है कि गुड़गाँव में गगनचुम्बी इमारतें और मोबाइल टावर तो दिखाई देते हैं, लेकिन धरती पर कहीं ताल-तलैया और नाले दिखाई नहीं देते हैं।

यही वजह रही कि औसत से महज 259 मिलीमीटर बारिश ज्यादा होने से यह औद्योगिक एवं प्रौद्योगिक स्मार्ट शहर 2 से लेकर 4 फीट तक पानी में डूब गया और दिल्ली-जयपुर रास्ते में 25 किलोमीटर लम्बा महाजाम लग गया। मिलेनियम सिटी के नाम से विख्यात गुड़गाँव में वह टेक्नोलॉजी तत्काल कोई काम नहीं आई, जिसे वाई-फाई जोन के रूप में विकसित किया गया था।

साफ है, शहरों की बुनियादी समस्याओं का हल शहरों में मुफ्त वाई-फाई देने या रात्रि में पर्यटन पर जोर देने से निकलने वाला नहीं है, इसके समाधान शहर बसाते समय पानी निकासी के प्रबन्ध करने से भी निकलेंगे। गुड़गाँव में आदमी-तो-आदमी उद्योग जगत की भी नींद हराम है।

जल के इतने बढ़े क्षेत्र में भराव का कारण गुड़गाँव का विकास उद्वहन परियोजनाओं (हाइड्रोलॉजीकल प्लान) के अनुसार नहीं होना भी है। नरेंद्र मोदी जैसा कि दावा कर रहे हैं कि शहरीकरण ही नहीं, स्मार्ट शहर वर्तमान की जरूरत हैं, तो यह भी जरूरी है कि शहरों की अधोसंरचना सम्भावित आपदाओं के अनुसार विकसित की जाये?

गुड़गाँव आईटी और ऑटो कम्पनियों का बड़ा नाभि केन्द्र है। अधिकतर आईटी कम्पनियों के कार्यालय यहीं हैं। मारुति सुजुकी, हीरो, होंडा और इफको के कारखाने यहीं हैं। विकास की इस होड़ में गुड़गाँव में हीरो होंडा और इफको चौराहे तो अस्तित्व में आ गए हैं, लेकिन प्राचीन विरासत और प्रकृति के अस्तित्व से जुड़ी पहचानों के संकेत नहीं मिलते हैं।

गुड़गाँव की तरह बंगलुरु भी साइबर सिटी के नाम से विश्व विख्यात है। लेकिन यहाँ भी मामूली बारिश ने हालात इतने बदतर बना दिये हैं कि सुरक्षा दलों को सड़कों व गलियों में नावें चलाकर लोगों के प्राण बचाने पड़े हैं। यहाँ बाढ़ इतनी थी कि कई लोगों ने भोजन के लिये जाल बिछाकर मछलियाँ तक पकड़ने का काम किया।

ऐसी ही स्थिति जुलाई माह की शुरुआत में भोपाल में देखने में आई थी। जयपुर में भी यही हाल है। यहाँ नदी और नालों पर इतने अतिक्रमण हुए हैं कि बारिश के पानी की निकासी इन्तजाम ठप हैं। यहाँ मानसूनी पानी बहा ले जाने का माध्यम जो द्रव्यवती नदी थी, वह सरकारी उदासीनता के चलते अतिक्रमण की चपेट में है। इसे बचाने के लिये भी प्रकृति प्रेमियों को संघर्ष से दो-चार होना पड़ रहा है।

आफत की यह बारिश इस बात की चेतावनी है कि हमारे नीति-नियन्ता, देश और समाज के जागरूक प्रतिनिधि के रूप में दूरदृष्टि से काम नहीं ले रहे हैं। पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मसलों के परिप्रेक्ष्य में चिन्तित नहीं हैं।

बंगलुरु में जल-जमाव2008 में जलवायु परिवर्तन के अन्तरसकारी समूह ने रिपोर्ट दी थी कि धरती पर बढ़ रहे तापमान के चलते भारत ही नहीं दुनिया में वर्षाचक्र में बदलाव आने वाले हैं। इसका सबसे ज्यादा असर महानगरों पर पड़ेगा। इस लिहाज से शहरों में जल-प्रबन्धन व निकासी के असरकारी उपायों की जरूरत है।

इस रिपोर्ट के मिलने के तत्काल बाद केन्द्र की तत्कालीन संप्रग सरकार ने राज्य स्तर पर पर्यावरण संरक्षण परियोजनाएँ तैयार करने की हिदायत दी थी। लेकिन देश के किसी भी राज्य ने इस अहम सलाह पर गौर नहीं किया। इसी का नतीजा है कि हम जल त्रासदियाँ भुगतने को विवश हो रहे हैं। यही नहीं शहरीकरण पर अंकुश लगाने की बजाय ऐसे उपायों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे उत्तरोत्तर शहरों की आबादी बढ़ती रहे।

