अनिल दवे : एक नदी चिंतक का अचानक यूँ चले जाना…

Submitted by Hindi on Sat, 05/20/2017 - 16:48


.नदियों के बारे में चिंतन का एक दार्शनिक अंदाज कुछ यूँ भी है कि एक नदी को हम ज्यादा देर तक एकटक कहाँ देख पाते हैं? जिसे हम देख रहे होने का भ्रम पाले रहते हैं, दरअसल वह नदी तो कुछ ही क्षणों में हमारे सामने से ओझल हो जाती है। उसके प्रवाहमय पानी के लिये- फिर नई जमीन, नया आसमान, नये किनारे, नये पत्थर और नये लोग होते हैं। हम तो वहीं रहते हैं फिर ओझल होने वाली नई नदी को हम देख रहे होते हैं। प्रवाह ही नदी का परिचय है, लेकिन किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि 18 मई की सुबह एक शख्स नदी के प्रवाह की तरह एकाएक हमसे ओझल हो जाएगा जो अपने तमाम परिचयों के बीच नदी चिंतक के सर्वप्रिय परिचय के रूप में अपने प्रशंसकों के बीच पहचाना जाता हो।

भारत सरकार के पर्यावरण मंत्री और मध्यप्रदेश से सांसद श्री अनिल माधव दवे जी का एकाएक स्वर्गवास हो गया। उनके निधन से देश और विशेषकर मध्यप्रदेश स्तब्ध है। दरअसल अनिल दवे का व्यक्तित्व इंद्रधनुषीय आभामंडल लिये हुए था लेकिन इन सब में सबसे गहरा और आकर्षित रंग तो उनका नर्मदा अनुराग था। अनिल दवे ने मध्यप्रदेश और देश में आजादी के बाद सबसे पहले इस मापदंड की स्थापना की थी- आप खूब राजनीति करिये लेकिन अपने परिवेश के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और संवर्धन की भी चिंता कीजिए। अपनी ऊर्जा, ताकत, संगठन और शक्ति को प्रकृति संरक्षण में भी लगाइए।

संभवत: यही वजह रही थी कि भारत के ख्यात पर्यावरण प्रेमी अनुपम मिश्र से लगाकर इंदौर के पास उज्जयिनी में क्षिप्रा उद्गम स्थल पर जमीनी लड़ाई लड़ने वाले शशिकांत अवस्थी और उनकी युवा टीम अनिल माधव दवे के साथ होशंगाबाद में नर्मदा किनारे बांद्राभान हो या नर्मदा परिक्रमा- वे सब उनके साथ खड़े नजर आते थे। दशकों बाद पर्यावरण प्रेमियों के बीच यह चर्चा होती थी कि यह कैसा सुखद आश्चर्य है कि मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन कराने से चर्चा में आए अनिल दवे जैसा राजनेता एक ऐसी जाजम बिछा रहा है जहाँ-नदियाँ उनका जलग्रहण क्षेत्र, जंगल, पर्वत, जैविक खेती की चर्चा हो रही है। काश, भारत के सभी राजनेता अपने प्रभाव का कुछ हिस्सा प्राकृतिक संसाधनों के लिये लगा सकेंगे तो भारत की तस्वीर बदल सकती है। अनिल दवे राजनीति में इस सोच रूपी पुस्तक की प्रेरणास्पद प्रस्तावना माने जा सकते हैं।

सन 2003 में दिग्विजय सिंह सरकार के 10 वर्ष के शासन के परिवर्तन के दो प्रमुख नायक माने जाते हैं। एक उमा भारती और दूसरा अनिल दवे। उमा भारती- दृश्य और अनिल दवे अदृश्य भूमिका में थे। पूरी रणनीतिक तैयारी का जिम्मा अनिल दवे निभा रहे थे वे लंबे समय तक कुशाभाऊ ठाकरे की शैली में भोपाल भाजपा कार्यालय के दूसरी मंजिल वाले एक कमरे में ही रहे। वहीं वे सारी चुनावी रणनीति को अंजाम देते और वे चैरेेवेति का संपादन भी करते रहे। भाजपा सरकार बनने के बाद वे उमा भारती के कार्यकाल तक मुख्यमंत्री के सलाहकार भी रहे। इसी दरमियान उन्होंने नर्मदा जी के संरक्षण की चिंता को अमलीजामा पहनाना प्रारंभ कर दिया था। वे ज्ञात इतिहास के संभवत: पहले महानुभाव रहे हैं जिन्होंने वायु, जल और थल मार्ग से नर्मदा परिक्रमा की है।

