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सर्वोदय प्रेस सर्विस, दिसम्बर 2017
आजादी के बाद धीरे-धीरे राज्य सरकारों ने वन में निवास करने वाले जनजातीय समुदाय और अन्य वन निवासियों के अधिकारों में कटौती करना शुरू किया। गाँव की बसाहट के आसपास की वन भूमि और राजस्व भूमि से उनके निस्तार के सभी हक, जो वाजिबुल-अर्ज और निस्तार पत्रक में दर्ज होते थे वे छीन लिये गए। अंग्रेजी हुकूमत और स्वाधीन भारत की सरकारों द्वारा वन में निवास करने वाले या वन पर आश्रित अनुसूचित जनजातियों और अन्य वन निवासियों के अधिकारों को अमान्य कर उनके साथ ऐतिहासिक अन्याय किया गया।
भारत में लगभग 10 करोड़ लोग जनजातीय समुदायों के हैं, जो आबादी का लगभग 8 फीसदी है। अधिकांश जनजातियाँ सुदूर वन-प्रान्तर में निवास करते हुए वहाँ स्थित प्राकृतिक संसाधनों से अपना गुजर करती है। जनजातियों का वन के साथ अटूट रिश्ता है। जीवनयापन के साथ-साथ जनजातीय संस्कृति,उनके रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार, धार्मिक मान्यताएँ आदि प्रकृति और वन से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े हैं। उनके लोक गीतों में प्रकृति का बहुत बड़ा स्थान है। वन के साथ भावनात्मक सम्बन्ध के कारण जैव-विविधता का संरक्षण और संवर्धन करते हुए वनोपज का टिकाऊ दोहन करने की परम्परा उनकी जीवन पद्धति का अभिन्न अंग है।1927 का भारतीय वन कानून वनोपज के दोहन और परिवहन को नियंत्रित करने के लिये बनाया गया था। इस कानून में वन की परिभाषा का कोई उल्लेख नहीं है। यही कानून आज भी वन के प्रबन्धन का सरकारी माध्यम बना हुआ है। आजादी के बाद धीरे-धीरे राज्य सरकारों ने वन में निवास करने वाले जनजातीय समुदाय और अन्य वन निवासियों के अधिकारों में कटौती करना शुरू किया। गाँव की बसाहट के आसपास की वन भूमि और राजस्व भूमि से उनके निस्तार के सभी हक, जो वाजिबुल-अर्ज और निस्तार पत्रक में दर्ज होते थे वे छीन लिये गए।
अंग्रेजी हुकूमत और स्वाधीन भारत की सरकारों द्वारा वन में निवास करने वाले या वन पर आश्रित अनुसूचित जनजातियों और अन्य वन निवासियों के अधिकारों को अमान्य कर उनके साथ ऐतिहासिक अन्याय किया गया। इस अन्याय की क्षतिपूर्ति के लिये संसद ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं नियम 2008 पारित किया।
जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा बनाए गए इस कानून के तहत सभी राज्यों में ग्राम स्तर पर वनाधिकार समितियों का गठन कर 13 दिसम्बर, 2005 से पूर्व वन भूमि पर काबिज अनुसूचित जनजातीय समुदाय के लोगों तथा तीन पीढ़ियों से वन भूमि पर काबिज अन्य वन निवासियों से व्यक्तिगत और सामुदायिक दावे आमंत्रित किये गए। इस कानून के क्रियान्वयन का दायित्व जनजातीय कार्य मंत्रालय को सौंपा गया है। दावों का परीक्षण करके मान्यता के अधिकार-पत्र देने के लिये तीन स्तरीय प्रक्रिया निर्धारित है। ग्राम स्तर पर ग्राम-सभा, तहसील स्तर पर उपखण्ड समिति और शीर्ष में जिला स्तरीय समिति का गठन किया गया है। किसी भी स्तर पर दावा अमान्य होने की स्थिति में दावेदार को तदाशय की सूचना देना होगा ताकि वह इस आदेश के विरुद्ध 60 दिन के भीतर उच्च स्तरीय समिति में अपील कर सके।
कानून से जनजातीय समुदायों और अन्य वन-निवासियों को सभी गैर इमारती वनोत्पाद, जैसे-बाँस, झाड़-झंखाड़, ठूँठ, बेंत, तुसार, कोया, शहद, मोम, लाख, तेंदू, तेंदू-पत्ते, औषधीय पौधे, जड़ी-बूटियाँ, कन्द-मूल आदि पर सामुदायिक हकों के तहत पूरा अधिकार दिया गया है।
वनाधिकार कानून का स्थानीय जनजातीय भाषा में अनुवादकर उसका व्यापक प्रचार-प्रसार कर दावे मँगाने के लिये केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों को धनराशि का आवंटन किया। इसमें अधिकारियों को प्रशिक्षण, दावा प्रस्तुत करने में मदद करने के लिये प्रोत्साहन राशि का भी प्रावधान रखा गया। सरकारी अमले ने इस काम में अपेक्षित तत्परता नहीं दिखाई और औपचारिकता का निर्वाह भर किया। इस कारण अधिकांश पात्र दावा लगाने से वंचित रह गए।
