बाढ़ स्थायी समस्या बन गई है

Submitted by Hindi on Fri, 09/01/2017 - 15:50


बाढ़बाढ़बिहार, असम और उत्तर प्रदेश में बाढ़ का प्रकोप जारी है। बिहार में ज्यादा नुकसान की खबरें आ रही हैं। यहाँ हर साल बाढ़ की समस्या होती है, यह एक स्थायी समस्या बन गई है बल्कि लगातार बढ़ रही है। हर साल वही कहानी दोहराई जाती है। बाढ़ आती है, हल्ला मचता है, दौरे होते हैं और राहत पैकेज की घोषणाएँ होती हैं। लेकिन इस समस्या से निपटने के लिये कोई तैयारी नहीं की जाती।

पहले भी बाढ़ आती थी लेकिन वह इतने व्यापक कहर नहीं ढाती थी। इसके लिये गाँव वाले तैयार रहते थे। बल्कि इसका उन्हें इंतजार रहता था। खेतों को बाढ़ के साथ आई नई मिट्टी मिलती थी, भरपूर पानी लाती थी जिससे प्यासे खेत तर हो जाते थे। पीने के लिये पानी मिल जाता था, भूजल ऊपर आ जाता था, नदी नाले, ताल-तलैया भर जाते थे। समृद्धि आती थी। बाढ़ आती थी, मेहमान की तरह जल्दी ही चली जाती थी।

लेकिन अब बहुत बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हो गई है। भूक्षरण ज्यादा हो रहा है। पानी को स्पंज की तरह अपने में समाने वाले जंगल खत्म हो गए हैं। जंगलों के कटान के बाद झाड़ियाँ और चारे जलावन के लिये काट ली जाती हैं। जंगल और पेड़ बारिश के पानी को रोकते हैं। वह पानी को बहुत देर तो नहीं थाम सकते लेकिन पानी के वेग को कम करते हैं। स्पीड ब्रेकर का काम करते हैं। लेकिन पेड़ नहीं रहेंगे तो बहुत गति से पानी नदियों में आएगा और बर्बादी करेगा। और यही हो रहा है।

पहले नदियों के आस-पास पड़ती जमीन होती थी, नदी-नाले होते थे, लम्बे-लम्बे चारागाह होते थे, उनमें पानी थम जाता था। बड़ी नदियों का ज्यादा पानी छोटे- नदी नालों में भर जाता था। लेकिन अब उस जगह पर भी या तो खेती होने लगी है या अतिक्रमण हो गया है।

बढ़ता शहरीकरण और विकास कार्य भी इस समस्या को बढ़ा रहे हैं। बहुमंजिला इमारतें, सड़कों राजमार्गों का जाल बन गया है। नदियों के प्राकृतिक प्रवाह अवरुद्ध हो गए हैं। जहाँ पानी निकलने का रास्ता नहीं रहता है, वहाँ दलदलीकरण की समस्या हो जाती है। इससे न केवल फसलों को नुकसान होता है बल्कि बीमारियाँ भी फैलती हैं। जो तटबंध बने हैं वे टूट-फूट जाते हैं जिससे लोगों को बाढ़ से बाहर निकलने का समय भी नहीं मिलता। इससे जान-माल की हानि होती है।

शहरी क्षेत्रों में जो नदियों के आस-पास अतिक्रमण हो रहा है, उस पर निर्माण कार्य किए जा रहे हैं। जब से जमीनों के दाम बढ़े हैं तब से यह सिलसिला बढ़ा है। इसी प्रकार वेटलैंड (जलभूमि) की जमीन पर भी अतिक्रमण किया जा रहा है। इससे पर्यावरणीय और जैवविविधता को खतरा उत्पन्न हो गया है।

मुंबई का रेल नेटवर्क भी बाढ़ से प्रबावित हुआ थाशहरों में तो यह समस्या बड़ी है। पानी निकलने का रास्ता ही नहीं है। सब जगह पक्के कांक्रीट के मकान और सड़कें हैं। जैसे कुछ साल पहले मुंबई की बाढ़ का किस्सा सामने आया था। वहाँ मीठी नदी ही गायब हो गई, और जब पानी आया तो शहर जलमग्न हो गया। ऐसी हालत ज्यादातर शहरों की हो जाती है।

लेकिन बाढ़ के कारण और भी हैं। जैसे बड़े पैमाने पर रेत खनन। रेत पानी को स्पंज की तरह जज्ब करके रखती है। रेत खनन किया जा रहा है। रेत ही नहीं रहेगी तो पानी कैसे रुकेगा, नदी कैसे बहेगी, कैसे बचेगी। अगर रेत रहेगी तो नदी रहेगी। लेकिन जैसे ही बारिश ज्यादा होती है, वेग से पानी बहता है, उसे ठहरने की कोई जगह नहीं रहती।

कई बाँध व बड़े जलाशयों में नदियों को मोड़ दिया जाता है, उससे नदी ही मर जाती है। नदियाँ बाँध दी जाती हैं। लोग समझते हैं कि यहाँ नदी तो है नहीं क्यों न यहाँ खेती या इस खाली पड़ी जमीन का कोई और उपयोग किया जाए, तभी जब बारिश ज्यादा होती है तो पानी को निकलने का रास्ता नहीं मिलता। और यही पानी बाढ़ का रूप धारण कर लेती है इससे बर्बादी होती है।

असम में बाढ़हाल के वर्षों में एक और कारण सामने आया है जो बाँध बाढ़ नियंत्रण के उपाय बताए जाते थे वे ही अब बाँध के कारण बन रहे हैं। हालाँकि हमेशा इससे इंकार किया जाता रहा है लेकिन कुछ जल विशेषज्ञों ने यह चिंता जताई है।

मौसम बदलाव भी एक कारण है। पहले सावन-भादौ में लंबे समय तक झड़ी लगी रहती थी। यह पानी फसलों के लिये और भूजल पुनर्भरण के लिये बहुत उपयोगी होता था। फसलें भी अच्छी होती थी और धरती का पेट भी भरता था। पर अब बड़ी-बड़ी बूँदों वाला पानी बरसता है, जिससे कुछ ही समय में बाढ़ आ जाती है। वर्षा के दिन भी कम हो गए हैं।

इसके अलावा पानी के परम्परागत ढाँचों की भी भारी उपेक्षा हुई है। ताल, तलैया, तालाब, खेतों में मेड़ बंधान आदि से भी पानी रुकता है। लेकिन आज कल इन पर ध्यान न देकर भूजल के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है। हमारी बरसों पुरानी परम्पराओं में ही आज की बाढ़ जैसी समस्या के समाधान के सूत्र छिपे हैं। अगर ऐसे समन्वित विकल्पों पर काम किया जाए तो न केवल बाढ़ जैसी बड़ी समस्या से निजात पा सकते हैं। पर्यावरण, जैव-विविधता और बारिश के पानी का संरक्षण कर सकेंगे। सदानीरा नदियों को भी बचा सकेंगे।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं