25 अप्रैल को 7.9 तीव्रता के महाविनाशकारी भूकम्प ने नेपाल को बुरी तरह प्रभावित तो किया ही है, लेकिन भारत के उत्त रप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, उत्तराखण्ड तथा साथ में लगे पड़ोसी देश चीन आदि को भी जान माल की हानि हुई है। पूरे दक्षिण एशियाई हिमालय क्षेत्र में बाढ़, भूकम्प की घटनाएँ पिछले 30 वर्षों में कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं।
इससे सचेत रहने के लिये भूगर्भविदों ने प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से भी अलग-अलग जोन बनाकर दुनिया की सरकारों को बता रखा है कि कहाँ-कहाँ पर खतरे अधिक होने की सम्भावना है। हिमालय क्षेत्र मे अन्धाधुन्ध पर्यटन के नाम पर बहुमंजिले इमारतों का निर्माण, सड़कों का चौड़ीकरण, वनों का कटान, विकास के नाम पर बड़े-बड़े बाँधों, जलाशयों और सुरंगों के निर्माण में प्रयोग हो रहे विस्फोटों से हिमालय की रीढ़ काँपती रहती है।
अब देर न करें तो हिमालयी देशों की सरकारों को आगे अपने विकास के मानकों पर पुनर्विचार करने से नहीं चूकना चाहिए। हिमालयी प्रदेशों को भोगवादी संस्कृति से बचाना प्राथमिकता हो। पर्यटन और विकास के मानक सन्तुलित पर्यावरण और आपदाओं का सामना करने वाली पुश्तैनी संस्कृति और ज्ञान को नजरअन्दाज करके नहीं किया जा सकता है।
नेपाल में भूकम्प से तबाही हो गई है। ऐसे मौके पर अवश्य हिमालय नामक शब्द सभी के जुबाँ पर बार-बार आ रहा है। फिर कुछ दिन बाद जब लोग इसको भूल जाएँगे तो वही पुराने विकास के पैमाने फिर से लागू होते रहेंगे। जिसने हिमालय को कमजोर कर दिया है। हिमालयी आपदा का सामना करने की नियमावली लोगों के पास मौजूद है, जो आपदा प्रबन्धन नियमावली 2005 में नहीं है।
नेपाल में जब भूकम्प से नुकसान हुआ तो खोज बचाव के काम में सबसे पहले आस-पड़ोस के लोग ही मदद करने पहुँचे हैं। वे न तो किसी से पैसा माँगते हैं और न खाना। मतलब साफ है कि जहाँ भी आपदा आती है, तो प्रभावितों को सन्देश मिलता है कि आर्थिक मदद की कोई कमी नहीं होने दी जाएगी। इसके बावजूद भी लोग राहत के लिये दर-दर भटकते रहते हैं। इसका कारण होता है कि आपदा राहत में जो काम किया जाता है, उसमें कहीं-न-कहीं प्रभावित लोगों को लगता है कि अब उनका उद्धार हो ही जाएगा। फिर कुछ समय बाद सारे वादे और घोषणाएँ हवा-हवाई हो जाते हैं।
यह चर्चा का विषय है कि हिमालय में आई आपदाओं में केदारनाथ (16-17 जून 2013) बूढ़ाकेदार नाथ (20 अक्टूबर 1991) पशुपतिनाथ (25 अप्रैल 2015) मन्दिरों को कोई क्षति नहीं पहुँची है। इसको धार्मिक लिहाज से भगवान शिवजी के तीसरे नेत्र के रूप में ज़रूर देखना चाहिये। साथ ही यह भी समझना चाहिए जिस सीमेंट, बजरी से आज भवन व मन्दिर बनते हैं, वह बहुत जल्दी आपदा में ढह सकते हैं, लेकिन इन पुराने शिल्पकलाओं में ऐसा क्या था कि इन मन्दिरों में कोई नुकसान नहीं हुआ है।
इसका सरलता से इस रूप में समझा जा सकता है कि जहाँ पर जिस तरह की भौगोलिक संरचना है, वहाँ के ही संसाधनों को धरती के अनुरूप साज-सँवारकर कुदरती रूप का सृजन की कला पुराने शिल्पकारों के पास थी।
