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राधाकांत भारती की किताब 'मानसून पवन : भारतीय जलवायु का आधार'
वर्षा जल का उपयोग
अब शहरीकरण और शहरों के क्षेत्र में विस्तार से बारिश का पानी ज़मीन के नीचे नहीं पहुँचता है। वह नालियों-नालों में होकर बह जाता है। शहरों में आवासीय बस्तियों, पक्की सड़कों आदि के निर्माण के बाद बहुत कम क्षेत्र खुला रहता है। एक सरकारी अनुमान के अनुसार राजधानी दिल्ली की छतों का क्षेत्रफल लगभग 138 वर्ग किलोमीटर है। ये छतें वर्षा का 6.8 करोड़ घनमीटर जल प्राप्त करती है। इस समय यह सारा पानी नालियों-नालों में होकर यमुना में बह जाता है। अगर इसमें से केवल 10 प्रतिशत का संग्रह करके उसे ज़मीन के अंदर पहुंचा दिया जाए तो गर्मियों में पानी की कमी नहीं रहेगी। पहले विश्व की जनसंख्या कम थी और सभी लोगों की आवश्यकता पूरी करने के लिए पर्याप्त मात्रा में शुद्ध जल उपलब्ध था। लेकिन तब भी पानी का महत्व कम नहीं था। कृषि भूमि को सिंचाई सुविधा देने के लिए लड़ाइयां होती थी। अब विश्व की निरंतर बढ़ती जनसंख्या तथा बढ़ते हुए औद्योगिकीकरण की वजह से पानी की कमी महसूस की जा रही है। कुछ विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि अगर समय रहते पानी के संग्रह, उचित उपयोग, पुनः उपयोग और बेहतर इस्तेमाल के कारगर उपाय नहीं किए गए तो अगला महायुद्ध पानी के लिए हो सकता है।
हमारे देश के सभी भागों में समान रूप से वर्षा नहीं होती। दक्षिण की नदियों को 90 प्रतिशत जल और उत्तर की नदियों को 80 प्रतिशत जल जून से सितंबर तक के चार महीनों में प्राप्त होता है। इससे मानसून के महीनों में पानी की प्रचुरता और गर्मियों में पानी की कमी होती है। देश के लगभग सभी क्षेत्रों में मानसून के महीनों के दौरान काफी पानी उपलब्ध होता है। इस पानी का भंडारण करके बाढ़ और सूखे की समस्या का सामना किया जा सकता है।
भारत की जनसंख्या में वृद्धि और उनके विस्तार के कारण हमारे अनेक नगर पानी की समस्या का सामना कर रहे हैं। गर्मियों में यह समस्या अधिक उग्र हो जाती है। सिंचाई, औद्योगिक कार्यों, सफाई आदि में पानी का अंधाधुंध प्रयोग करने से भौम जल के स्तर में कमी हो रही है। औद्योगिक कचरे में विषैले रसायनों की उपस्थिति से नदियों, झीलों और सरोवरों का पानी प्रदूषित हो रहा है। शहरीकरण से यह समस्या और भी उग्र हो गई है।
अब शहरीकरण और शहरों के क्षेत्र में विस्तार से बारिश का पानी ज़मीन के नीचे नहीं पहुँचता है। वह नालियों-नालों में होकर बह जाता है। शहरों में आवासीय बस्तियों, पक्की सड़कों आदि के निर्माण के बाद बहुत कम क्षेत्र खुला रहता है। एक सरकारी अनुमान के अनुसार राजधानी दिल्ली की छतों का क्षेत्रफल लगभग 138 वर्ग किलोमीटर है। ये छतें वर्षा का 6.8 करोड़ घनमीटर जल प्राप्त करती है। इस समय यह सारा पानी नालियों-नालों में होकर यमुना में बह जाता है। अगर इसमें से केवल 10 प्रतिशत का संग्रह करके उसे ज़मीन के अंदर पहुंचा दिया जाए तो गर्मियों में पानी की कमी नहीं रहेगी।
