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वर्तमान में 1916 में हुए इस समझौते का भूत नई व्याख्या के साथ सामने आया है। समझौते में यह कहा गया था कि हरिद्वार में एक हजार क्यूसेक पानी लगातार बिना किसी बाधा के छोड़ा जाएगा ताकि हिन्दू यात्रियों के स्नान-ध्यान में कोई बाधा ना आये। उस समय हजार क्यूसेक की मात्रा तय करने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था और वह मुख्यतः हर की पैड़ी को ध्यान में रखकर तय किया गया था। अब गंगा संरक्षण मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय ने इसी समझौते को आधार मानकर अपर गंगा बेसिन में बाँध नीति तय करने का फैसला किया है। गंगा की आयु बताना मनुष्य के बस की बात नहीं है। गंगा के सौ साल का सम्बन्ध यहाँ उस ऐतिहासिक समझौते से है जिसके आधार पर गंगा की दशा और दिशा तय होनी थी और 1947 तक हुई भी। इस समझौते के दो अनुच्छेद बेहद खास हैं– पहला देश के हिन्दू प्रतिनिधियों और भारत सरकार के बीच समझौता हुआ था कि गंगा की अविरल धारा कभी भी रोकी नहीं जाएगी और दूसरा गंगा से जुड़ा कोई भी कदम हिन्दू समाज से पूर्व परामर्श के बिना नहीं उठाया जाएगा। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में राजा महाराजाओं, सन्यासियों और सिविल सोसायटी के एक समूह और अंग्रेज सरकार के बीच यह अभूतपूर्व समझौता उस आन्दोलन के बाद हुआ था जो हरिद्वार में बाँध बनाने के विरोध में हिन्दू समाज ने किया। अंग्रेज अपने वायदे पर खरे उतरे और जब तक भारत में रहे, गंगा की आस्था के साथ कोई खिलवाड़ नहीं किया।
समस्या शुरू हुई आजादी के बाद जब वहीं वर्ग सत्ता पर बैठा जिससे परामर्श के बाद ही गंगा की धारा से कोई छेड़छाड़ हो सकती थी। उसके बाद गंगा से खिलवाड़ का वह दौर शुरू हुआ जिसने गंगा को जगह-जगह बाँध दिया और उसकी पारिस्थितकीय त्राहिमाम कर उठी। टिहरी के अलावा बीस से ज्यादा बड़े बाँध हैं जिन्होंने भागीरथी-अलकनन्दा की साँसों को बाँध रखा है इसके अलावा 69 परियोजनाएँ गंगा घाटी पर प्रस्तावित/निर्माणाधीन है। गंगा का सर्वाधिक अहित आजाद भारत की सरकारों ने किया है।
लेकिन वर्तमान में 1916 में हुए इस समझौते का भूत नई व्याख्या के साथ सामने आया है। समझौते में यह कहा गया था कि हरिद्वार में एक हजार क्यूसेक पानी लगातार बिना किसी बाधा के छोड़ा जाएगा ताकि हिन्दू यात्रियों के स्नान-ध्यान में कोई बाधा ना आये। उस समय हजार क्यूसेक की मात्रा तय करने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था और वह मुख्यतः हर की पैड़ी को ध्यान में रखकर तय किया गया था। अब गंगा संरक्षण मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय ने इसी समझौते को आधार मानकर अपर गंगा बेसिन में बाँध नीति तय करने का फैसला किया है। जब चतुर्वेदी कमेटी, सात आईआईटी के समूह सहित कई कमेटियाँ गंगा पर अपनी रिपोर्ट दे चुकी हैं तथा इलाहाबाद और नैनीताल हाईकोर्ट अलग-अलग सन्दर्भों में गंगा बेसिन पर कई फैसले दे चुके हैं, तब इस पुराने समझौते को आधार बनाना थोड़ा अजीब लगता है।
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक मामले में अपना पक्ष रखते हुए इस दस्तावेज को प्रवाह से जुड़ी अपनी नीति का आधार बनाकर पेश किया है। इसके तहत सरकार की मंशा यह है कि तीन मुख्य धाराओं यानी भागीरथी, अलकनंदा और मंदाकिनी का संयुक्त जल प्रवाह कम-से-कम हजार क्यूसेक हो, जो वैसे भी इससे ज्यादा ही रहता है। तो इसके दो मतलब निकलते हैं पहला सरकार ने मन बना लिया है कि इन मुख्य धाराओं पर प्रस्तावित बाँधों को सहमति दी जा सकती है क्योंकि इसके बावजूद संयुक्त जल प्रवाह हजार क्यूसेक तो रहेगा ही, जब कि होना यह चाहिए कि हर धारा का अपना प्रवाह कम-से-कम हजार क्यूसेक हो। दूसरा तीन मुख्य धाराओं के अलावा गंगा की अन्य धाराओं की बात ही नहीं हो रही जिनमें पिंडर, धौलीगंगा जैसी बीस से ज्यादा बड़ी नदियाँ हैं, पहाड़ों से झरने वाली अनिगिनत धाराओं के संरक्षण की तो बात ही छोड़ दीजिए।
घोषित तौर पर यह नीति बेहतर नजर आएगी कि सौ साल पहले की मूल भावना को समझते हुए गंगा के मुख्य हिस्से में हजार क्यूसेक गंगाजल बहेगा लेकिन अलग-अलग नदियों के लिहाज से यह स्थिति बेहद दयनीय बन जाएगी। पिछले ढाई साल में हुई अंतरमंत्रालयीन बैठकों और मंथन कार्यक्रमों में कभी भी यह विषय नहीं रखा गया कि समझौते को सरकार की नीति का आधार बनाया जा सकता है। होना यह था कि समझौते के शताब्दी वर्ष में हम उस संकल्प को दोहराते कि भारत की जीवन रेखा को अविरल बनाएँगे ना कि उस समझौते के तकनीकी पक्ष को पकड़ कर उन पाँच बड़े बाँधों के लिये रास्ता साफ करते जिन्हें हाल ही में सरकार ने हरी झंडी दिखाई है।