वनाधिकार कानून पारित होने के 10 वर्ष पूर्ण होने आ रहे हैं, किन्तु जमीनी स्तर पर कानून के परिपालन की स्थिति सोचनीय बनी हुई है। केन्द्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा प्रदत्त आँकड़ों के अनुसार 30 जून 2017 तक देश में वनाधिकार के कुल 41,70,679 दावे प्रस्तुत हुए, जिनमें से 17,95,085 दावेदारों को पट्टे दिये गए और रद्द दावों की संख्या 18,39,148 है। दावेदारों को वनाधिकार के पट्टे देने का राष्ट्रीय औसत 43.02 प्रतिशत है। अतः अमान्य दावों का राष्ट्रीय औसत लगभग 57 फीसदी है। उड़ीसा, केरल, त्रिपुरा, झारखण्ड, राजस्थान, तेलंगाना और आन्ध्र प्रदेश में 50 प्रतिशत से अधिक दावे मान्य हुए। सामुदायिक संसाधनों के कुल 1,38,428 दावे प्रस्तुत हुए, जिनमें 62,922 दावे मान्य हुए और 75,506 दावे अस्वीकृत कर दिये गए।
ग्रामसभा से स्वीकृति के बाद 55 प्रतिशत दावों को निरस्त किया जाना यह प्रमाणित करता है कि अधिकांश दावेदारों को सामुदायिक संसाधनों से वंचित कर दिया गया है। वास्तविकता यह है कि सामुदायिक संसाधनों हेतु कुल पात्र ग्रामों में से लगभग 50 प्रतिशत से कम ही दावे लगाए गए हैं क्योंकि कानून के इस प्रावधान की नीचे स्तर तक जानकारी नहीं पहुँच पाई है।
निरस्त किये गए 90 प्रतिशत से अधिक दावेदारों को कानून के अनुसार दावा रद्द होने की विधिवत सूचना नहीं दी गई इसलिये वे अपील के अधिकार से वंचित रह गए हैं।
मंत्रालय के अनुसार 30 जून 17 तक उग्र वामपंथ से प्रभावित भारत के 10 राज्यों- आन्ध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़िसा, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में 94.65 प्रतिशत दावों का निराकरण किया गया है। कुल 30,68,123 व्यक्तिगत और 1,13,301 सामुदायिक दावे लगाए गए थे। इन राज्यों में 13,94,418 व्यक्तिगत और 57,161 सामुदायिक दावे स्वीकृत किये गए तथा 16,73,705 व्यक्तिगत और 56,140 सामुदायिक दावे निरस्त कर दिये गए हैं। स्वीकृत व्यक्तिगत दावे लगभग 45.44 प्रतिशत तथा सामुदायिक दावे 50.45 प्रतिशत हैं।
मध्य प्रदेश में वनाधिकार के तहत कुल 6,15,257 दावे लगे हैं, जिनमें से 3,64,166 दावे निरस्त कर दिये गए। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में कुल 8,69,516 दावे प्रस्तुत हुए, जिनमें से 4,74,113 दावे निरस्त कर दिये गए। मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजातियों के कुल 47.79 प्रतिशत और अन्य वन निवासियों के 97.94 प्रतिशत दावे निरस्त हुए हैं।
यह विडम्बना है कि वनों पर आश्रित गैर आदिवासी वन निवासियों से तीन पीढ़ी या 75 वर्ष से वन-भूमि पर काबिज होने का प्रमाण माँगा जा रहा है। 1976 में संविधान के 42वें संशोधन के पूर्व वन राज्य सूची में शामिल था। 1976 के बाद उसे समवर्ती सूची में शामिल किया गया और वन सम्बन्धी कोई भी नियम केन्द्र सरकार की सहमति से बनाने का प्रावधान प्रारम्भ हुआ। इसके पूर्व राज्य सरकारों द्वारा जनजातीय समुदाय और सामान्य वर्ग के लोगोें को वन-भूमि के पट्टे दिये जाने की परम्परा थी।
25-30 वर्ष तक वन-भूमि पर विधिवत काबिज लाखों ऐसे गैर आदिवासी हैं, जिनके पट्टे इस कानून के बाद निरस्त हो गए हैं। उन्हें वन-भूमि को खाली करने के लिये बाध्य किया जा रहा है क्योेंकि वे आजादी के पहले से उस भूमि पर काबिज होने का प्रमाण नहीं दे पा रहे हैं। ऐसे बेदखल होने वाले लाखों लोगों को कहाँ बसाया जाएगा, इसके सम्बन्ध में कानून और सरकार दोनों मौन है, उन्हें बेजा कब्जाधारी माना जा रहा है।
राष्ट्रीय स्तर पर वनाधिकार दावों के भारी संख्या में रद्द होने से जनजातीय क्षेत्रों में व्यापक असन्तोष है। अनेक जनसंगठनों ने इस प्रक्रिया में सरकारी तंत्र द्वारा अपनाई गई उदासीनता तथा लापरवाही की ओर केन्द्र सरकार का ध्यान आकृष्ट किया। सरकार ने भी कुछ कमेटियों का गठन कर राज्यों में वनाधिकार कानून के परिपालन की स्थिति का अध्ययन कराया। केन्द्र सरकार ने नियमों में व्याप्त विसंगतियों को दूर करने के लिये संशोधन नियम प्रस्तावित किये तथा उन पर आपत्तियाँ और सुझाव आमंत्रित किये गए।
6 सितम्बर, 2012 को राजपत्र में अधिसूचना का प्रकाशन कर अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (अधिकारों की मान्यता) संशोधन नियम-2012 घोषित किये गए। इन नियमों में ग्राम सभाओं की भूमिका को सशक्त बनाया गया है। दावों को अमान्य करने की प्रक्रिया को संशोधित कर उसे समावेशी बनाया गया है। वनोपज के परिवहन हेतु ग्रामसभा द्वारा परमिट देने की व्यवस्था की गई है। दावे प्रस्तुत करने की समय सीमा खत्म कर इसे सतत जारी रहने वाली प्रक्रिया के रूप में मान्य किया गया है।
श्री जयन्त वर्मा वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं। भोपाल से प्रकाशित पाक्षिक पत्रिका नीति मार्ग के प्रधान सम्पादक हैं।