संदर्भ बाढ़ : हिमालय से ही जमा हो रही नदियों में गाद

Submitted by Editorial Team on Sun, 04/03/2022 - 21:55
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हस्तक्षेप, 28 Aug 2021, सहारा समय

फोटो - india tv news

हिमालय से आ रही नदियों के उद्गम बहुत संवेदनशील हो गए हैं। यहां की वर्षा पोषित और हिमपोषित नदियों में बाढ़ एवं भूस्खलन का खतरा दिनोंदिन बढ़ रहा है। चौड़ी पत्ती के जंगल 5 हजार फीट से 7 हजार फीट तक चले गए हैं‚ जिससे नदियों के उद्गम की जैव विविधता संकट में पड़ गई है। यहां पर बांझ‚ बुरांश‚ खर्सू‚ मौरू जैसी चौड़ी पत्ती वाली अनेक वन प्रजातियां दुर्लभ होती जा रही हैं। इस कारण वर्षा जल को समेटने की ताकत यहां की धरती में कमजोर पड़ती दिखाई दे रही है। इसलिए बारिश के समय यहां के पहाड़ बहुत जल्दी नीचे खिसकने लगे हैं। इससे निकलने वाला मलबा‚ जिसमें मिट्टी‚ पत्थर‚ कंकड़ हैं‚ गाद के रूप में नदियों के दोनों किनारों पर जमा हो रहा है। इससे नदियों के पास बसे गांव बर्बादी के कगार पर खड़े हैं।

 गाद जमा होने का दूसरा कारण है कि विकास के नाम पर नदियों के दोनों ओर भारी निर्माण कार्य हो रहे हैं‚ और इनसे निकलने वाला मलबा सीधे नदियों में उड़ेला जा रहा है। उदाहरण के रूप में हिमालयी राज्यों की सरकारें अपने यहां पर्यटन व ऊर्जा प्रदेश के नाम पर चौड़ी सड़क और टनल आधारित जल विद्युत परियोजनाओं का बड़े पैमाने पर निर्माण करवा रही हैं। केवल उत्तराखंड में ही 558 बांध और लगभग 900 किमी. लंबी ऑलवेदर रोड जिसकी चौड़ाई 12 से 24 मीटर तक है। इसी तरह पूरे हिमालय क्षेत्र में लगभग १ हजार से अधिक छोटी–बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं निर्मित व निर्माणाधीन हैं। इस तरह के निर्माण कार्य में लाखों पेड़ भी काटे जा रहे हैं‚ और इनसे निकल कर आ रहा लाखों टन मलबा सीधे नदियों के बीच में गिराया जा रहा है। वर्षांत के समय में यह मलबा भारी बाढ़ का रूप ले लेता है। लेकिन शेष मौसम में जब पानी कम हो जाता है‚ तो मलबे के ढेर गाद के रूप में नदियों के दोनों ओर दिखाई देते हैं। 

जल विद्युत परियोजनाएं भी बड़ा कारण 

एक और उदाहरण है। 2013 में केदारनाथ आपदा के समय नदियों के किनारों पर जमा हुए जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण से निकला हुआ टनों मलबा ही भयानक बाढ़ पैदा करके हजारों लोगों की जान का खतरा बना। फरवरी‚ 2021 में चमोली जिले के सीमांत क्षेत्र में ऋषि गंगा में ग्लेशियर टूटने से आई बाढ़ ने ऋषिगंगा हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट और इससे आगे तपोवन –विष्णुगाड परियोजना की टनल में भी मलबा भर दिया था जिसमें 200 से अधिक लोग मारे गए। यह इसलिए विनाशकारी हुई कि यहां की दो जलविद्युत परियोजनाओं ने नदी के बहाव का रास्ता रोका हुआ था। इसलिए ऊपर से आए भारी मलबे को जब आगे बहने का रास्ता नहीं मिला तो उसने वहां अपार जन–धन की हानि की। 

