आत्महत्या की बजाय अदालत में जाएँ, कर्जग्रस्त किसान

Submitted by editorial on Fri, 09/28/2018 - 13:06
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सर्वोदय प्रेस सर्विस, सितम्बर 2018
किसान आत्महत्या करने को मजबूरकिसान आत्महत्या करने को मजबूर (फोटो साभार - फर्स्टपोस्ट)‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ (एनसीआरबी) के अनुसार विगत 20 वर्षों में भारत के 3 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है, जिनमें लगभग 20 प्रतिशत महिलाएँ हैं। ‘केन्द्रीय खुफिया विभाग’ द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, अजीत कुमार डोवाल को 19 दिसम्बर, 2014 को प्रस्तुत एक रिपोर्ट में जानकारी दी गई थी कि पिछले कुछ माह में भारत में किसानों की आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़े हैं।

महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब राज्यों में यह तेजी देखी गई है। रिपोर्ट के अनुसार इन आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण ऋण की अदायगी न कर पाना, कर्ज में वृद्धि, खाद्यान्न उत्पादन में कमी, अनाज की घटती कीमत तथा लगातार फसलों की बर्बादी है। इन सभी राज्यों में किसान कपास और गन्ना जैसी नगदी फसलें उगाते हैं, जिनकी लागत बहुत अधिक होती है। रिपोर्ट के अनुसार इन राज्यों में किसान 24 से 50 प्रतिशत ब्याज पर निजी साहूकारों से ऋण लेता है, जिसे अदा करने की उसकी क्षमता नहीं होती।

इसी तरह असंगठित तबके की आजीविका का अध्ययन करने ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन’ (यूपीए-1) की पहले दौर की सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 2005 में किसान की औसत आमदनी 14 रुपए प्रतिदिन थी। उड़ीसा में किसान की प्रति व्यक्ति आय सबसे कम अर्थात 6 रुपए प्रतिदिन तथा मध्य प्रदेश में 9 रुपए प्रतिदिन थी।

गौरतलब है कि अर्जुन सेनगुप्ता की यह वही चर्चित रिपोर्ट थी जिसमें भारत की 77 फीसदी आबादी को 20 रुपए प्रतिदिन से कम आय पर गुजारा करते बताया गया था। तत्कालीन केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री ने भी कहा था कि 10 करोड़ ग्रामीण युवक-युवतियाँ खेती के अलावा अन्य क्षेत्र में आजीविका चाहते थे। ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन’ (एनएसएसओ) के 59वें दौर की रिपोर्ट के आधार पर ‘राष्ट्रीय किसान आयोग’ ने अपनी सिफारिश (2007) में उल्लेख किया था कि भारत के 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ने को तैयार बैठे हैं।

उन्हीं दिनों केन्द्रीय वित्त मंत्रालय ने आर. राधाकृष्ण की अध्यक्षता में 2006 में एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया था, जिसने जुलाई 2007 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि खेती घाटे का सौदा बन गई है, ऐसी दशा में किसान को कर्ज लेकर खेती करनी पड़ती है और कर्ज न चुका पाने की दशा में मजबूर होकर वह आत्महत्या कर लेता है। वर्ष 2007 में भारत सरकार ने किसानों की कर्ज माफी हेतु 70 हजार करोड़ रुपए आवंटित किये थे।

आजकल बहुचर्चित डॉ. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले ‘राष्ट्रीय किसान आयोग’ की पाँचवीं और अन्तिम रिपोर्ट में किसान की आय से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सिफारिश की गई थी। उनके मुताबिक ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) उत्पादन की भारित औसत लागत से कम-से-कम 50 प्रतिशत अधिक होनी चाहिए।

किसानों की ‘वास्तविक घर ले जाने वाली आय’ भी सरकारी कर्मचारियों की आय के समकक्ष होनी चाहिए। सातवें वेतन आयोग में सरकारी कर्मचारी की न्यूनतम मासिक आमदनी 25 हजार रुपए है इसलिये किसान परिवार की भी न्यूनतम मासिक आय 25 हजार रुपए प्रतिमाह ही सुनिश्चित की जानी चाहिए। ‘किसान आयोग’ के अनुसार ‘कृषि लागत और कीमत आयोग’ (सीएसीपी) एक स्वायत्त, संवैधानिक संगठन होना चाहिए जिसका मुख्य कार्य शुष्क और सिंचित कृषि क्षेत्रों के प्रमुख कृषि उत्पादनों की लाभप्रद कीमतों की सिफारिश करना होना चाहिए।

इसके बरक्स ‘एनएसएसओ’ के 70वें दौर के सर्वे की रिपोर्ट किसानों की आय की बदहाली बयाँ करती है। उसके अनुसार वर्ष 2013 में भारत में एक खेतीहर परिवार की औसत मासिक आय 6,426 रुपए थी। वर्तमान में भी यह आय लगभग उतनी ही है। इस आय के तहत पाँच सदस्यों वाले किसान परिवार के हरेक सदस्य रोज लगभग 42 रुपए कमाते हैं।

केन्द्र और मध्य प्रदेश समेत कई राज्य सरकारें दावे कर रही हैं कि वर्ष 2022 में किसान परिवार की आमदनी दोगुनी कर दी जाएगी, यानि सरकारों की तमाम मेहनत-मशक्कत के बावजूद चार साल में किसान परिवार के प्रति सदस्य की दैनिक आय 85 रुपए हो जाएगी। ऐसे हास्यास्पद वादों, दावों के चलते किसानों की आत्महत्याओं को किसी भी तरह, कैसे रोका जा सकेगा? एक तरीका अदालतों के जरिए कर्ज सम्बन्धी कानूनों के क्रियान्वयन का भी है।

