रेगिस्तानी हवा से बनेगा पानी

Submitted by RuralWater on Thu, 04/05/2018 - 18:10


हवा से पानी बनाने की विधियों की खोज में कई देशों के वैज्ञानिक लगे हुए हैं। अमेरिका के बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विवि के उमर योगी ने भी हवा से पानी बनाने की तकनीक ईजाद की है। उन्होंने धातुओं का स्पंज जैसा दिखने वाला एक चूर्ण तैयार किया है, जो अपने खाली पोरों में से हवा से पानी सोखकर जमा करता है। इस एक किलो पाउडर से 12 घंटे में तीन लीटर पानी हवा से सोखकर संग्रहित किया जा सकता है।धरती के सबसे अधिक शुष्क क्षेत्र यानी रेगिस्तान की हवा में भी थोड़ी नमी होती है। इस नमी को निचोड़कर यदि पानी निकाल लिया जाये, तो रेगिस्तान में भी रहना आसान हो जाएगा। शोधकर्ता पिछले कई वर्षों से इसका कोई व्यावहारिक तरीका तलाशने में जुटे थे।

अब भारतवंशी समीर राव ने मैसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में ऐसा उपकरण विकसित कर लिया है, जो शुष्क-से-शुष्क रेगिस्तान की वायु से भी शुद्ध पेयजल बना सकता है। इसका जमीनी परीक्षण एरिजोना के सबसे शुष्क क्षेत्र में किया जा चुका है। इसे तैयार करने वाले वैज्ञानिकों का मानना है कि यह प्रणाली सुचारू रूप से काम करने लग जाती है तो अत्यधिक शुष्क क्षेत्रों में भी बेहद मददगार साबित होगी। यह अध्ययन हाल ही में ‘नेचर कम्युनिकेशन’ नामक जर्नल में छपा है।

दुनिया में ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जहाँ लोग पानी की तंगी से दो-चार हो रहे हैं। कई वैज्ञानिक और नेताओं ने तो यह भविष्यवाणी भी कर दी है कि अगला विश्व युद्ध पानी के कारण ही लड़ा जाएगा। किन्तु हवा से सस्ता पानी बनाने की सरल तकनीक विकसित हो जाती है तो सम्भव है, तीसरा विश्व युद्ध पानी के कारण न लड़ा जाये। हवा से पानी बनाने के इस नए उपकरण को ‘धातुई कार्बनिक प्रणाली’ मसलन मेटल-ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क को आधार में रखकर बनाया गया है।

एमओएफ धातु आयन से युक्त यौगिक होते हैं। इस उपकरण से महज 10 प्रतिशत आर्द्रता वाली शुष्क हवा से भी पानी बनाया जा सकता है, जबकि हवा से पानी निकालने के मौजूदा तरीकों जैसे कोहरा और ओस की बूँदों से पानी निकालने के लिये भी हवा में क्रमशः 100 व 50 फीसदी नमी होना जरूरी है। यही नहीं इस तकनीक से पानी निकालने के लिये प्रषीतक (रेफ्रिजरेशन) आधारित विधि के चलते अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जबकि नया उपकरण सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा से संचालित हो सकता है।

यह उपकरण चलायमान नहीं है, गोया स्थिर रखा रहने वाला यह उपकरण आसानी से सौर ऊर्जा ग्रहण कर लेता है। हालांकि इसे संचालित बनाए रखने के लिये अधिक मात्रा में सूरज के प्रकाश की आवश्यकता होती हैं। फिलहाल इस उपकरण की दिन भर में पानी बनाने की क्षमता 250 लीटर है, लेकिन उपकरण में लगे मेटल को बदलने से यह तीन गुना अधिक पानी बना सकता है। सूर्य से प्राप्त कर संग्रह की गई ऊर्जा से यह मशीन एक दिन और एक रात ही गतिशील रह सकती है। यह लगातार काम करती रहे इसके लिये इसमें बॉयोमास जैसे अन्य छोटे ऊर्जा स्रोतों का भी प्रयोग किया जा सकता है।

