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चंद्रमा की सतह पर पानी किसी एक भू-भाग में नहीं, बल्कि हर तरफ फैला हुआ है। इससे पहले की जानकारियों से सिर्फ यह ज्ञात हो रहा था कि चंद्रमा के ध्रुवीय अक्षांश पर अधिक मात्रा में पानी है। इसके अतिरिक्त चंद्रमा के दिनों के अनुसार भी पानी की मात्रा बढ़ती व घटती रहती है। पृथ्वी के साढ़े उनतीस दिन के बराबर चंद्रमा का एक दिन होता है। चंद्रमा पर पानी की उत्पत्ति का ज्ञान होने के साथ ही, इसके प्रयोग के नए तरीके ढूँढे जाएँगे। इस पानी को पीने लायक बनाने के लिये नए शोध होंगे। इसे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विघटित कर साँस लेने लायक वातावरण निर्मित करने की भी कोशिशें होंगी। भारत इसी साल अप्रैल में चंद्रयान-2 को प्रक्षेपित करने के अभियान में जुटा है। भारतीय अन्तरिक्ष एजेंसी इसरो पहली बार अपने यान को चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतारने की कोशिश में है। याद रहे भारत द्वारा 2008 में भेजे गए चंद्रयान-1 ने ही दुनिया में पहली बार चंद्रमा पर पानी होने की खोज की है। चंद्रयान-2 इसी अभियान का विस्तार है। यह अभियान मानव को चाँद पर उतारने जैसा ही चमत्कारिक होगा। इस अभियान की लागत करीब 800 करोड़ रुपए आएगी।
चाँद पर उतरने वाला यान अब तक चंद्रमा के अछूते हिस्से दक्षिणी ध्रुव के रहस्यों को खंगालेगा। चंद्रयान-2 इसरो का पहला ऐसा यान है, जो किसी दूसरे ग्रह की जमीन पर अपना यान उतारेगा। दक्षिणी ध्रुव पर यान को भेजने का उद्देश्य इसलिये अहम है, क्योंकि यह स्थल दुनिया के अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों के लिये अब तक रहस्यमयी बना हुआ है। यहाँ की चट्टानें 10 लाख साल से भी ज्यादा पुरानी बताई गई हैं।
इतनी प्राचीन चट्टानों के अध्ययनों से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति को समझने में मदद मिल सकती है। इससे इतर इस पर लक्ष्य साधने का अन्य उद्देश्य चंद्रमा के इस क्षेत्र का अब तक अछूता रहना भी है। दक्षिणी ध्रुव पर अब तक कोई भी यान नहीं उतारा गया है।
अब तक के अभियानों में ज्यादातर यान चंद्रमा की भूमध्य रेखा के आसपास ही उतरते रहे हैं। चांद पर उतरने की दिलचस्पी इसलिये भी है, क्योंकि यहाँ एक तो पानी उपलब्ध होने की सम्भावना जुड़ गई है, दूसरे यहाँ ऊर्जा उत्सर्जन की सम्भावनाओं को भी तलाशा जा रहा है। ऊर्जा और पानी दो ही ऐसे प्रकृति के अनूठे तत्व है, जो मनुष्य को गतिशील बनाए रख सकते हैं।
हमारे पुराण साहित्य में चंद्रमा का उल्लेख समुद्र-मंथन के प्रसंग में मिलता है। इसे, इस मंथन में मिले 14 रत्नों में से एक बताया गया है। यहाँ आश्चर्य होता है कि चंद्रमा कोई गाय हाथी, घोड़ा, शंख, महालक्ष्मी या धनवंतरि नहीं जो इतनी सहजता से मिल गया? चंद्रमा, पृथ्वी की तरह ब्रह्माण्ड का एक गृह है, जो लाखों साल से यथा-स्थान पर टिका हुआ है।
हमारे लोक-प्रचलन में चंद्रमा को बाल-गोपालों का मन बहलाने के लिये चंद्र-खिलौने के रूप में देने और चंदा मामा पुकारने के प्रतीक मिलते हैं। इससे यह पता चलता है कि पृथ्वीवासियों ने वैदिक साहित्य के प्रदुर्भाव से पहले ही चंद्रमा के अनेक खगोलीय रहस्यों को जान लिया था। यही रहस्य कालान्तर में ज्योतिष और राशि-चक्र का आधार बने। चांद्र वर्ष के आधार पर शोध पंचाग भी अस्तित्व में लाये जाते हैं। चंद्रमा के खगोलीय रहस्यों को जानने के दौर में ही चंद्रमा पर बस्ती बसाकर जीवनयापन की सम्भावनाओं की तलाश भी शुरू हो गई थी।
