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मानसून की नई भविष्यवाणियों ने लोगों को दुविधा में डाल दिया है। भारतीय मौसम विभाग ने ताजा जानकारी देते हुए कहा है कि मानसून 1 जून को आने की बजाय 7 जून को केरल में दस्तक देगा। इसके विपरीत मौसम की भविष्यवाणी करने वाली निजी एजेंसी स्काईमेट का दावा है कि मानसून 29 या 30 मई को केरल पहुँच जाएगा।
हालांकि पिछले एक दशक में मौसम विभाग के अनुमान सटीक बैठे हैं। पिछले वर्ष जरूर 30 मई को मानसून आने की भविष्यवाणी की गई थी, लेकिन वह आया 5 जून को। अब जो सरकारी और निजी स्तर पर भविष्यवाणियाँ की गई हैं, उनमें 7 से 10 दिन का अन्तर है।
यह अन्तर क्यों आया इसकी वजह जानना तो मुश्किल है, लेकिन इन भिन्न-भिन्न भविष्यवाणियों ने असमंजस की स्थिति पैदा करने का काम जरूर कर दिया है। यहाँ सवाल यह भी खड़ा होता है कि भारतीय मौसम विभाग के पास मौसम का अन्दाजा लगाने की जो देशव्यापी सरंचना एवं मानसून विज्ञानी हैं, क्या उसी अनुपात में स्काईमेट का भी नेटवर्क है, जो उसकी भविष्यवाणी सटीक मानी जाये।
हालांकि इस बार दोनों ही संस्थाओं ने अच्छी बारिश की उम्मीद जगाई है। इस वर्ष समान्य से ज्यादा 106 प्रतिशत बारिश की उम्मीद है। यह बारिश इसलिये भी जरूरी है, क्योंकि हमारे सभी बड़े जलाशयों में जलस्तर बहुत नीचे चला गया है और 11 राज्यों के 256 जिले सूखे की चपेट में हैं। ऐसे में अच्छा मानसून बेहद जरूरी है।
यदि यह अनुमान यथार्थ के धरातल पर सटीक बैठते हैं तो किसानों के चेहरे तो खिलेंगे ही, देश की सकल घरेलू उत्पाद दर भी बढ़ जाएगी। देश के जीडीपी में कृषि का योगदान 15 फीसदी है और खेती-किसानी भी देश का एकमात्र ऐसा व्यवसाय है, जिससे 60 प्रतिशत आबादी की रोजी-रोटी चलती है। वैसे मानसून पर केवल किसान और ग्रामीणों की निगाहें ही टिकी नहीं होती हैं, औद्योगिक क्षेत्र को गति भी मानसून से ही मिलती है।
फसल आधारित अनेक ऐसे उद्योग हैं, जिनकी बुनियाद अच्छी फसल पर ही टिकी है। इन उद्योगों में चीनी, कपड़ा, चावल, तिलहन, दाल और आटा उद्योग मुख्य हैं। इन्हीं उद्योगों के बूते करोड़ों लोगों का जीवनयापन चलता है। इसलिये मानसून अच्छा रहा तो उपभोक्ता वस्तुओं की माँग बढ़ेगी और कारखानों में उत्पादन।
मानसून की इतनी महिमा होने के बावजूद भारत में सिंचित क्षेत्र महज 40 फीसदी है, इसलिये खेती की निर्भरता अच्छे मानसून पर टिकी है। भारत में होने वाली कुल बारिश का 70 फीसदी बारिश वर्षा ऋतु में ही होती है। केरल के समुद्री तट को छूने के बाद मानसून को पूरे भारत में छाने में करीब एक माह का समय लगता है।
वर्षा के इसी क्रम में जून से अक्टूबर के बीच खेतों में फसलें लहलहाती हैं। भारत में कुल श्रमिकों में से 49 फीसदी मजदूर इसी कृषि पर निर्भर हैं। गाँवों में रहने वाली देश की 68 फीसदी आबादी की गाड़ी अच्छी बारिश और खेती से ही आगे बढ़ती है। बीते दो साल से देश सूखे की चपेट में है। इस कारण 11 राज्यों के लिये 10 हजार करोड़ रुपए के सूखा राहत पैकेज भी दिये हैं।
अभी-अभी केन्द्र सरकार ने सूखाग्रस्त क्षेत्रों में मनरेगा के तहत मजदूरों को 150 दिन काम देना सुनिश्चित किया है। इसलिये मानसून की भविष्यवाणियों में भिन्नता चिन्ता एवं दुविधा का विषय है।
प्रत्येक साल अप्रैल-मई में मानसून आ जाने की अटकलों का दौर शुरू हो जाता है। यदि औसत मानसून आये तो देश में हरियाली और समृद्धि की सम्भावना बढ़ती है और औसत से कम आये तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाइयाँ देखने में आती हैं। वर्तमान में यही हाल विदर्भ, मराठवाड़ा और बुन्देलखण्ड में है। मराठावाड़ा के लातूर में तो पानी की दुर्लभता इतनी हो गई है कि राजस्थान के कोटा से रेल द्वारा 350 किमी का सफर तय करके पानी भेजा जा रहा है।
इस बार मौसम विभाग के महानिदेशक लक्ष्मण सिंह राठौर ने पूर्वानुमान जारी करते हुए कहा था कि दीर्घावधिक औसत के आधार पर मानसून 106 प्रतिशत रहेगा। मसलन 94 फीसदी से लेकर मानसून सामान्य से अधिक बरसेगा। कमोबेश पूरे देश में बारिश अच्छी होगी। हालांकि उत्तर पूर्व तथा दक्षिण पूर्व भारत समेत तमिलनाडु में सामान्य से कम बारिश का अन्दाजा लगाया गया है।
