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सर्वोदय प्रेस सर्विस, मार्च 2018
71 फीसद वन भू-भाग वाले उत्तराखण्ड में वनों को बचाना एक बड़ी चुनौती है। पिछले 16 सालों के आँकड़े बताते हैं कि इस अवधि में राज्य में हर साल औसतन 40 हजार हेक्टेयर जंगल आग से तबाह हो रहे हैं। जिससे जैवविविधता को भी खतरा पैदा हो गया है। आग लगने से न सिर्फ राज्य बल्कि दूसरे क्षेत्रों के पर्यावरण पर भी असर पड़ता है। आग के धुएँ की धुन्ध जहाँ दिक्कतें खड़ी करती हैं, वहीं तापमान बढ़ने से ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार भी बढ़ती है। हिमालयी राज्यों में बारिश और बर्फ की कमी से जंगलों की आग थमने का नाम नहीं ले रही है। उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू कश्मीर के जंगलों में जनवरी से ही आग की घटनाएँ बढ़ जाती हैं। लम्बे अन्तराल में हो रही बारिश की बूँदें ही आग को काबू करती है। इस बार केवल उत्तराखण्ड में ही 1244 हेक्टेयर जंगल जल गए हैं।
पिछले 16 वर्ष में यहाँ के लगभग 40 हजार हेक्टेयर जंगल आग से तबाह हो चुके हैं। चिन्ता की बात तो यह है कि वन विभाग प्रतिवर्ष वनों में वृद्धि के आँकड़े दर्ज करता है। लेकिन आग के प्रभाव के कारण कम हुए वनों की सच्चाई सामने नहीं लाता है।
देश के अन्य भागों के जंगल भी आग की चपेट में आये हैं। जिसका एक अनुमान है कि प्रतिवर्ष लगभग 37.3 लाख हेक्टेयर जंगल आग से प्रभावित होते हैं। कहा जाता है कि इन जंगलों को पुनर्स्थापित करने के नाम पर हर वर्ष 440 करोड़ से अधिक खर्च करने होते हैं।
उत्तराखण्ड वन विभाग ने तो पिछले 10 सालों में आग की घटनाओं का अध्ययन भी कराया है, जिसमें बताया गया 3.46 लाख हेक्टेयर आग के लिये संवेदनशील है। ताज्जुब तो तब हुआ कि जब उत्तरकाशी वन विभाग ने एक ओर वनाग्नि सुरक्षा पर बैठकें की हैं, दूसरी ओर फरवरी में कंट्रोल बर्निंग के नाम पर 3 हजार हेक्टेयर जंगल जला दिये हैं।
उत्तराखण्ड में वनों में आग से जैवविविधता पर सर्वाधिक असर पड़ रहा है और तमाम जडी-बूटियाँ विलुप्ति के कगार पर पहुँच गई हैं। वन्यजीव स्थान बदल रहे हैं। इससे कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है, जिसका दुष्परिणाम है कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं और सूख रहे हैं।
देश भर के पर्यावरण संगठनों ने कई बार माँग की हैं कि वनों को गाँव को सौंप दो। अब तक यदि ऐसा हो जाता तो वनों के पास रहने वाले लोग स्वयं ही वनों की आग बुझाते। वन विभाग और लोगों के बीच में आजादी के बाद अब तक सामंजस्य नहीं बना है। जिसके कारण लाखों वन निवासी, आदिवासी और अन्य लोग अभयारण्यों और राष्ट्रीय पार्कों के नाम पर बेदखल किये गए हैं।
जिन लोगों ने पहले से ही अपने गाँव में जंगल पाले हुए हैं, उन्हें भी अंग्रेजों के समय से चली आ रही व्यवस्था के अनुसार वन विभाग ने अतिक्रमणकारी मान रखा है। वे अपने ही जंगल से घास, लकड़ी व चारा लाने में सहजता महसूस नहीं करते हैं। यदि वनों पर गाँवों का नियंत्रण होता और वन विभाग उनकी मदद करता, तो वनों को आग से बचाया जा सकता है।
आमतौर पर माना जाता है कि वन माफियाओं का समूह वनों में आग लगाने के लिये सक्रिय रहता है। वे चाहे वन्य जीवों के तस्कर हो अथवा असफल वृक्षारोपण के सबूतों के नाम पर आग लगाई जाती है। इसके अलावा वनों को आग से सूखाकर सूखे पेड़ों के नाम पर वनों के कटान का ठेका भी मिलना आसान हो जाता है।
वनों पर ग्रामीणों को अधिकार देकर सरकार को वनाग्नि नियंत्रण में जनता का सहयोग हासिल करना चाहिए। अकेले उत्तराखण्ड का उदाहरण लें तो 12089 वन पंचायत के सदस्यों की संख्या 1 लाख से अधिक है। इनका सहयोग अग्नि नियंत्रण में क्यों नहीं लिया जा रहा है?
हर वर्ष करोड़ों रुपए के वृक्षारोपण करने की जितनी आवश्यकता है उससे कहीं अधिक जरूरत वनों को आग से बचाने की है। वनों पर ग्रामीणों को अधिकार देकर सरकार को वनाग्नि नियंत्रण में जनता का सहयोग हासिल करना चाहिए। गाँव के हक-हकूक भी आग से समाप्त हो रहे हैं। बार-बार आग की घटनाओं के बाद भूस्खलन की सम्भावनाएँ अधिक बढ़ जाती हैं।
पहाड़ों में जिन झाडि़यों, पेड़ों और घास के सहारे मिट्टी और मलबे के ढेर जमे हुए रहते हैं, वे जलने के बाद थोड़ी सी बरसात में ही सड़कों की तरफ टूट कर आने लगते हैं। पहाड़ी राज्यों में इसके अनगिनत उदाहरण है कि आग लगने के बाद तेज बारिश ने बाढ़ एवं भूस्खलन की सम्भावनाएँ बढ़ाई हैं, जो आने वाली वर्षान्त में फिर तबाही का कारण बन सकती हैं।
चिन्ता भविष्य की है कि क्या यों ही जंगल जलते रहेंगे या स्थानीय महिला संगठनों, पंचायतों को वन अधिकार सौंपकर आग जैसी भीषण आपदा से निपटेंगे। वन विभाग के पास ऐसी कोई मैन पावर नहीं है कि वे अकेले ही लोगों के सहयोग के बिना आग बुझा सकें।