इस समय हिमालय पर्वत पूरे विश्व के वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों के लिये चर्चा का विषय बना हुआ है। कहते हैं कि यह युवा पर्वत अपनी वास्तविक स्थिति से कुछ इंच ऊपर उठ रहा है और यह सत्य है कि यहाँ धरती के नीचे लगभग पन्द्रह किलोमीटर पर दरारें कहीं-न-कहीं हिमालय की खूबसूरती बिगाड़ सकती है।
ऐसी स्थिति में हिमालयी देशों की सरकारों को तत्परता से हिमालयी विकास के नये मॉडल पर चर्चा करनी चाहिये। इसलिये हरिद्वार के सांसद डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक पार्लियामेंट में हिमालय नीति की माँग कर रहे हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले जहाँ पर आज हिमालय विराजमान है, वहाँ से भारत करीब 5 हजार किमी दक्षिण में था।
भूगर्भ प्लेटों के तनाव के कारण एशिया भारत के निकट आकर हिमालय का निर्माण हुआ है। बताया जा रहा है कि इस तरह की भूगर्भीय गतिविधियों से भविष्य में दिल्ली में पहाड़ अस्तित्व में आ सकते हैं। भारतीय हिमालयी राज्य ऐसी अल्पाइन पट्टी में पड़ते हैं जिसमें विश्व के करीब 10 फीसद भूकम्प आते हैं।
पिछले 4 दशकों में वैज्ञानिकों ने दिल्ली समेत भारत के हिमालयी क्षेत्र और अन्य राज्यों के बारे में भवनों की ऊँचाई कम करने, अनियन्त्रित खनन रोकने, पर्यटकों की आवाजाही नियन्त्रित करने, घनी आबादियों के बीच जल निकासी आदि के विषय पर कई रिपोर्ट जारी की गई है। लेकिन इसमें जितनी अधिक-से-अधिक लापरवाही हो सकती थी, वह सामने आई है। परिणामतः आपदा के समय की तात्कालिक चिन्ता ही सामने आती है।
वाडिया भूगर्भ विज्ञान देहरादून संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि नेपाल जितने शक्तिशाली भूकम्प से प्रभावित है, उतना ही रिक्टर स्केल का भूकम्प उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर, पंजाब, दिल्ली आदि क्षेत्रों में आ सकता है। संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सुशील कुमार के मुताबिक इंडियन प्लेट सालाना 45 मीमी तेजी से यूरेशियन प्लेट के नीचे से जा रही है। इसके कारण 2000 किमी लम्बी हिमालय शृंखला में हर 100 किमी के क्षेत्र में उच्च क्षमता के भूकम्प आ सकते हैं।
एवरेस्ट पवर्त से भूकम्प के दौरान ग्लेशियर टूटने से ट्रैकिंग पर गए कई लोग मारे गए हैं। इससे पहले गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना भी टूट चुका है। यद्यपि जलवायु परिवर्तन और भूगर्भिक हलचल दोनों ही इसके कारण हो सकते हैं। भूकम्प के बाद पहाड़ों पर दरारें पड़ने से एक और त्रासदी का खतरा बना रहता है, वह है बाढ़ एवं भूस्खलन। ऐसी स्थिति में ग्लेशियरों के निकट रहने वाले प्राणियों की जान को और खतरा बढ़ जाता है।
इसी कारण उतराखण्ड में सन् 1991 के भूकम्प के बाद बाढ़ और भूस्खलन की घटना तेजी से बढ़ी है। हिमालय में इस हलचल के कारण पर्यटन और ट्रैकिंग के सवाल को नए सिरे से परिभाषित करने की चुनौती भी दे रही है। अब सवाल ये है कि हिमालयी संवेदनशीलता के चलते प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएँ होती ही रहेगी। ऐसे में यहाँ के निवासियों का जीवन बचाए जाने के प्रयास क्यों न हो? क्या कोई हिमालयी दृष्टिकोण इसके अनुसार नहीं होना चाहिए?