यदि यह सिलसिला इन त्रासदियों को भुगतने के बावजूद जारी रहता है तो ध्यान रहे, 2031 तक भारत की शहरी आबादी 20 करोड़ से बढ़कर 60 करोड़ हो जाएगी। जो देश की कुल आबादी की 40 प्रतिशत होगी। ऐसे में शहरों की क्या नारकीय स्थिति बनेगी, इसकी कल्पना भी असम्भव है?

वैसे, धरती के गर्म और ठंडी होते रहने का क्रम उसकी प्रकृति का हिस्सा है। इसका प्रभाव पूरे जैवमण्डल पर पड़ता है जिससे जैविक विविधता का आस्तित्व बना रहता है। लेकिन कुछ वर्षों से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि की रफ्तार बहुत तेज हुई है। इससे वायुमण्डल का सन्तुलन बिगड़ रहा है।

यह स्थिति प्रकृति में अतिरिक्त मानवीय दखल से पैदा हो रही है। इसलिये इस पर नियंत्रण सम्भव है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल चेन्नई की जल त्रासदी को ग्लोबल वार्मिंग माना था। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन समिति के वैज्ञानिकों ने तो यहाँ तक कहा था कि तापमान में वृद्धि न केवल मौसम का मिजाज बदल रही है, बल्कि कीटनाशक दवाओं से निष्प्रभावी रहने वाले विषाणुओं-जीवाणुओं, गम्भीर बीमारियों, सामाजिक संघर्षों और व्यक्तियों में मानसिक तनाव बढ़ाने का काम भी कर रही है।

साफ है, जो लोग गुड़गाँव के जाम में 20 घंटे फँसे रहे, उन्होंने जरूर उक्त सम्भावित तनाव की त्रासदी को भोगा होगा?

दरअसल, पर्यावरण के असन्तुलन के कारण गर्मी, बारिश और ठंड का सन्तुलन भी बिगड़ता है। इसका सीधा असर मानव स्वास्थ्य और कृषि की पैदावार व फसल की पौष्टिकता पर पड़ता है।

यदि मौसम में आ रहे बदलाव से बीते तीन-चार साल के भीतर घटी प्राकृतिक आपदाओं और संक्रामक रोगों की पड़ताल की जाये तो वे हैरानी में डालने वाले हैं। तापमान में उतार-चढ़ाव से ‘हिट स्ट्रेस हाइपरथर्मिया’ जैसी समस्याएँ दिल व साँस सम्बन्धी रोगों से मृत्यु दर में इजाफा हो सकता है। पश्चिमी यूरोप में 2003 में दर्ज रिकॉर्ड उच्च तापमान से 70 हजार से अधिक मौतों का सम्बन्ध था।

बढ़ते तापमान के कारण प्रदूषण में वृद्धि दमा का कारण है। दुनिया में करीब 30 करोड़ लोग इसी वजह से दमा के शिकार हैं। पूरे भारत में 5 करोड़ और अकेली दिल्ली में 9 लाख लोग दमा के मरीज हैं। अब बाढ़ प्रभावित समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दमा के मरीजों की और संख्या बढ़ना तय है। बाढ़ के दूषित जल से डायरिया व आँख के संक्रमण का खतरा बढ़ता है।

भारत में डायरिया से हर साल करीब 18 लाख लोगों की मौत हो रही है। बाढ़ के समय रुके दूषित जल से डेंगू और मलेरिया के मच्छर पनप कर कहर ढाते हैं। तय है, बाढ़ थमने के बाद बाढ़ प्रभावित शहरों को बहुआयामी संकटों का सामना करना होगा। बहरहाल जलवायु में आ रहे बदलाव के चलते यह तो तय है कि प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति बढ़ रही है।

इस लिहाज से जरूरी है कि शहरों के पानी का ऐसा प्रबन्ध किया जाये कि उसका जल-भराव नदियों और बाँधों में हो जिससे आफत की बरसात के पानी का उपयोग जल की कमी से जूझ रहे क्षेत्रों में किया जा सके। साथ ही शहरों की बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने के लिये कृषि आधारित देशज ग्रामीण विकास पर ध्यान दिया जाये। क्योंकि ये आपदाएँ स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि अनियंत्रित शहरीकरण और कामचलाऊ तौर-तरीकों से समस्याएँ घटने की बजाय बढ़ेंगी ही?