पीने के पानी और उद्योगों के लिए पानी की जरूरत बढ़ गई है। कुछ किस्म की फसलें जैसे कि गन्ने की खेती, ज्वार, मक्का आदि मोटे अनाजों की तुलना में बहुत अधिक पानी लेती है। अधिकांश स्थानों पर सभी किस्म के अतिरिक्त पानी की यह जरूरत कुओं, नलकूपों के जरिए भूमिगत जल से पूरी की जाती है। इसके कारण भूमि जल का स्तर बहुत नीचे चला गया है और कुछ स्थानों पर गर्मियों में कुएँ सूख भी जाते हैं। भूमिगत जल का अंधाधुंध इस्तेमाल करने पर पानी की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है जिससे उद्योग तथा कृषि असर होता है।
स्थिति से निपटने के उपाय
भारत में जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण यह समस्या दिनों-दिन जटिल हो रही है। इस स्थिति पर काबू पाने के लिए आवश्यक है कि पानी की एक-एक बूंद की रक्षा की जाए और उसका सोच समझ कर उपयोग किया जाए। अब तक बारिश के पानी को नालियों-नालों के जरिए बहने दिया जाता था। जब तक जनसंख्या कम थी और देश के 40-50 प्रतिशत क्षेत्र में वन थे, चिंता की कोई बात नहीं थी। बारिश का अधिकांश पानी स्वतः ज़मीन के भीतर चला जाता था। लेकिन वन क्षेत्र में अत्यधिक कमी आने से अब स्थिति अत्यंत चिंतनीय हो गई है।
पूरे देश के कुछ क्षेत्र प्रति वर्ष अतिवृष्टि और अनावृष्टि से पीड़ित रहते हैं। जहां देश के एक भाग में अतिवृष्टि और बाढ़ के कारण किसानों के घर, खेत, खलिहान सभी पानी में डूब जाते हैं, देश के दूसरे भाग में भयंकर सूखे के कारण किसानों की फसल मारी जाती है। उनके जानवरों के लिए घास उपलब्ध नहीं होती और पीने के पानी की समस्या पैदा हो जाती है। अगर पानी का युक्तिसंगत ढंग उपयोग, संग्रह और संरक्षण किया जाए तो बाढ़ और सूखे की समस्या का समाधान हो सकता है।
प्रायः सभी नालियों-नालों का पानी नदियों में गिरने से बाढ़ की समस्या उग्र हो जाती है। बाढ़ काफी बड़े इलाके में तबाही मचाती है। बाढ़ की मार सबसे गरीब तबके पर अधिक पड़ती है। अगर बरसात के पानी को छोटे-छोटे तालाब, सरोवर और बांध बनाकर संग्रह कर लिया जाए और उसे ज़मीन के भीतर पहुंचा दिया जाए तो बाढ़ की तबाही पर काफी नियंत्रण किया जा सकता है।
पानी की कमी मनुष्यों और जानवरों दोनों को कष्ट देती है। पानी की कमी के कारण पर्यावरण को क्षति पहुँचती है और मनुष्यों तथा जानवरों- दोनों को तकलीफ़ उठानी पड़ती है।
एक ओर गंदे नालों की संख्या में वृद्धि, नगरपालिकाओं की जल-मल निकासी व्यवस्था, औद्योगिक कचरे और विषैले रसायनों से युक्त कचरे को नालियों-नालों में बहा देने, कृषि रसायनों और कीटनाशी दवाओं के प्रयोग से अच्छे किस्म का पानी दुर्लभ होता जा रहा है, दूसरी ओर जल स्रोतों- साधनों की रक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान न देने से देश के सीमित जल संसाधन तेजी से लुप्त हो रहे हैं और उनकी संख्या और गुणवत्ता कम हो रही है। चिंता की बात यह है कि अगर हमने जल संसाधनों का संरक्षण और विकास नहीं किया तो अगले पचास वर्षों में हमें पानी के भीषण अकाल का सामना करना पड़ेगा।
आने वाले खतरे के संकेत
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश की जनसंख्या 35 करोड़ थी और प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पानी की उपलब्धता 5,000 घनमीटर थी। आज देश की जनसंख्या एक अरब से अधिक है इससे प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पानी उपलब्धता 1,950 घनमीटर रह गई है। सन् 2010 तक यह उपलब्धता 1,000 घनमीटर ही रह जाएगी। धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि, जल स्रोतों की उपेक्षा और जीवन स्तर में सुधार के साथ पानी की खपत में वृद्धि के कारण पानी की प्रचुरता पानी की दुर्लभता में बदल रही है।