दुनिया में जहाँ ब्रिक्स, सार्क और जी-20 के नाम पर कई देश मिलकर हर बार कुछ नई बातें सामने लाते हैं, क्यों नहीं नेपाल, भारत, चीन, अफ़गानिस्तान, भूटान, जापान आदि देश मिलकर हिमालय को अनियन्त्रित छेड़छाड़ से बचाने की सोच विकसित करते हैं? इससे आपदा से जिन्दगियों को काफी हद तक बचाया जा सकता है और हिमालय के मौजूदा विकास में आमूल-चूल परिवर्तन किया जा सकता है।
इससे सचेत रहने के लिये भूगर्भविदों ने प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से भी अलग-अलग जोन बनाकर दुनिया की सरकारों को बता रखा है कि कहाँ-कहाँ पर खतरे अधिक होने की सम्भावना है। हिमालय क्षेत्र मे अन्धाधुन्ध पर्यटन के नाम पर बहुमंजिले इमारतों का निर्माण, सड़कों का चौड़ीकरण, वनों का कटान, विकास के नाम पर बड़े-बड़े बाँधों, जलाशयों और सुरंगों के निर्माण में प्रयोग हो रहे विस्फोटों से हिमालय की रीढ़ काँपती रहती है।
अब देर न करें तो हिमालयी देशों की सरकारों को आगे अपने विकास के मानकों पर पुनर्विचार करने से नहीं चूकना चाहिए। हिमालयी प्रदेशों को भोगवादी संस्कृति से बचाना प्राथमिकता हो। पर्यटन और विकास के मानक सन्तुलित पर्यावरण और आपदाओं का सामना करने वाली पुश्तैनी संस्कृति और ज्ञान को नजरअन्दाज करके नहीं किया जा सकता है।
नेपाल में भूकम्प से तबाही हो गई है। ऐसे मौके पर अवश्य हिमालय नामक शब्द सभी के जुबाँ पर बार-बार आ रहा है। फिर कुछ दिन बाद जब लोग इसको भूल जाएँगे तो वही पुराने विकास के पैमाने फिर से लागू होते रहेंगे। जिसने हिमालय को कमजोर कर दिया है। हिमालयी आपदा का सामना करने की नियमावली लोगों के पास मौजूद है, जो आपदा प्रबन्धन नियमावली 2005 में नहीं है।
नेपाल में जब भूकम्प से नुकसान हुआ तो खोज बचाव के काम में सबसे पहले आस-पड़ोस के लोग ही मदद करने पहुँचे हैं। वे न तो किसी से पैसा माँगते हैं और न खाना। मतलब साफ है कि जहाँ भी आपदा आती है, तो प्रभावितों को सन्देश मिलता है कि आर्थिक मदद की कोई कमी नहीं होने दी जाएगी। इसके बावजूद भी लोग राहत के लिये दर-दर भटकते रहते हैं। इसका कारण होता है कि आपदा राहत में जो काम किया जाता है, उसमें कहीं-न-कहीं प्रभावित लोगों को लगता है कि अब उनका उद्धार हो ही जाएगा। फिर कुछ समय बाद सारे वादे और घोषणाएँ हवा-हवाई हो जाते हैं।
यह चर्चा का विषय है कि हिमालय में आई आपदाओं में केदारनाथ (16-17 जून 2013) बूढ़ाकेदार नाथ (20 अक्टूबर 1991) पशुपतिनाथ (25 अप्रैल 2015) मन्दिरों को कोई क्षति नहीं पहुँची है। इसको धार्मिक लिहाज से भगवान शिवजी के तीसरे नेत्र के रूप में ज़रूर देखना चाहिये। साथ ही यह भी समझना चाहिए जिस सीमेंट, बजरी से आज भवन व मन्दिर बनते हैं, वह बहुत जल्दी आपदा में ढह सकते हैं, लेकिन इन पुराने शिल्पकलाओं में ऐसा क्या था कि इन मन्दिरों में कोई नुकसान नहीं हुआ है।
इसका सरलता से इस रूप में समझा जा सकता है कि जहाँ पर जिस तरह की भौगोलिक संरचना है, वहाँ के ही संसाधनों को धरती के अनुरूप साज-सँवारकर कुदरती रूप का सृजन की कला पुराने शिल्पकारों के पास थी।
इस समय हिमालय पर्वत पूरे विश्व के वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों के लिये चर्चा का विषय बना हुआ है। कहते हैं कि यह युवा पर्वत अपनी वास्तविक स्थिति से कुछ इंच ऊपर उठ रहा है और यह सत्य है कि यहाँ धरती के नीचे लगभग पन्द्रह किलोमीटर पर दरारें कहीं-न-कहीं हिमालय की खूबसूरती बिगाड़ सकती है।