वैसे नदियों में गाद जमा होने की दर हिमालय से तो कम होती इसलिए भी नजर नहीं आ रही है कि यहां पर पिछले 30-35 वर्षों में लगभग 40 बार छोटे–बड़े भूकंप आ चुके हैं‚ और यहां की धरती लगातार कांपती रहती है। इस कारण ऊंची और ढालदार पहाड़ियों पर दरारें पड़ रही हैं। ये दरारें वर्षांत के समय भूस्खलन पैदा करती हैं। संवेदनशीलता तब और बढ़ जाती है जब पहाड़ों की भौगोलिक संरचना को ध्यान में न रखकर बड़े निर्माण कार्यों से अधिक मलबा निकाल कर जल स्रोतों में पड़ने लगता है। इसके कारण हिमालय की छोटी–बड़ी नदियां गाद से पटने लगी हैं। भागीरथी नदी के उद्गम गौमुख ग्लेशियर की हलचलें भी २०१७ से कुछ ऐसी दिखाई देती हैं कि वहां भी मलबे के ढेर लगे हुए हैं। ऊपरी इलाकों में मानवीय हलचलें अधिक बढ़ने से भी ग्लेशियर प्रभावित हो रहे हैं। इनमें २०१० से लगातार आई बाढ़ ने मनेरी भाली परियोजनाएं (प्रथम एवं द्वितीय) और इससे आगे टिहरी बांध के जलाशय में भी बड़ी मात्रा में गाद भर रही है जिसका वैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए। 

बांध–बैराज रोकते गाद को

उत्तराखंड की अलकनंदा‚ मंदाकिनी‚ यमुना‚ सरयू‚ टौस‚ काली‚ रामगंगा आदि नदियों पर बने बांध व बैराजों के निर्माण से ऊपर से आ रही गाद को रोक रहे हैं। इससे भविष्य में हिमालय की नदियों के उद्गम ही रेगिस्तान के रूप में नजर आ सकते हैं। वैज्ञानिक इस पर चिंता जता चुके हैं कि हिमालय में हो रहे बेतरतीब निर्माण कार्यों में कहीं भी आपदा का सामना करने वाली तकनीक का इस्तेमाल नहीं हो रहा है। यही स्थिति पहाड़ों में रेल लाइनों के बिछाने से पैदा हो रही है। कहीं भी मलबा डंपिंग की पुख्ता व्यवस्था नहीं दिखाई दे रही। निर्माण करने वाली कंपनियां अपने हिसाब से पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट तैयार कर देती हैं। इस बारे में ऊपरी अदालतों में कई याचिकाएं विचाराधीन हैं। प्रकृति के द्वारा भेंट की गईं नदियों की इस बदहाली को चुपचाप सहेंगे तो‚ हिमालय टूटकर नदियों के किनारे जमा हो रही गाद में तब्दील हो सकता है। और इनसे प्यास बुझाने वाला समाज भी कहीं खो सकता है। यह खतरा जितना हिमालय के लिए है‚ उतना ही मैदानी क्षेत्रों के लिए भी है‚ और गंगा के प्रवाह क्षेत्र में तो फरक्का बैराज में गाद जमा होने से बिहार और पश्चिम बंगाल के लिए खतरा पैदा कर रहा है। 

नदियों की ऐसी हालत कर देने से जलचर समाप्त हो रहे हैं। मछुआरे भी गाद के बीच नदी को ढूंढने लगे हैं। वह भी ऐसी स्थिति कि जब नदियों की जल राशि भी कम हो रही है‚ और ऊपर से प्रदूषण की मार भी झेल रही है। दूसरी ओर भारी खनन से भी दफन हो सकती है नदी। इसलिए 2008 में नदी बचाओ अभियान के समय अतुल शर्मा द्वारा रचित पंक्ति को ध्यान में रखना चाहिए कि ‘अब नदियों पर संकट है‚ सारे गांव इकट्ठा हों।’

  • लेखक सर्वोदय आंदोलन से जुड़े हुए हैं।