अगर हम अपने जल संसाधनों का संरक्षण करें और उपलब्ध पानी का उचित ढंग से उपयोग करें तो हमें पानी की कमी का सामना नहीं करना पड़ेगा। अनुमान है कि भारत में प्रति वर्ष 4,000 अरब घनमीटर पानी बरसता है। इसमें से प्रति वर्ष औसतन 1,953 अरब घनमीटर पानी प्रवाहित होता है। शेष पानी वाष्प बन कर उड़ जाता है या ज़मीन को नम करने के बाद धरती में चला जाता है। इस पानी में से केवल 400 अरब घनमीटर पानी ज़मीन की सतह पर और ज़मीन की सतह के नीचे प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रकार हम अभी वर्षा से प्राप्त जल का केवल 10 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल करते हैं।
लगभग दस वर्षों में जब देश की जनसंख्या में 20 प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी, हम वर्षा के पानी की वर्तमान जल भंडारण क्षमता में 10 प्रतिशत की वृद्धि भी नहीं कर पाएंगे। वर्षा के पानी का संग्रह करके इसका ज़मीन के भीतर जाना सुगम बनाकर न केवल बाढ़ और सूखे की समस्या पर नियंत्रण किया जा सकता है बल्कि पर्यावरण की भी रक्षा की जा सकती है। सच तो यह है कि पानी की रक्षा पर्यावरण की रक्षा की ओर पहला कदम है।
पानी की आवश्यकता का आबादी में वृद्धि, बेहतर जीवन की इच्छा, ऊर्जा और खाद्यान्नों की बढ़ती मांग और औद्योगिक उत्पादन से घनिष्ट संबंध है। इस समय हमें 600 अरब घनमीटर पानी की जरूरत होती है। पानी की जरूरत वर्तमान जल भंडारों (झीलों, सरोवरों और तालाबों), भूमिगत जल, कुओं, नलकूपों और नदियों से पूरी की जाती है।
पचास वर्ष बाद जब भारत की जनसंख्या डेढ़ अरब हो जाएगी हमारी शुद्ध जल की आवश्यकता 1,200 अरब घनमीटर हो जाएगी। दूसरे शब्दों में हम जितना पानी इस समय इस्तेमाल कर रहे हैं उससे दुगुना पानी इस्तेमाल करने लगेंगे। अगर हमने अभी से इस विषय की ओर ध्यान नहीं दिया तो पचास वर्ष बाद हमारी जनता के कुछ वर्गों को मुनासिब दाम पर शुद्ध पीने का पानी उपलब्ध नहीं हो सकेगा।
जल संग्रह के उपाय
भारत में बरसात से अतिरिक्त 600 अरब घनमीटर पानी संग्रह करने का कोई सरल कार्य नहीं है। इतना पानी संग्रह करने के लिए हमें लाखों सरोवर, तालाब, ताल-तलैया, पोखर और कुंड बनाने पड़ेगे। इससे भी महत्वपूर्ण यह बात है कि हमें अपनी जनता को यह बताना कि पानी की हर बूंद बहुमूल्य है और उसका उचित उपयोग किया जाना चाहिए। हमें जनता को पानी के भावी अकाल की आशंका और उससे निपटने के उपायों में प्रशिक्षित करना होगा।
जल संग्रह करने के लिए लंबी-चौड़ी योजनाएं बनाने, तकनीकी सलाह लेने और काफी धन जुटाने की जरूरत नहीं है। इसके लिए ग्रामीणों को सरकार का मुंह ताकने की भी जरूरत नहीं है। ग्रामीण अपने साधनों और श्रम से इस तरह की जल संग्रह करने की योजनाएं बना और उन्हें कार्यान्वित कर सकते हैं। हमारे पूर्वज छोटे-छोटे तालाब, बांध बनाकर यह काम करते थे। हमें अब उन्हीं के दिखाए रास्ते पर चलना है। इस दिशा में महाराष्ट्र में रालेगांव सिद्धी और राजस्थान में अलवर के लोगों ने अपने साधनों और श्रम से जल संग्रह की अनेक