पर्यावरण के साथ न्याय कौन करेगा? सरकार या अदालत? ये सवाल लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने चुनौती पेश कर रहे हैं क्योंकि हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के आदेश राज्य और केन्द्र सरकार के कामकाज पर कड़ी टिप्पणी सरीखे हैं।
ताजा घटना है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट्स में शामिल चारधाम सड़क चौड़ीकरण परियोजना की। इसे उन्होंने 27 दिसम्बर, 2016 को देहरादून में ऑलवेदर रोड कहा था। इसके निर्माण में घोर लापरवाही के चलते सुप्रीम कोर्ट ने 22 अक्टूबर, 2018 को अपने ऐतिहासिक आदेश में सड़क चौड़ीकरण कार्य को रोक दिया है। इस पर अब 15 नवम्बर को सुनवाई होनी है। ऑलवेदर रोड को चारधाम महामार्ग विकास परियोजना के रूप में भी मंजूरी मिली है। इसके तहत गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के लिये जाने वाली मौजूदा सड़क, जिसकी चौड़ाई 5 से 10 मीटर है, का 10 से 24 मीटर तक पर्यावरणीय स्वीकृति के बिना चौड़ीकरण किया जा रहा है।
इस परियोजना के नाम पर देखें तो 50 हजार से अधिक हरे पेड़ों को काटा जा रहा है। शासन-प्रशासन ईमानदारी से जाँच करे तो मानक से कहीं अधिक पेड़ काटे गए हैं।
रुद्रप्रयाग और चमोली जिला प्रशासन के हवाले से बताया गया कि सड़क चौड़ीकरण 10 से 12 मीटर तक ही किया जाना है। यह सच्चाई है तो पेड़ों का कटान 24 से 30 मीटर तक क्यों किया जा रहा है? इसका दोषी कौन है? उन पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है? पहाड़ के गाँव में एक छोटी सड़क बनाने में जब कभी कुछ पेड़ बाधक बनते हैं, तो बड़ा प्रचार होता है कि वन अधिनियम के कारण सड़क का काम रुक गया है। लेकिन ऑलवेदर रोड के लिये कौन-सा वन अधिनियम बनाया गया है, जहाँ वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को अपने पेड़ों की बर्बादी की सुध लेने की भी फुर्सत नहीं है। अजीबोगरीब बात है कि कानून की रखवाली करने वाली व्यवस्था पर्यावरण की हजामत करने पर उतारू है।
सुप्रीम कोर्ट में लम्बे समय से चारधाम सड़क चौड़ीकरण में पर्यावरण मानकों की अनदेखी पर याचिका प्रस्तुत करने वाले सिटीजन फॉर ग्रीन दून का कहना है कि पर्यावरण मंत्रालय से 53 हिस्सों में परियोजना की स्वीकृति ली गई है क्योंकि 100 किमी. से अधिक निर्माण के लिये पर्यावरण प्रभाव का आकलन करवाना पड़ता है, जिससे बचने के लिये निर्माणकर्ताओं ने प्रस्तावित 900 किमी. लम्बी सड़क को कई छोटे-छोटे हिस्सों में दिखाकर मनमाफिक पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई की है।
इस पर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 06 अप्रैल, 2018 को एनजीटी में दाखिल हलफनामे में कहा था कि उसने चारधाम नाम से किसी भी सड़क के निर्माण को मंजूरी नहीं दी है। यदि यह सत्य माना जाए तो 53 हिस्सों में उन्होंने जिस निर्माण के लिये पर्यावरणीय स्वीकृति दी है, उनका नाम क्या है?
चारधाम महामार्ग विकास निर्माण का लाखों टन मलबा सीधे गंगा और इसकी सहायक नदियों में उड़ेला जा रहा है। गंगोत्री मार्ग पर बडेथी, धरासू आदि स्थानों में मलबा भागीरथी में गिर रहा है। उत्तरकाशी के जिलाधिकारी ने बडेथी के पास निर्माण कार्य के मलबे के लिये डम्पिंग जोन बनाने का निर्देश दिया था। इसके बावजूद भागीरथी में मलबा गिरता ही रहता है। एनजीटी ने अप्रैल, 2018 में मलबा निस्तारण के लिये एक प्लान दाखिल करने का आदेश केन्द्रीय सड़क, परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय को दिया था।
वर्ष 2017 में एनजीटी ने बीआरओ (बॉर्डर रोड्स आर्गेनाइजेशन) के भरोसे ही एक याचिका का निस्तारण किया था, जिसमें बीआरओ ने भागीरथी में निर्माण का मलबा रोकने के लिये भागीरथी इको सेंसिटिव जोन नोटिफिकेशन 18 दिसम्बर, 2012 के अनुपालन का वचन दिया था। इसका पालन भगवान भरोसे है। इसी प्रकार एनजीटी ने अप्रैल, 2018 में भी एक अन्तरिम आदेश में कहा था कि चारधाम चौड़ीकरण में पेड़ों की कटाई पर रोक है। इसके बाद भी पेड़ कटते रहे हैं।
हिमालय के इस महत्त्वपूर्ण भू-भाग में पर्यावरणविद, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वैज्ञानिकों की राय है कि विकास के नाम पर मर्यादित छेड़छाड़ करने में भी संयम रखना चाहिए। ऐसी स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय पर्यावरण और विकास की बाबत सरकार को कितना समझाएगा या पर्यावरण मानकों के अनुसार कदम उठाने को कहने में सफल हो पाएगा? इस पर 15 नवम्बर, 2018 को होने वाली सुनवाई से ही पता चल पाएगा। फिलहाल तो देवभूमि के पर्यावरण पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
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