अंग्रेजी राज के जमाने में ‘अति ब्याज, उधार अधिनियम-1918’ में प्रावधान था कि किसी किसान द्वारा लिये गए ऋण पर ब्याज की कुल राशि उसकी मूल पूँजी से अधिक नहीं होगी। लेकिन फरवरी 1984 में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्रीत्व में ‘बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट-1949’ को संशोधित कर इसमें धारा 21(क) शामिल की गई जो ‘अति ब्याज उधार अधिनियम-1918’ के उपबन्धों को बाधित करती है।

फलस्वरूप ऋणग्रस्त किसान को कर्ज पर ब्याज की अधिक राशि के औचित्य को न्यायालय में चुनौती देने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। साथ ही किसान द्वारा लिये गए ऋण पर बैंकों द्वारा रोपित ब्याज की अधिकता की न्यायालयीन समीक्षा के द्वार भी बन्द कर दिये गए।

न्यायालय के दरवाजे बन्द कर दिये जाने के कारण बैंक सीधे ‘रेवेन्यू रिकवरी सर्टिफिकेट’ जारी कर राजस्व और पुलिस अधिकारियों की मदद से किसान की चल-अचल सम्पत्ति की कुर्की और जब्ती करने लगे। ऐसे में ऋणग्रस्त किसान ईश्वर का दरवाजा खटखटाने आत्महत्या का रास्ता अपनाने लगता है। ‘एनसीआरबी’ के अनुसार आत्महत्या करने वाले लगभग 80 प्रतिशत ऋणग्रस्त किसान बैंक द्वारा रोपे गए अत्यधिक ब्याज से त्रस्त थे।

किसान की आत्महत्या और किसानी के इस संकट को लेकर 2013 में उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका (याचिका Ø-W.P.(C) No.134 वर्ष 2013) दायर की गई थी। पत्रकार जयन्त वर्मा, भारत के ‘अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग’ के पूर्व आयुक्त डॉ.बी.डी. शर्मा, मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक डॉ. सुनीलम, पूर्व सांसद (राज्यससभा) देवब्रत विश्वास और पूर्व सांसद (लोकसभा) बीर सिंह महतो द्वारा दायर की गई यह याचिका ‘बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट-1949’ की धारा 21(क) को असंवैधानिक घोषित करने के बाबत थी।

इस याचिका पर केन्द्रीय कृषि मंत्रालय ने सितम्बर, 2014 में जो जवाब प्रस्तुत किया था उसके अनुसार भारत में किसानों की आत्महत्याएँ कुल आत्महत्याओं का सिर्फ 8.73 फीसदी भर है, जबकि अन्य श्रेणियों के लोगों द्वारा की जा रही आत्महत्या इनसे कहीं अधिक है। देश में किसानों की आबादी की तुलना में आत्महत्याओं की संख्या बहुत कम है अतः वह चिन्ता का विषय नहीं है।

इस याचिका का विरोध करने केन्द्रीय वित्त, कृषि, विधि एवं न्याय मंत्रालयों के साथ योजना आयोग, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया और कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (भारत सरकार) की ओर से उच्चतम न्यायालय में दिग्गज वकील खड़े किये गए। याचिकाकर्ताओं की ओर से ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ (पीयूसीएल) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता श्री संजय पारिख तथा एडवोकेट ऑन रिकार्ड श्री परमानन्द पाण्डेय ने विद्वतापूर्ण तर्क प्रस्तुत करते हुए भारत के किसानों का पक्ष रखा था।

नतीजे में न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा ने 16 फरवरी, 2018 को अपने फैसले में कृषि ऋण पर ‘बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट’ की धारा 21(क) को असंवैधानिक करार देते हुए ‘अति ब्याज उधार अधिनियम’ के प्रावधानों को पुनर्जीवित कर दिया। फैसले में कहा गया कि कृषि ऋण का विषय संविधान की 7वीं अनुसूची में राज्य सूची में दर्ज है इसलिये केन्द्र सरकार को इस सम्बन्ध में कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है। ‘बैंकिंग रेगूलेशन एक्ट’ की धारा 21(क) में कृषि ऋण से सम्बन्धित प्रावधान असंवैधानिक हैं, अतः उन्हें अमान्य करते हुए रद्द कर दिया गया।

लगभग 24 राज्यों में कृषि ऋण सम्बन्धी उदार कानून बनाए गए हैं किन्तु बैंकिंग कानून की धारा 21(क) के चलते किसान उन कानूनों का न्यायालय से लाभ नहीं ले पाता था। उच्चतम न्यायालय के उक्त फैसले के बाद ऋणग्रस्त किसान के लिये न्यायपालिका के दरवाजे खुल गए। मध्य प्रदेश सहित जिन राज्यों में कृषि ऋणग्रस्तता के सम्बन्ध में अलग से कोई कानून नहीं है वहाँ ‘अति ब्याज उधार अधिनियम-1918’ के तहत ऋण पर मूलधन से अधिक ब्याज की वसूली अवैधानिक हो गई है।

यह प्रावधान भूतलक्षी प्रभाव से लागू किया गया क्योंकि 1984 में इसे अप्रभावी बनाना असंवैधानिक था। भारत के ऋणग्रस्त किसान अब आत्महत्या करने की बजाय ऋण पर चक्रवृद्धि ब्याज की राशि को अदालत में चुनौती देकर अति ब्याज उधार अधिनियम 1918 के तहत अत्यधिक ब्याज के बोझ से मुक्त हो सकते हैं।

जयन्त वर्मा वरिष्ठ पत्रकार हैं और ‘ऑल इण्डिया अग्रगामी किसान सभा, नई दिल्ली’ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।


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