छोटी-छोटी योजनाओं को कार्यान्वित करके अपने क्षेत्र की कायापलट कर दी। उन्होंने जल संग्रह के लिए चोटे-छोटे बांध और सरोवर बनाए। उन्होंने वर्षा के पानी को बहने से बचाया और उसका संग्रह किया। इससे थोड़े ही समय में इस क्षेत्र की उजाड़, ऊसर, सूखी धरती नंदन कानन में बदल गई। जिस स्थान पर पहले घास भी नहीं होती थी वहां फसलें लहलहाने लगीं, अनेक तरह के फलों के वृक्ष फलों से लद गए। पहले गांव के लोगों को जानवरों के लिए घास, खाना पकाने के लिए ईंधन और पीने के पानी की दिक्कत होती थी। पानी के संग्रह की व्यवस्था के बाद अब इस क्षेत्र में ग्रामवासियों ने अपना पंचायती वन लगा दिया है। इस वन में तेजी से बढ़ने वाली प्रजातियों के वृक्ष लगाए गए हैं। ग्रामवासी बारी-बारी से वन की चौकसी करते हैं और सभी ग्रामवासियों को उनके पशुओं के लिए चारा और जलाने के लिए ईंधन के लिए ईंधन उपलब्ध का प्रयास करते हैं।
इन दोनों स्थानों पर हुए अच्छे कार्य की खबर सुगंध की तरह सर्वत्र फैल गई। मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में भयंकर सूखा पड़ा था, पानी के अधिकांश स्रोत सूख गए। तालाबों, सरोवरों में मुद्दत से गाद नहीं निकाली गई थी। बारिश के पानी का संग्रह न करने के कारण अधिकांश कुओं का जलस्तर बहुत नीचे चला गया था और कुछ कुएँ सूख गए थे।
इस क्षेत्र के लोग जब सहायता के लिए जिले के कलेक्टर से मिले तो उन्होंने लोगों को बताया कि सरकार के पास धन नहीं है। कलेक्टर ने लोगों को सलाह दी कि चंदे, श्रमदान और सरकारी तकनीकी सहायता से अपने जल स्रोतों का पुनरुद्धार करें। उन्हें फिर से सक्रिय करें। कलेक्टर ने पहले क्षेत्र के सभी जल-स्रोतों की सूची बनवाई और फिर लोगों से वर्षा शुरू होने से पहले सभी जल स्रोतों की मरम्मत और सुधार का काम अपने हाथ में लेने को कहा। दिकोला गांव में निवासियों की एक बैठक बुलाई। बैठक में गांव के सरपंच ने 6,500 रुपए देने की घोषणा की। सभी गांव निवासियों ने शक्ति भर चंदा दिया। कुछ ही देर में एक लाख रुपए की रकम हो गई। इस धन और गांव निवासियों के श्रमदान से सिवना और सोचली नदी के संगम पर सरकारी इंजीनियर की सलाह-निर्देशों के अनुसार पुराने बांध की मरम्मत-सुधार का काम किया गया। सारा कार्य फटाफट हो गया। बांध के निर्माण के बाद इलाके का नक्शा बदल गया। चारों तरफ हरियाली छा गई, निष्क्रिय पड़े गांव के हैंड-पंप फिर चालू हो गए। अगर बांध का निर्माण सरकारी तरीके से किया जाता तो उसके ऊपर 15 लाख रूपए खर्च आते। अब इस बांध के निर्माण से 700 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जा रही है।
इस तरह परलिया मारूगांव के लोगों ने चंदे से 7 लाख रुपए एकत्र करके पानी को बेकार बहने से रोका। बरुजाना गांव के लोगों ने एक पोखर को झील का रूप दिया।
मंदसौर जिले में अब तक ग्रामवासी पानी के स्रोतों की रक्षा करने और बारिश के पानी का भंडारण करने के लिए साढ़े तीन करोड़ रुपए खर्च कर चुके हैं। इससे 33 झीलों की मरम्मत-सुधार का कार्य किया गया, 166 झीलों, सरोवरों की गाद निकाली गई, छह बांध बनाए गए, 3,447 पोखर सरोवर खोदे गए और वर्षा के जल का संग्रह करके 5,634 हैंड-पंप फिर से सक्रिय किए गए। इस तरह स्वावलंबन और मेहनत की राह अपना कर लोगों ने अपनी भाग्य-रेखा बदल दी।