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सालों से वैज्ञानिक पर्यावरणीय खतरों को लेकर आगाह करते रहे हैं। दो दशक पहले रिमझिम बारिश का एक लम्बा दौर चला करता था जिससे वो बाढ़ में तब्दील नहीं हो पाती थी और ज़मीन के जल स्तर को बढ़ाने में बड़ा योगदान देती थी। अब बारिश एकाएक तेजी से होती है और बन्द हो जाती है जिसके कारण पानी सड़कों में बहता नजर आता है।
गुजरात से लेकर कश्मीर तक नदियाँ एकबार फिर उफान पर हैं। पर दो दशक पहले की और अब की बाढ़ में एक बड़ा फर्क आ गया है। मूलतः प्रकृति का नियम है-पहले मानसून आता है, फिर तेज मूसलाधार बारिश का दौर शुरू होता है और इसके फलस्वरूप बाढ़ आती है। लेकिन अब मानसून और बाढ़ करीब-करीब साथ ही आते हैं।इस बार मानसून आये 48 घंटे ही बीते थे कि गुजरात, केरल, उत्तरपूर्व से लेकर कश्मीर तक तबाही का मंजर नजर आने लगा। साफ तौर पर यह संकेत है कि नदियों की उम्र तेजी से घट रही है लेकिन प्रकृति को दोष देने की हड़बड़ी मत कीजिए। इस महान प्राकृतिक बदलाव के पीछे महान समाज और सरकार का ही पूरा-पूरा योगदान है।
देश की किसी भी नदी से डिसिल्टिंग यानी गाद हटाने का काम होता ही नहीं है। बेशक आप यह कह सकते हैं कि यह तो पहले भी कभी नहीं होता था। तो पहले यानी दो दशक पहले तक देश की ज्यादातर नदियाँ अविरल थीं। बहती नदी में खुद को साफ करने और गहराई बनाए रखने की क्षमता होती थी। वक्त बदला और नदी विकास का शिकार हुई।
पहाड़ में बड़ी मात्रा में हाइड्रो पावर प्लांट बने तो मैदान में सिंचाई परियोजनाओं के नाम पर नदी को बाँध दिया गया और नदी का बहना ही रुक गया। नदी रुकी मानो पूरी पारिस्थितकीय ही रुक गई। ओजोन की बात करना ज्यादा तकनीकी मामला हो सकता है लेकिन हर साल मुख्य नदियों का डिसिल्टिंग का बजट कहाँ जाता है, ये समझना रॉकेट साइंस नहीं है।
गाद जमा होने का सबसे बड़ा और भयावह उदाहरण गंगा पर बना फरक्का बैराज है। पीछे से आती गाद जमा होते-होते इतनी हो गई है कि नदी के बीचों बीच पहाड़ खड़े हो गए हैं। यही पानी फैलकर पूरे झारखण्ड-बंगाल सीमा को निगलता जा रहा है। राजमहल से लेकर मालदा तक का बड़ा क्षेत्र दुनिया के सबसे बड़े कटाव क्षेत्र में शामिल होने जा रहा है। गाद की तरह ही इस कटाव को रोकने के लिये भारी-भरकम बजट खर्च होता है। लेकिन मिलीभगत से ठेके बारिश शुरू होने के साथ ही जारी किये जाते हैं।
आज तक करोड़ों रुपए के बोल्डर कटान रोकने के लिए गंगा किनारे लगाए गए हैं। यह सवाल बेमानी है कि सैकड़ों की संख्या में बोल्डर बारिश के पहले ही क्यों नहीं लगाए जाते? बारिश के समय गंगा में बह गए बोल्डरों का कोई ऑडिट नहीं होता। गाजीपुर से गंगा के उत्तरी किनारे पर चलते हुए सहज ही अहसास हो जाता है कि सारी प्रचारित गंगा यात्राएँ अपेक्षाकृत सम्पन्न दक्षिणी किनारे से ही क्यों होती हैं।
गाजीपुर से आगे बलिया, तालकेश्वर, लालगंज, मांझीरोड, गुदरी, छपरा, सोनपुर, हाजीपुर, पूर्णिया, कटिहार, मनिहारी और मानिक चौक के सैकड़ों गाँवों में लोगों की कहानी और दिनचर्या कमोबेश एक ही है। हर कोई कटान में आ रहा। यही हाल दिल्ली में यमुना का और कमोबेश देश की हर नदी का होता जा रहा है। गाद भराव के चलते नदी समतल हो गई हैं और पहली बारिश होते ही पानी चौड़ाई में सड़कों और कॉलोनियों की तरफ फैलता है और जनता त्राहिमाम करने लगती है।
भला हो सुप्रीम कोर्ट का, जिसके डर से दिल्ली की यमुना का काफी हिस्सा इंसानी बस्तियों से बचा हुआ है, वरना कानपुर में तो लगता है जैसे शहर ही नदी के अन्दर घुसा जा रहा है। नदी की जमीन पर कब्जा करने की सबसे ज्यादा होड़ पहाड़ों में देखने को मिलती है। हरिद्वार, ऋषिकेश और उत्तरकाशी इसके बेशर्म उदाहरण हैं। नदी के घर में घुसते यह लोग हर बाढ़ के बाद दुहाई देते हैं कि नदी ने उनके घर को तबाह कर दिया।
सालों से वैज्ञानिक पर्यावरणीय खतरों को लेकर आगाह करते रहे हैं। दो दशक पहले रिमझिम बारिश का एक लम्बा दौर चला करता था जिससे वो बाढ़ में तब्दील नहीं हो पाती थी और ज़मीन के जलस्तर को बढ़ाने में बड़ा योगदान करती थी। अब बारिश एकाएक तेजी से होती है और बन्द हो जाती है जिसके कारण पानी सड़कों पर बहता नजर आता है।
ज़मीन का कांक्रिटाइजेशन बढ़ने से भी पानी जमीन के अन्दर नहीं जा पा रहा और बाढ़ को विकराल रूप दे रहा है। कॉलोनियों में लोग अपने घरों को ज़मीन से ऊपर उठाकर बनाते है लेकिन कॉलोनी के सीवेज या ड्रेनेज का व्यवस्थित इन्तजाम नहीं कर पाते। सरकार को दोष दें या अपने सोसाइटियों में इन्तजाम करें कि छत पर आने वाला पानी बेकार ना जाए, जमीन के भीतर समाए। अन्यथा इन बातों पर कंक्रीट डालिए और मानसून का मजा उठाइए।