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अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं ने इस सिलसिले में जो अध्ययन किये हैं, उनसे भी साफ हुआ है कि नल के मुकाबले बोतलबन्द पानी ज्यादा प्रदूषित और नुकसानदेह है। इस पानी में प्लास्टिक कणों के अलावा खतरनाक बैक्टीरिया इसलिये पनपे हैं, क्योंकि नदी और भूजल ही दूषित हो गए हैं। इन स्रोतों को प्रदूषण मुक्त करने के कोई ठोस उपाय नहीं हो रहे हैं, बावजूद बोतलबन्द पानी का कारोबार सालाना 15 हजार करोड़ से भी ज्यादा का हो गया है।
बोतलबन्द पानी की उपलब्धता और उसे सफर में साथ रखना जितना आसान है, उसे पीना उतना ही सेहत के लिये हानिकारक है। दुनिया भर में इस पानी की गुणवत्ता को लेकर बेहद चौंकाने वाले खुलासे होते रहे हैं। किन्तु इस बार जो खुलासा हुआ है, वह और भी ज्यादा डराने वाला है।न्यूयॉर्क की स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधार्थी ने अपने अध्ययन में पाया था कि 90 प्रतिशत बोतलबन्द पानी में प्लास्टिक के बारीक कण घुले हुए हैं। इनमें दुनिया के नौ देशों के 11 नामी ब्रांड शामिल हैं। जिनमें भारत की बिस्लेरी, एक्वाफिना और ईवियन जैसी कम्पनियाँ भी हैं। इन ब्रांड की 259 बोतलों के निरीक्षण में पाया है कि इस पानी में 90 प्रतिशत पानी पीने लायक नहीं है। ये नमूने दिल्ली, चेन्नई, मुम्बई, कोलकाता समेत दुनिया के 19 शहरों से लिये गए थे। इन बोतलों के एक लीटर पानी में 10.4 माइक्रो प्लास्टिक के कण पाये गए हैं।
यह पानी नल से मिलने वाले पानी की तुलना में भी प्लास्टिक अवशेष मिले होने के कारण दोगुना खराब है। इन अवशेषों में पॉलीप्रोपाइलीन, नायलॉन और पॉलीइथाईलीन टेरेपथालेट शामिल हैं। इन सबका इस्तेमाल बोतल का ढक्कन निर्माण करते वक्त किया जाता है। बोतल भरते समय ही प्लास्टिक के कण पानी में विलय हो जाते हैं।
प्रचार माध्यमों के जरिए बोतलबन्द पानी को पेयजल स्रोतों से सीधे पीने की तुलना में सेहत के लिये ज्यादा सुरक्षात्मक विकल्प बताया जाता है। किन्तु नए अध्ययनों में इसे खतरनाक बताया जा रहा है। भारत में विभिन्न ब्रांडों का जो बोतलबन्द पानी बेचा जा रहा है, वह शरीर के लिये हानिकारक है। इसकी गुणवत्ता इसे शुद्ध करने के लिये इस्तेमाल किये जा रहे रसायनों से भी होती है।
भारतीय अध्ययनों के अलावा अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं ने इस सिलसिले में जो अध्ययन किये हैं, उनसे भी साफ हुआ है कि नल के मुकाबले बोतलबन्द पानी ज्यादा प्रदूषित और नुकसानदेह है। इस पानी में प्लास्टिक कणों के अलावा खतरनाक बैक्टीरिया इसलिये पनपे हैं, क्योंकि नदी और भूजल ही दूषित हो गए हैं। इन स्रोतों को प्रदूषण मुक्त करने के कोई ठोस उपाय नहीं हो रहे हैं, बावजूद बोतलबन्द पानी का कारोबार सालाना 15 हजार करोड़ से भी ज्यादा का हो गया है।
ऐसी पुख्ता जानकारियाँ कई अध्ययनों से आ चुकी हैं कि देश के कई हिस्सों में धरती के नीचे का पानी पीने लायक नहीं रह गया है, इससे छुटकारे के लिये ही बोतलबन्द पानी चलन में आया था। इसकी गुणवत्ता के खूब दावे किये गए, पर अब बताया जा रहा है कि यह भी मानव शरीर के लिये मुफीद नहीं है। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बेचे जा रहे बोतलबन्द पानी में उपलब्ध रासायनिक तत्वों, जीवाणुओं और वीशाणुओं की जाँच से भी पता चला था कि यह पानी पीने के लायक नहीं है?