हालांकि हवा से पानी बनाने की विधियों की खोज में कई देशों के वैज्ञानिक लगे हुए हैं। अमेरिका के बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विवि के उमर योगी ने भी हवा से पानी बनाने की तकनीक ईजाद की है। उन्होंने धातुओं का स्पंज जैसा दिखने वाला एक चूर्ण तैयार किया है, जो अपने खाली पोरों में से हवा से पानी सोखकर जमा करता है। इस एक किलो पाउडर से 12 घंटे में तीन लीटर पानी हवा से सोखकर संग्रहित किया जा सकता है। दुनिया के वे क्षेत्र जहाँ अकसर बरसात होती रहती है, वहाँ पर इस जादुई चूर्ण से और भी अधिक पानी संग्रहित किया जा सकता है।

इजराइल की ‘वाटरजोन’ नाम की कम्पनी ने भी हवा से पानी बनाने के उपकरण का आविष्कार कर लिया है। इस उपकरण के माध्यम से अधिक नमी वाले हवा के तापमान को कम किया जाता है। नतीजतन हवा में मौजूद जल के अणु नीचे गिरने लगते हैं। कम्पनी के सीईओ ए कोहानी का कहना है कि यह उपकरण वायु की आर्द्रता को कम करने का काम करता है। जल के जो अणु नीचे गिरते हैं, उन्हें एक टंकी में एकत्रित कर लिया जाता है। इसके बाद इस पानी को एक छलनी यंत्र में प्रवाहित किया जाता है, इस प्रक्रिया से इस पानी में शेष रह गए सूक्ष्मजीव व रसायन सम्बन्धी प्रदूषित तत्व भी दूर हो जाते हैं। इस यंत्र से एक दिन में 250 से 800 लीटर शुद्ध पेयजल बना लिया जाता है। इजराइल की दुर्गम व शुष्क क्षेत्रों में रहने वाली रक्षा-सेना इस उपकरण से ही पानी निर्मित करती है। इसके आलावा ‘वाटरजोन’ सात अन्य देशों में भी पानी इस जल को प्रदाय करती है। इस यंत्र से एक लीटर पानी बनाने में खर्च मात्र डेढ़ रुपया आता है।

पुणे की कम्पनी ‘टैप इन एयर’ ने इन सबसे विलक्षण का काम किया है। इसने ऐसी तकनीक विकसित कर ली है, जो भारतीय रसोईघरों में हवा से पानी बनाने की आसान सुविधा देगी। भारत सरकार के पेयजल एवं स्वच्छता अभियान के तहत आयोजित ‘सृजन भारत’ कार्यक्रम में इस कम्पनी ने हवा से पानी बनाने के उपकरणों का प्रदर्शन भी किया।

कम्पनी के प्रबन्धक आनंद दाते ने दावा किया है कि हमने हवा से पानी बनाने की नितान्त स्वदेशी तकनीक विकसित की है। इसके जरिए कोई स्त्री या पुरुष अपने रसोईघर में शुद्ध पेयजल की जरूरत के मुताबिक निर्माण कर सकता है। इस मशीन की कीमत करीब 55 हजार रुपए पड़ेगी। इससे महज एक यूनिट बिजली की खपत कर प्रतिदिन 30 लीटर पानी बनाया जा सकता है। हालांकि अमेरिका द्वारा निर्मित हवा से पानी बनाने के यंत्र भारत के कुछ उद्योगों में लगे हुए हैं। लेकिन एक तो इनकी कीमत ज्यादा है, दूसरे ये बिजली भी अधिक खाते हैं। 15 लाख की कीमत वाला यह उपकरण छह यूनिट बिजली खर्च करके मात्र 48 लीटर पानी का ही निर्माण कर पाता है।

हवा से पानी बनाने के प्रयोगों पर वैज्ञानिक बहुत पहले से काम कर रहे हैं। 1839 में विलियम रॉर्बट ग्रोव नामक एक ब्रिटिश वैज्ञानिक ने जल के विद्युत विच्छेदन सम्बन्धी एक प्रयोग के द्वारा जल को हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन में तोड़ने की सफलता प्राप्त की थी। इस सफलता से उन्होंने यह भी परिकल्पना की कि यदि विद्युत विच्छेदन यही प्रक्रिया विपरीत तरीके से अपनाई जाये तो हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के योग से जल के साथ-साथ विद्युत भी उत्पन्न की जा सकती है।