खैर, चंद्रमा पर जीवनयापन की स्थितियों को जानने से पहले, इसकी भौगोलिक स्थिति को समझते हैं। चंद्रमा पृथ्वी का सबसे करीबी गृह है। इसलिये इसे जानने की उत्सुकता खगोल-विज्ञानियों को हमेशा रही है। दरअसल जब पृथ्वी अस्तित्व में आई, उसी के समानान्तर चंद्रमा का प्रदुर्भाव हुआ। ये गृह जब बीज रूप में थे, तब इनके विकासक्रम की शुरुआत लघु ग्रहों के रूप में हुई थी।
आरम्भिक अवस्था में ये दोनों ग्रह-बीज पृथ्वी की कक्षा में ही लम्बे समय तक घूमते रहे। इस कालावधि में ये ग्रह अन्तरिक्ष में भटकने वाले उल्का-पिंडों, क्षुद्र-ग्रहों और अन्य घातक वस्तुओं का प्रहार अपनी छाती पर झेलते रहे। गोया, इनका निरन्तर विस्तार होता रहा। फिर कालान्तर में पृथ्वी और चंद्रमा पूर्ण ग्रहों के रूप में अस्तित्व में आये। खगोल विज्ञानी भी अब मानने लगे हैं कि ग्रहों की निर्माण विधियाँ यही हैं।
चंद्रमा की तुलना में पृथ्वी पर उल्का-पिंडों ने कहीं ज्यादा पथराव किया। इससे एक ओर जहाँ पृथ्वी फैलती चली गई, वहीं इसके वर्त्तुलाकार धरातल पर बोझ बढ़ता चला गया। इस भार से पृथ्वी स्वयं की ओर तेज गति से घूमने लगी।
फलस्वरूप वह अस्थिर हो गई। दूसरी तरफ सूर्य का घटने-बढ़ने वाला गुरुत्वाकर्षण प्रभाव भी जोर-अजमाइश में लगा था। इस कारण ढोल रही धरती के पृष्ठ भाग पर भयंकर समुद्री लहरें उठने लगीं। लहरों के इस घर्षण से चंद्रमा पृथ्वी से छिटक कर दूर चला गया। अन्ततः कालान्तर में कुछ समय अन्तरिक्ष में भटकने के बाद यही चंद्रमा पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण उसकी ओर खिंचा चला आया और पृथ्वी की परिक्रमा करने लगा।
पृथ्वी के जिस हिस्से में आज प्रशान्त महासागर है, चंद्रमा उसी स्थल से पृथ्वी से विलग हुआ था। वैज्ञानिक धारणाएँ भी इस तथ्य को स्वीकारती हैं। समुद्र मंथन के पराक्रमियों ने इस स्थल पर पहुँचकर तो चंद्रमा के पृथ्वी से अलग होने के रहस्य को जाना, दूसरे यहाँ जो खगोल व ज्योतिषशास्त्री शोधरत थे, उनसे ब्रह्माण्ड के अन्य रहस्यों को भी जाना।
भारत और जापान मिलकर ‘मून-मिशन’ की तैयारी में जुटे हैं। भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन के अध्यक्ष एएस किरण कुमार और जापान एरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी के अध्यक्ष नाओकी ओकुमारा ने एक संयुक्त बयान में इस ‘चंद्रमा-अभियान’ की जानकारी देते हुए कहा था, ‘इस अभियान की क्रियान्वयन से जुड़ी सभी तैयारियाँ लगभग पूरी कर ली गई हैं। मार्च 2018 के अन्त तक सभी प्रक्रियाएँ पूरी कर ली जाएँगी। तत्पश्चात इसे इसी साल अप्रैल या फिर नवम्बर में प्रक्षेपित कर दिया जाएगा।’
दोनों देशों का यह साझा कार्यक्रम नवम्बर-2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे के बीच अन्तरिक्ष अभियानों में सहयोग बढ़ाने पर हुई सहमति का परिणाम है। इस अभियान की विलक्षणता यह है कि इसमें चंद्रमा पर एक बार फिर मनुष्य को ले जाने और वहाँ की भूमि से नमूने एकत्रित करना भी शामिल है।
भारत मानवविहीन चंद्रयान-1, 22 अक्टूबर 2008 को भेजने में सफल हो चुका है। ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान, मसलन पीएसएलवी-सी-11 से छोड़े गए इस यान का उस वक्त खर्च करीब 400 करोड़ रुपए आया था। पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी करीब 4 लाख किमी है। यह यान पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर रहते हुए अभी भी सक्रिय है। यह सफलता हमें पहली बार में ही मिल गई थी।