हालांकि अब इस तरह के इतने अध्ययन आ चुके हैं कि न तो किसी नए अध्ययन की जरूरत है और न ही इन पर अविश्वास करने की जरूरत है। पंजाब के बठिंडा जिले में हुए एक अध्ययन से जानकारी सामने आई थी कि भूजल और मिट्टी में बड़ी मात्रा में जहरीले रसायन घुले हुए हैं। इसी पानी को पेयजल के रूप में इस्तेमाल करने की वजह सेे इस जिले के लोग दिल और फेफड़ों से सम्बन्धित गम्भीर बीमारियों की गिरफ्त में आ रहे हैं। इसके पहले उत्तर प्रदेश और बिहार के गंगा के तटवर्ती इलाकों में भूजल के विषाक्त होने के प्रमाण सामने आये थे।
नरौरा परमाणु संयंत्र के अवशेष इसी गंगा में डालकर इसके जल को जहरीला बनाया जा रहा है। कानपुर के 400 से भी ज्यादा कारखानों का मल गंगा में बहुत पहले से प्रवाहित किया जा रहा है। गंगा से भी बदतर हाल में यमुना है। इसीलिये इसे एक मरी हुई नदी कहा जाने लगा है। यमुनोत्री से लेकर प्रयाग के संगम स्थल तक यह नदी करीब 1400 किमी का रास्ता नापती है।
इस धार्मिक नदी की यह लम्बी यात्रा एक गन्दे नाले में बदल चुकी है। इसे प्रदूषण मुक्त बनाने के लिये इस पर अभी तक करोड़ों रुपए खर्च किये जा चुके हैं, लेकिन बदहाली जस-की-तस है। गन्दे नालों के परनाले और कचरों के ढेर इसमें बहाने का सिलसिला अभी भी थमा नहीं है।
यमुना में 70 फीसदी कचरा दिल्लीवासियों का होता है, रही-सही कसर हरियाणा और उत्तर प्रदेश पूरी कर देते हैं। गन्दे पानी को शुद्ध करने के लगाए गए संयंत्र अपनी क्षमता का 50 प्रतिशत भी काम नहीं कर रहे हैं। यही कारण है कि मथुरा के आसपास के इलाकों में यमुना के दूषित पानी के कारण चर्मरोग, त्वचा कैंसर जैसी बीमारियाँ लोगों के जीवन में पैठ बना रही हैं। पशु और फसलें भी अछूते नहीं रह गए हैं। जाँचों से पता चला है कि इस इलाके में उपजने वाली फसलें और पशुचारा जहरीले हैं।
उत्तरी बिहार की फल्गू नदी के बारे में ताजा अध्ययनों से पता चला है कि इस नदी के पानी को पीने का मतलब है, मौत को घर बैठे दावत देना। जबकि सनातन हिन्दू धर्म में इस नदी की महत्ता इतनी है कि गया में इसके तट पर मृतकों के पिंडदान करने से उनकी आत्माएँ भटकती नहीं हैं। उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है। भगवान राम ने अपने पिता दशरथ की मुक्ति के लिये यहीं पिंडदान किया था। महाभारत युद्ध में मारे गए अपने वंशजों का पिंडदान युधिष्ठिर ने भी यहीं किया था। वायु पुराण के अनुसार फल्गू नदी भगवान विष्णु का अवतार है। इस नदीं के साथ यह दंतकथा भी जुड़ी है कि एक समय यह दूध की नदी थी। लेकिन अब यह बीमारियों की नदी है।
मध्य-प्रदेश की जीवनरेखा मानी जानी वाली नर्मदा भी प्रदूषित नदियों की श्रेणी में आ गई है। जबकि इस नदी को दुनिया की प्राचीनतम नदी घाटी सभ्यताओं के विकास में प्रमुख माना जाता है। लेकिन औद्योगिक विकास की विडम्बना के चलते नर्मदा घाटी परियोजनाओं के अन्तर्गत इस पर तीन हजार से भी ज्यादा छोटे-बड़े बाँध बनाए जा रहे हैं। तय है, पानी का बड़ी मात्रा में दोहन नर्मदा को ही मौत के घाट उतार देगा।
