इलाहाबाद में एक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा है, यह प्लांट तीन-चार घंटे में जितना सीवेज जमा करता है उसे शोधित करने में बीस-बाइस घंटे लगाता है, तकनीकी रूप से देखिए तो यह प्लांट चौबीसों घंटे अपनी पूरी क्षमता से काम कर रहा है लेकिन हकीकत में यह तीन-चार घंटे के सीवेज को ही शोधित कर पाता है यानी बाकि अठारह घंटे का सीवेज सीधा गंगा में प्रवाहित होता है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने अपने एक अध्ययन में बताया है कि ट्रीटमेंट प्लांट वहीं सफल हो सकते हैं जहाँ सीवेज पूरी तरह से जमीन के भीतर हो, जैसे कि लंदन में।
कोल इण्डिया, गेल, बीएचईल जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कई प्रमुख कम्पनियों के साथ ही निजी क्षेत्र के कुछ बड़े औद्योगिक घरानों तथा कई बैंकों ने गंगा की सफाई के लिये नमामि गंगे अभियान में सहयोग देने की इच्छा जाहिर की है। पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा ने एक कार्यशाला आयोजित कर गंगा सफाई में निजी क्षेत्र की प्रभावी भागीदारी तय करने की कोशिश की।इससे पहले अनेक अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएँ और देश भी प्रधानमंत्री की इस पहल में सहयोग देने की घोषणा कर चुके हैं। अब इससे यह बात तो साफ हो गई कि नमामि गंगे अभियान को संसाधन की कोई कमी नहीं है। वास्तव में देखा जाये तो गंगा सफाई के लिये संसाधन की कमी कभी रोड़ा थी ही नहीं। गंगा एक्शन प्लान प्रथम के समय से ही गंगा के लिये अच्छा खासा बजट रखा गया था। फिर भी गंगा की स्थिति में तनिक भी सुधार नहीं आया उलटे वह और भी ज्यादा मैली होती चली जा रही है।
वास्तव में गंगा सफाई का पैसे से कोई बहुत ज्यादा लेना-देना नहीं है। इसका सीधा सम्बन्ध समाज की जागरूकता और सरकारी इच्छाशक्ति से है। समाज में जागरूकता फैलाने के लिये बड़े पैमाने पर अभियान चलाना होगा ठीक उसी तरह जैसे पल्स पोलियो के लिये चलाया गया लेकिन सरकारी स्तर पर इतने बड़े पैमाने पर अभियान चलाने की इच्छाशक्ति और बजटीय प्रावधान नजर नहीं आता इसके अलावा जिन कार्यों में सबसे ज्यादा पैसा खर्च होता है उनकी बानगी देखिए।
इलाहाबाद में एक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा है, यह प्लांट तीन-चार घंटे में जितना सीवेज जमा करता है उसे शोधित करने में बीस-बाइस घंटे लगाता है, तकनीकी रूप से देखिए तो यह प्लांट चौबीसों घंटे अपनी पूरी क्षमता से काम कर रहा है लेकिन हकीकत में यह तीन-चार घंटे के सीवेज को ही शोधित कर पाता है यानी बाकि अठारह घंटे का सीवेज सीधा गंगा में प्रवाहित होता है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ने अपने एक अध्ययन में बताया है कि ट्रीटमेंट प्लांट वहीं सफल हो सकते हैं जहाँ सीवेज पूरी तरह से जमीन के भीतर हो, जैसे कि लंदन में। भारत में नाले आमतौर पर खुले ही रहते है भारतीय परिदृश्य में ट्रीटमेंट प्लांट नालों के ऊपर ही लगाए जाने चाहिए और वह भी छोटी-छोटी क्षमताओं वाले।
कोल इण्डिया ने गंगा में बहाए जाने वाले फूलों को खाद में तब्दील करने की प्रणाली विकसित की है वह अपने कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व फंड को इस काम में लगाना चाहती है। नदी का एक स्थापित सिद्धान्त है कि बहता पानी सड़ता नहीं है, हर वह चीज जो प्राकृतिक है उसे बहाने से गंगा का नुकसान नहीं होता, वह चाहे फूल हो या अस्थियाँ। फिर यह नहीं भूलना चाहिए कि गंगा का धरती पर आगमन किस उद्देश्य से हुआ था? फूलों से खाद बनाना एक अच्छी कोशिश है लेकिन इसमें फूलों को एक जगह जमा करने की लागत बहुत ज्यादा बैठती है।
गंगा पथ पर और दिल्ली में यमुना तट पर फूलों से खाद बनाने की कई कोशिशें नाकाम साबित हुई हैं। कोल इण्डिया और उसके जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियाँ यह तय कर ले कि उनका कचरा नदी नालों में नहीं जाएगा तो गंगा और कई नदियों के सूरते हाल में काफी फर्क नजर आने लगेगा। सिर्फ गंगा पथ पर ही सार्वजनिक क्षेत्र की बीस से ज्यादा कम्पनियाँ है जो दिन-रात अपना डिस्चार्ज गंगा को देती रहती हैं जिसमें सबसे ज्यादा योगदान एनटीपीसी है।
इस बीच एक अच्छी खबर आई कि सरकार नेहरू युवा केन्द्र के माध्यम से गंगा पथ के गाँवों में युवाओं को स्वच्छता दूत के रूप में जोड़ेगी। ये युवा लोगों को पर्यावरणीय खतरों के बारे में लोगों को जागरुक बनाएँगे। युवाओं को इस हेतु तैयार करने के लिये कई कार्यशालाएँ आयोजित की जाएगी। हालांकि इससे पहले भी गंगा वाहिनी बनाई गई थी, जिसका काम था लोगों को गंगा में प्रदूषण फैलाने से रोकना, वाहिनी शुरुआती शोर शराबे के बाद गायब हो गई, उम्मीद की जानी चाहिए इस बार ऐसा ना हो।