यह सुकूनदायी खबर है कि सूखाग्रस्त मारठवाड़ में अच्छी बारिश हो सकती है। मौसम मापक यंत्रों की गणना के अनुसार यदि 90 प्रतिशत से कम बारिश होती है तो उसे कमजोर मानसून कहा जाता है। 90-96 फीसदी बारिश इस दायरे में आती है। 96-104 फीसदी बारिश को सामान्य मानसून कहा जाता है। यदि बारिश 104-110 फीसदी होती है तो इसे सामान्य से अच्छा मानसून कहा जाता है। 110 प्रतिशत से ज्यादा बारिश होती है तो इसे अधिकतम मानसून कहा जाता है।
पिछले सात साल के आँकड़ों में एक भी साल भविष्यवाणी सटीक नहीं बैठी। इसलिये मौसम विभाग के अनुमान भरोसे के लायक नहीं होते। यदि किसान इन भविष्यवाणियों के आधार पर फसल बोए, तो उसे नाकों चने चबाने पड़ जाएँगे। चूँकि कृषि वैज्ञानिक भी भविष्यवाणी के आधार पर किसानों को फसल उगाने की सलाह देते हैं, लिहाजा उनकी सलाह भी किसान की उम्मीद पर पानी फेरने वाली ही साबित होती है। ऐसे में दोहरी भविष्यवाणियाँ किसान को दुविधा में डालने का काम कर रही हैं। भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणियों को सटीक इसलिये नहीं माना जाता, क्योंकि वह अनुमानों पर खरी नहीं उतरती है। 2015 में विभाग ने 93 प्रतिशत बारिश होने की भविष्यवाणी की थी, किन्तु हुई 86 प्रतिशत। इसी तरह 2014 में 93 प्रतिशत की भविष्यवाणी थी, किन्तु रह गई 89 प्रतिशत। 2013 में 98 प्रतिशत की भविष्यवाणी की थी, किन्तु बारिश हुई 106 प्रतिशत।
पिछले सात साल के आँकड़ों में एक भी साल भविष्यवाणी सटीक नहीं बैठी। इसलिये मौसम विभाग के अनुमान भरोसे के लायक नहीं होते। यदि किसान इन भविष्यवाणियों के आधार पर फसल बोए, तो उसे नाकों चने चबाने पड़ जाएँगे। चूँकि कृषि वैज्ञानिक भी भविष्यवाणी के आधार पर किसानों को फसल उगाने की सलाह देते हैं, लिहाजा उनकी सलाह भी किसान की उम्मीद पर पानी फेरने वाली ही साबित होती है। ऐसे में दोहरी भविष्यवाणियाँ किसान को दुविधा में डालने का काम कर रही हैं।
आखिर हमारे मौसम वैज्ञानिकों के पूर्वानुमान आसन्न संकटों की क्यों सटीक जानकारी देने में खरे नहीं उतरते? क्या हमारे पास तकनीकी ज्ञान अथवा साधन कम हैं अथवा हम उनके संकेत समझने में अक्षम हैं...? मौसम वैज्ञानिकों की बात मानें तो जब, उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दाब का क्षेत्र बनता है।
इस कम दाब वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्ध से भूमध्य रेखा के निकट से हवाएँ दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धरती की परिक्रमा सूरज के ईद-गिर्द अपनी धुरी पर जारी रहती है। निरन्तर चक्कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्ध से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाएँ भूमध्य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाएँ भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं।
इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर उड़ीसा, पश्चिम-बंगाल, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल-प्रदेश हरियाणा और पंजाब तक बरसती हैं। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाएँ आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य-प्रदेश और राजस्थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कश्यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है।
प्रशान्त महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाएँ भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमण्डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसून के रुख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज्यादा बरसात के रूप में भारतीय धरती पर गिरता है। महासागरों की सतह पर प्रवाहित वायुमण्डल की हरेक हलचल पर मौसम विज्ञानियों को इनके भिन्न-भिन्न ऊँचाईयों पर निर्मित तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखनी होती है। इसके लिये कम्प्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाजों और रडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता ली जाती है।
हाल ही में देशी परिस्थितियों पर आधारित मानसून भविष्यवाणी की विधि तैयार की है। इसके केरल और कर्नाटक में 14 केन्द्र बनाए गए हैं, जो मानसून के ताजा संकेत देने का काम करते है। इनसे जो आँकड़े इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है। क्या स्काईमेट के पास भी इतनी सक्षम वेधषालाएँ हैं, जो वह भारतीय मौसम विभाग से प्रतिस्पर्धा करते हुए भविष्यवाणी कर रहा है?