नर्मदा-सागर, महेश्वर और ओमकारेश्वर जैसे बड़े बाँध बनने के बाद इसकी अविरलता खत्म हो गई है। मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट में कहा गया है, इसके उद्गम स्थल अमरकंटक में भी यह प्रदूषित हो चुकी है। तमाम तटवर्ती शहरों के मानव मल-मूत्र और औद्योगिक कचरा इसी में बहाने के कारण भी यह नदी तिल-तिल मरना शुरू हो गई है।
भारतीय प्राणीशास्त्र सर्वेक्षण द्वारा किये एक अध्ययन में बताया गया है कि यदि यही सिलसिला जारी रहा तो इस नदी की जैवविविधता 25 साल के भीतर पूरी तरह खत्म हो जाएगी। इस नदी को सबसे ज्यादा नुकसान वे कोयला विद्युत संयंत्र पहुँचा रहे हैं जो अमरकंटक से लेकर खंबात की खाड़ी तक लगे हैं।
इन नदियों के पानी की जाँच से पता चला है कि इनके जल में कैल्शियम, मैग्नीशियम, क्लोराइड, डिजॉल्वड ऑक्सीजन, पीएच, बीओडी, अल्केलिनिटि जैसे तत्वों की मात्रा जरूरत से ज्यादा बढ़ रही है। ऐसा रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों का खेती में अंधाधुंध इस्तेमाल और कारखानों से निकलने वाले जहरीले पानी व कचरे का उचित निपटान न किये जाने के कारण हो रहा है।
बीते कुछ सालों में जीएम बीजों का इस्तेमाल बढ़ने से भी रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की जरूरत बढ़ी है। यही रसायन मिट्टी और पानी में घुलकर बोतलबन्द पानी का हिस्सा बन रहा है, जो शुद्धता के बहाने लोगों की सेहत बिगाड़ने का काम कर रहा है। कीटनाशक के रूप में उपयोग किये जाने वाले एंडोसल्फान ने भी बड़ी मात्रा में भूजल को दूषित किया है। केरल के कसारगोड जिले में अब तक एक हजार लोगों की जानें जा चुकी हैं और 10 हजार से ज्यादा लोग गम्भीर बीमारियों की चपेट में हैं।
हमारे यहाँ जितने भी बोतलबन्द पानी के संयंत्र हैं, वे इन्हीं नदियों या दूषित पानी को शुद्ध करने के लिये अनेक रसायनों का उपयोग करते हैं। प्रक्रिया में इस प्रदूषित जल में ऐसे रसायन और विलय हो जाते हैं, जो मानव शरीर में पहुँचकर उसे हानि पहुँचाते हैं। इन संयंत्रों में तमाम अनियमितताएँ पाई गई हैं। अनेक बिना लाइसेंस के पेयजल बेच रही हैं, तो उनके पास भारतीय मानक संस्था का प्रमाणीकरण नहीं है। जाहिर है, इनकी गुणवत्ता संदिग्ध है।
गोया, बोतलबन्द पानी में एक तो नदियों का दूषित पानी भरा जा रहा है, दूसरे बोतल के ढक्कन से इस पानी में प्लास्टिक के कण भी घुल रहे हैं। इस कारण इस पानी की जाँच में दूषित पाया जा रहा है, तो इन जाँचों में शक या अविश्वास की कोई गुंजाइश ही नहीं है। हमने जिन देशों से औद्योगीकरण का नमूना अपनाया है, उन देशों से यह नहीं सीखा कि उन्होंने अपने प्राकृतिक संसाधनों को कैसे बचाया। यही कारण है कि वहाँ की नदियाँ, तालाब, बाँध हमारी तुलना में ज्यादा शुद्ध और निर्मल हैं।
स्वच्छ पेयजल देश के नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन इसे साकार रूप देने की बजाय केन्द्र व राज्य सरकारें जल को लाभकारी उत्पाद मानकर चल रही हैं। यह स्थिति देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण है। अब मध्य प्रदेश समेत कई राज्यों में बरसाती पानी के संग्रह के लिये प्लास्टिक के तालाब खेतों में बनाए जा रहे हैं। जाहिर है, पेयजल को और सेहत के लिये खतरनाक बनाए जाने के उपाय सरकारों द्वारा किये जा रहे हैं।