हवा से बनेगा पानीअपनी कल्पना को साकार करने की दृष्टि से उन्होंने इस दिशा में प्रयोग भी किया। उन्होंने प्लेटिनम के दो पत्तर लिये और उन्हें एक सीलबन्द बोतल से जोड़ा, जिसमें हाइड्रोजन भरी हुई थी। दूसरे पत्तर को उसी सीलबन्द बोतल से जोड़ा, जिसमें ऑक्सीजन रखी गई थी। दोनों बोतलों को तनु गंधक अम्ल में रखने पर दोनों इलेक्ट्रेडों के बीच में वास्तव में विद्युत का प्रवाह हुआ और फलस्वरूप गैस की बोतलों में जल का निर्माण हो गया।

इस आविष्कार को मान्यता व ख्याति मिलने के बाद से ही अनेक वैज्ञानिक सरल व सस्ती तकनीक के जरिए हवा से पानी बनाने के प्रयोगों में जुटे रहे। अब जाकर इक्कीसवीं सदी में उनके सपने फलीभूत होते दिख रहे हैं। दरअसल वैज्ञानिकों ने अध्ययनों में पाया कि पूरे ब्रह्माण्ड में मौजूद सभी तत्वों में द्रव्यमान की दृष्टि से लगभग 75 प्रतिशत सिर्फ हाइड्रोजन है। सभी तत्वों के कुल परमाणुओं में से लगभग 90 प्रतिशत सिर्फ हाइड्रोजन परमाणु हैं। सभी तारों, मंदाकिनियों और अन्य गैसीय ग्रहों में हाइड्रोजन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। सभी तारों का निर्माण आणविक हाइड्रोजन से निर्मित गैसीय बादलों से ही हुआ है।

इन तथ्यों के सामने आने के बाद सौरमण्डल के सबसे चमकीले ग्रह शुक्र पर जीवन की सम्भावना बनी है। 1962 से 1978 के बीच शुक्र के अध्ययन के लिये अन्तरिक्ष में छोड़े गए उपग्रहों से ज्ञात हुआ है कि इस ग्रह की सतह का तापमान 450 डिग्री सेल्सियस से ऊपर है। ऐसी स्थिति में जीवन का विकास असम्भव है। लेकिन इसके वायुमण्डल के बीच वाले हिस्से यानी 40 से 60 किलोमीटर ऊँचाई के बीच में सूक्ष्मजीव हो सकते हैं। साथ ही शुक्र के बादलों पर सल्फ्यूरिक एसिड और प्रकाश सोखने वाले कणों से बनने वाले धब्बे भी मिले है।

प्रकाश सोखने वाले बैक्टीरिया धरती पर भी पाये जाते हैं। ये सूक्ष्म जीव शैवाल की तरह भी हो सकते हैं। दरअसल इस अम्लीय वातावरण में सूक्ष्म जीव कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण कर सल्फ्यूरिक एसिड उत्पन्न करते हैं। ठीक उसी तरह शुक्र के बादलों और अम्लीय वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के साथ सल्फ्यूरिक एसिड पानी की बूँद के रूप में अदृश्य अवस्था में मौजूद हैं।

साफ है, अब दुनिया में जिस तरह से पानी बनाने की कोशिशें तेज हो रही हैं, ठीक उसी तर्ज पर वैज्ञानिक शुक्र ग्रह पर बस्ती बसाने की सम्भावना की तालाश करते हुए शुक्र पर बड़ी मात्रा में मौजूद सल्फ्यूरिक एसिड से पानी बनाने की कोशिशों में लगे हैं। बहरहाल धरती से लेकर अन्तरिक्ष तक वायुमण्डल में तैर रही गैसों व अम्लों से पानी निर्माण के अभियान तेज हो गए हैं।