सन 2008 से उन्होंने होशंगाबाद में नर्मदा किनारे प्रति दो वर्ष के अन्तराल से आयोजित होने वाले अन्तरराष्ट्रीय नदी महोत्सव की शुरुआत की। देश में किसी राजनेता की अगुवाई में होने वाले इस तरह के नदी महोत्सव की यह अनूठी मिसाल रही। इसमें भारत और दुनिया के अनेक देशों के नदी चिंतकों और जमीनी पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने सतत हिस्सेदारी की। उन्होंने नर्मदा समग्र एक ट्रस्ट भी बनाया जिसके अध्यक्ष ख्यात नर्मदा परिक्रमावासी और साहित्यकार श्री अमृतलाल वेगड़ हैं। वे इसके सचिव बने।

अनिल दवे अक्सर कहा करते थे- हम नदियों को गंदा करना छोड़ दें, यही काफी है। आजादी के बाद से नदियों से पानी लाने के बारे में समाज और सरकारों ने जितना विचार और खर्च किया है उसका एक प्रतिशत भी नदी में पानी आने के तंत्र पर न सोचा गया है और ना ही खर्च किया गया है! यह एकदम सही है कि अनिल दवे ने नदी चिंता पर केवल बांद्राभान में कोई समारोही रस्म की शुरुआत नहीं की अपितु वे नदी किनारे वृक्षारोपण की हरियाली चुनरी कार्यक्रम को भी लाये। इसका अनेक क्षेत्रों में उनके चाहने वालों ने क्रियान्वयन भी किया। वे नर्मदा की सहायक नदियों के संरक्षण की भी चिंता करने का आह्वान किया करते थे। नदियों के जलग्रहण क्षेत्र की भी उन्होंने व्यापक चिंता की और सतपुड़ा तथा विंध्याचल क्षेत्र में पर्वत पूजा की अवधारणा पर कार्य किया। नर्मदा घाट की सफाई शुरू करवाई और नर्मदा में प्रदूषण रोका जाए- इसके लिये जगह-जगह उनकी टीम ने लोक जागरण अभियान चलाया।

उनके निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे निजी क्षति बताया है। यह एकदम वास्तविक है- क्योंकि दोनों के बीच मित्र भाव तभी से रहा है जब दोनों ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे हैं। जब अनिल दवे नर्मदा यात्रा में जलमार्ग से अरब सागर के निकट पहुँचे थे तो एकाएक उनके फोन की घंटी बजी- उधर से आवाज आई ‘अनिल जी, आपका स्वागत है।’ यह फोन गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी का था। वे मोदी के प्रबंधन कौशल्य के कायल थे। अनिल दवे एक अच्छे पायलट भी थे। वे साहित्यकार और संपादक भी थे। उन्होंने अनेक पुस्तकेें लिखीं। ‘अमरकंटक से अमरकंटक तक’ और ‘सृजन से विसर्जन तक’ आपकी मशहूर पुस्तकें हैं।

वे बहुत अच्छे वक्ता भी थे। शिवाजी पर भी उनकी एक पुस्तक आ चुकी है जिसकी प्रस्तावना नरेंद्र मोदी ने लिखी है। नर्मदा किनारे बांद्राभान में उन्होंने एक आश्रम भी बनाया था और भोपाल में नदी का घर. अनिल दवे रूपी इस नदी चिंतक का एकाएक यूँ चले जाना हर उस शख्स के लिये एक क्षति है जो पर्यावरण की चिंता करता है, नदियों से प्रेम करता है और उन लोगों से अनुराग रखता है जिनके परिचय में समग्र व्यक्तित्व बड़ा होता है और आने-जाने वाले पदों का महत्त्व गौण होता है।