ऐसी स्थिति में हिमालयी देशों की सरकारों को तत्परता से हिमालयी विकास के नये मॉडल पर चर्चा करनी चाहिये। इसलिये हरिद्वार के सांसद डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक पार्लियामेंट में हिमालय नीति की माँग कर रहे हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले जहाँ पर आज हिमालय विराजमान है, वहाँ से भारत करीब 5 हजार किमी दक्षिण में था।
भूगर्भ प्लेटों के तनाव के कारण एशिया भारत के निकट आकर हिमालय का निर्माण हुआ है। बताया जा रहा है कि इस तरह की भूगर्भीय गतिविधियों से भविष्य में दिल्ली में पहाड़ अस्तित्व में आ सकते हैं। भारतीय हिमालयी राज्य ऐसी अल्पाइन पट्टी में पड़ते हैं जिसमें विश्व के करीब 10 फीसद भूकम्प आते हैं।
पिछले 4 दशकों में वैज्ञानिकों ने दिल्ली समेत भारत के हिमालयी क्षेत्र और अन्य राज्यों के बारे में भवनों की ऊँचाई कम करने, अनियन्त्रित खनन रोकने, पर्यटकों की आवाजाही नियन्त्रित करने, घनी आबादियों के बीच जल निकासी आदि के विषय पर कई रिपोर्ट जारी की गई है। लेकिन इसमें जितनी अधिक-से-अधिक लापरवाही हो सकती थी, वह सामने आई है। परिणामतः आपदा के समय की तात्कालिक चिन्ता ही सामने आती है।
वाडिया भूगर्भ विज्ञान देहरादून संस्थान के वैज्ञानिकों का कहना है कि नेपाल जितने शक्तिशाली भूकम्प से प्रभावित है, उतना ही रिक्टर स्केल का भूकम्प उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर, पंजाब, दिल्ली आदि क्षेत्रों में आ सकता है। संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सुशील कुमार के मुताबिक इंडियन प्लेट सालाना 45 मीमी तेजी से यूरेशियन प्लेट के नीचे से जा रही है। इसके कारण 2000 किमी लम्बी हिमालय शृंखला में हर 100 किमी के क्षेत्र में उच्च क्षमता के भूकम्प आ सकते हैं।
एवरेस्ट पवर्त से भूकम्प के दौरान ग्लेशियर टूटने से ट्रैकिंग पर गए कई लोग मारे गए हैं। इससे पहले गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना भी टूट चुका है। यद्यपि जलवायु परिवर्तन और भूगर्भिक हलचल दोनों ही इसके कारण हो सकते हैं। भूकम्प के बाद पहाड़ों पर दरारें पड़ने से एक और त्रासदी का खतरा बना रहता है, वह है बाढ़ एवं भूस्खलन। ऐसी स्थिति में ग्लेशियरों के निकट रहने वाले प्राणियों की जान को और खतरा बढ़ जाता है।
इसी कारण उतराखण्ड में सन् 1991 के भूकम्प के बाद बाढ़ और भूस्खलन की घटना तेजी से बढ़ी है। हिमालय में इस हलचल के कारण पर्यटन और ट्रैकिंग के सवाल को नए सिरे से परिभाषित करने की चुनौती भी दे रही है। अब सवाल ये है कि हिमालयी संवेदनशीलता के चलते प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएँ होती ही रहेगी। ऐसे में यहाँ के निवासियों का जीवन बचाए जाने के प्रयास क्यों न हो? क्या कोई हिमालयी दृष्टिकोण इसके अनुसार नहीं होना चाहिए?
दुनिया में जहाँ ब्रिक्स, सार्क और जी-20 के नाम पर कई देश मिलकर हर बार कुछ नई बातें सामने लाते हैं, क्यों नहीं नेपाल, भारत, चीन, अफ़गानिस्तान, भूटान, जापान आदि देश मिलकर हिमालय को अनियन्त्रित छेड़छाड़ से बचाने की सोच विकसित करते हैं? इससे आपदा से जिन्दगियों को काफी हद तक बचाया जा सकता है और हिमालय के मौजूदा विकास में आमूल-चूल परिवर्तन किया जा सकता है।