दरअसल अन्तरिक्ष में मौजूद ग्रहों पर यानों को भेजने की प्रक्रिया बेहद जटिल और शंकाओं से भरी होती है। यदि अवरोह का कोण जरा भी डिग जाये या फिर गति का सन्तुलन थोड़ा भी बिगड़ कर लड़खड़ा जाये तो कोई भी चंद्र-अभियान या तो चन्द्रमा पर जाकर ध्वस्त हो जाता है, या फिर अन्तरिक्ष में कहीं भटक जाता है। इसे न तो खोजा जा सकता है और न ही नियंत्रित करके इसे दोबारा लक्ष्य पर लगाया जा सकता है। 1960 के दशक में जब अमेरिका ने उपग्रह भेजे थे, तब उसके शुरू के छह प्रक्षेपण के प्रयास असफल हो गए थे।
अविभाजित सोवियत संघ ने 1959 से 1976 के बीच 29 अभियानों को अंजाम दिया। इनमें से नौ असफल रहे थे। 1959 में रूस ने पहला उपग्रह भेजकर इस प्रतिस्पर्धा को गति दे दी थी। तब से लेकर अब तक 67 चंद्र-अभियान हो चुके हैं, लेकिन चंद्रमा के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं जुटाई जा सकी थी। इस होड़ का ही नतीजा रहा कि अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने चंद्रमा पर मानव भेजने का संकल्प ले लिया।
20 जुलाई 1969 को अमेरिका ने यह ऐतिहासिक उपलब्धि वैज्ञानिक नील आर्मस्ट्रांग और बज एल्ड्रिन को चंद्रमा पर उतारकर प्राप्त भी कर ली। इसी से कदमताल मिलाते हुए रूस ने 3 अप्रैल 1984 को वैज्ञानिक स्नेकालोव, मालिशेव बाईकानूर और राकेश शर्मा को अन्तरिक्ष यान सोयूज टी-11 में बिठाकर चंद्रमा पर भेजने की सफलता हासिल की। चंद्रमा पर कदम रखने का इस अभियान के जरिए भारतीय राकेश शर्मा को भी अवसर मिल गया। इस कड़ी में चीन 2003 में मानवयुक्त यान चंद्रमा पर उतारने में सफल हो चुका है।
रूस और अमेरिका कालान्तर में चंद्र-अभियानों से इसलिये पीछे हट गए, क्योंकि एक तो ये अत्यधिक खर्चीले थे, दूसरे मानवयुक्त यान भेजने के बावजूद चंद्रमा के खगोलीय रहस्यों के नए खुलासे नहीं हो पाये। वहाँ मानव बस्तियाँ बसाए जाने की सम्भावनाएँ भी नहीं तलाशी जा सकीं। गोया, दोनों ही देशों की होड़ बिना किसी परिणाम पर पहुँचे ठंडी पड़ती चली गई। किन्तु 90 के दशक में चंद्रमा को लेकर फिर से दुनिया के सक्षम देशों की दिलचस्पी बढ़ने लगी। ऐसा तब हुआ जब चंद्रमा पर बर्फीले पानी और भविष्य के ईंधन के रूप में हिलियम-3 की बड़ी मात्रा में उपलब्ध होने की जानकारियाँ मिलने लगीं।
वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि ऊर्जा उत्पादन की फ्यूजन तकनीक के व्यावहारिक होते ही ईंधन के स्रोत के रूप में चाँद की उपयोगिता बढ़ जाएगी। यह स्थिति आने वाले दो दशकों के भीतर बन सकती है। गोया, भविष्य में उन्हीं देशों को यह ईंधन उपलब्ध हो पाएगा, जो अभी से चंद्रमा तक के यातायात को सस्ता और उपयोगी बनाने में जुटे हैं। ऐसे में जापान और भारत का साथ आना इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि चंद्रमा के परिप्रेक्ष्य में दोनों की प्रौद्योगिकी दक्षता परस्पर पूरक सिद्ध हो रही है।
मंगल हो या फिर चंद्रमा कम लागत के अन्तरिक्ष यान भेजने में भारत ने विशेष दक्षता प्राप्त कर ली है। दूसरी तरफ जापान ने हाल ही चंद्रमा पर 50 किमी लम्बी एक ऐसी प्राकृतिक सुरंग खोज निकाली है, जिससे भयंकर लावा फूट रहा है। चंद्रमा की सतह पर रेडिएशन से युक्त यह लावा ही अग्नि रूपी वह तत्व है, जो चंद्रमा पर मनुष्य के टिके रहने की बुनियादी शर्तों में से एक है। इन लावा सुरंगों के ईद-गिर्द ही ऐसा परिवेश बनाया जाना सम्भव है, जहाँ मनुष्य जीवन रक्षा के कृत्रिम उपकरणों से मुक्त रहते हुए, प्राकृतिक रूप से जीवनयापन कर सके।
इधर भारत के चंद्रयान-1 और अमेरिकी नासा के लुनर रीकॉनाइसेंस ऑर्बिटर ने हाल ही में ऐसी जानकारियाँ भेजी हैं, जिसने चंद्रमा पर चौतरफा पानी उपलब्ध होने के संकेत मिलते हैं। गोया, चंद्रमा की सतह पर पानी किसी एक भू-भाग में नहीं, बल्कि हर तरफ फैला हुआ है। इससे पहले की जानकारियों से सिर्फ यह ज्ञात हो रहा था कि चंद्रमा के ध्रुवीय अक्षांश पर अधिक मात्रा में पानी है। इसके अतिरिक्त चंद्रमा के दिनों के अनुसार भी पानी की मात्रा बढ़ती व घटती रहती है।
पृथ्वी के साढ़े उनतीस दिन के बराबर चंद्रमा का एक दिन होता है। ‘नेचर जिओ साइंस जर्नल’ में छपे लेख के मुताबिक चंद्रमा पर पानी की उत्पत्ति का ज्ञान होने के साथ ही, इसके प्रयोग के नए तरीके ढूँढे जाएँगे। इस पानी को पीने लायक बनाने के लिये नए शोध होंगे। इसे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विघटित कर साँस लेने लायक वातावरण निर्मित करने की भी कोशिशें होंगी। इसी पानी को विघटित कर इसे रॉकेट के ईंधन के रूप में भी इस्तेमाल किया जाएगा।
दरअसल भारतीय चंद्रयान-1 में ऐसे विशिष्ट कैमरे एवं स्पैक्ट्रोमीटर लगे हैं, जो चंद्रमा के भू-भाग की भौगोलिक स्थिति खनिज संसाधनों और रासायनिक संघटकों के चित्र तथा डाटा भेज रहे हैं। यह चंद्रयान अपने साथ दूसरे देशों के भी छह उपकरण अपने साथ ले गया है। नासा ने दो प्रोब भेजे हैं, जिनमें से एक चंद्रमा के गहरे ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फीले पानी के अनुसन्धान से जुड़े चित्र भेज रहा है।
बुल्गारिया ने भारत का सहयोग करते हुए यान में रेडिएशन डोस मॉनिटर (रेडॉम) भेजा है। यह यंत्र चंद्र की सतह पर विकिरण के स्तर की गणना से सम्बन्धित आँकड़े निरन्तर भेज रहा है। स्वीडन और जापान ने साझेदारी करते हुए एक एनॉलाइजर भेजा है, जो कि चंद्रमा पर सौर वायु के प्रभाव का आकलन कर रहा है।
ब्रिटेन ने एक एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर भेजा है, जो कि चाँद की धरती में खनिज संसाधनों की खोज में लगा है। इनके साथ जर्मनी ने भी भारत की सहभागिता करते हुए चंद्रमा की मिनरालॉजी यानी खनिजों के गुणों की पड़ताल के लिये एक पराबैगनी स्पेक्ट्रोमीटर भेजा है। इस तरह से इस यान में कुल 11 ऐसे विशिष्ट यंत्र संलग्न हैं, जो चंद्रमा की भूमि, जलवायु व उसके भूगर्भ से मनुष्य के रहने लायक स्थितियों की तलाश में लगे हैं।
दरअसल किसी भी ग्रह पर मनुष्य के रहने की दृष्टि से जरूरी है कि उस ग्रह के सूरज की दूरी इतनी हो कि वहाँ की सतह का तापमान पानी को तरल रूप में बनाए रखने के लायक हो। दरअसल चंद्रयान-1 ने पानी के जो डाटा भेजे हैं, उनके विश्लेषण से पानी में ओएच (हाइड्रोक्सिल) पाये जाने की उम्मीद बढ़ी है। ओएच, एच-2 ओ से अधिक सक्रिय है। नतीजतन तुरन्त किसी अन्य यौगिक से जुड़ जाता है। किसी भी ग्रह पर रहने के लिये यह भी जरूरी है कि वहाँ का तापमान न तो बेहद गर्म हो और न ही ठंडा। ऐसे ही ग्रह का आकार पृथ्वी के द्रव्यमान के अनुसार ही होना चाहिए, वरना गुरुत्वाकर्षण एक समस्या के रूप में आड़े आ सकता है।
बहरहाल फिलहाल केवल आशा और उम्मीदों पर काम हो रहा है। भविष्य की अन्तरिक्ष यात्राओं का सफर बहुत लम्बा होने के साथ सम्भावनाओं और आशंकाओं से भी जुड़ा है। गोया, जो अनन्त ब्रह्माण्ड को खंगाल रहे हैं, वे ही ऐसे स्थलों पर पहुँच सकते हैं, जहाँ शंकालु और निराशावादी पहुँचने का विचार भी नहीं कर सकते हैं। इस नाते चंद्रयान-2 अभियान का स्वागत करने की जरूरत है।