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भा.कृ.अनु.प. - भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान अनुसन्धान केन्द्र, दतिया (मध्य प्रदेश)
परिचय
1. बुन्देलखण्ड क्षेत्र में लगभग 70 प्रतिशत खेत खरीफ ऋतु में परती छोड़ दिये जाते हैं।
2. लगभग 53 प्रतिशत क्षेत्र में बारानी खेती की जाती है।
3. असामान्य वर्षा एवं वर्षा ऋतु में भी, बीच-बीच में लम्बे अन्तराल तक बारिश न होने के कारण सूखे की स्थितियों के कारण खरीफ में असफल फसलोत्पादन इस क्षेत्र की प्रमुख समस्या है।
4. इस क्षेत्र में लाल मिट्टियाँ 50 प्रतिशत से अधिक भू-भाग में, ऊँचाई वाले स्थानों तथा ऊँचे-नीचे धरातल पर पायी जाती हैं, जिसके कारण वर्षा के जल का एक बड़ा भाग, अपवाह के रूप में बहकर व्यर्थ चला जाता है तथा वह अपने साथ काफी मात्रा में खेत की उपजाऊ मिट्टी एवं पोषक तत्व भी बहाकर ले जाता है।
5. वर्षा ऋतु में खाली पड़े खेतों में, कम अवधि की दलहनी फसल के साथ-साथ एक सूखा प्रतिरोधी फसल को एक उचित अन्तःफसली फसल प्रणाली के अन्तर्गत उगाकर, बारानी दशा में संसाधन संरक्षण के साथ-साथ सफल उत्पादन भी प्राप्त किया जा सकता है।
6. बारानी दशा में, बुन्देलखण्ड की लाल मिट्टियों में अरंड + मूँग की अन्तःफसली खेती, भू-अपरदन को कम करने तथा टिकाऊ उत्पादन प्राप्त करने के लिये उपयुक्त है।
अरंड + मूँग की अन्तःफसली खेती क्यों?
अरंड + मूँग की अन्तःफसली खेती के अन्तर्गत यह फसलें बहुत शीघ्र बढ़कर भूमि की सतह को ढक लेती हैं तथा वर्षा की बूँदों की मृदा कटाव करने की प्रहारक क्षमता को काफी कम कर देती हैं। परिणामस्वरूप, मृदा अपरदन कम होता है तथा बारानी दशा में भी टिकाऊ उत्पादन प्राप्त होता है।
तकनीक को अपनाने के सोपान
खेत की तैयारी
अप्रैल + मई के महीने में, खेत की मिट्टी पलटने वाले हल, तत्पश्चात हैरो से जुताई करके खेत की तैयारी करनी चाहिए। इससे खरपतवार तथा कीट एवं बीमारियों के नियंत्रण के साथ-साथ भूमि में अधिक मात्रा में वर्षाजल के संचयन में सहायता मिलती है।
प्रजातियाँ
अरंड की क्रान्ति एवं जी ए यू सी एच-4 (GAUCH-4) तथा मूँग की ‘के 851’, ‘पंत मूँग 1’ और सम्राट प्रजातियाँ इस क्षेत्र में खेती के लिये उपयुक्त हैं।
बुवाई का समय
मानसून आने के पश्चात जुलाई के प्रथम सप्ताह तक फसलों की बुवाई कर देनी चाहिए।
बीज दर एवं बुवाई की दूरी
1. बीज को बुवाई से पहले थायराम 2.5 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर तत्पश्चात पी.एस.बी. कल्चर 10 ग्राम/किलोग्राम बीज करी दर से उपचारित करना चाहिए।
2. बुवाई पंक्तियों में समोच्य रेखा पर करनी चाहिए।
3. अरंड एवं मूँग की बुवाई 1:2 के अनुपात में करनी चाहिए।
4. अरंड की दो पंक्तियों के बीच की दूरी 90 सेंटीमीटर रखनी चाहिए।
5. अरंड की दो पंक्तियों के मध्य, मूँग की दो पंक्तियाँ अन्तःफसल के रूप में 30 सेंटीमीटर की दूरी पर बोनी चाहिए।
6. इस प्रकार अरंड + मूँग की बुवाई के लिये, 20 किलोग्राम अरंड तथा 10 किलोग्राम मूँग के बीज की आवश्यकता पड़ती है।
उर्वरक
अरंड + मूँग की अन्तःफसली फसल के लिये 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। इन उर्वरकों को, खेत में बुवाई के पहले समान रूप से बिखेरकर, हल्की जुताई द्वारा मिट्टी में मिला देना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
1. खरपतवार नियंत्रण के लिये दो गुड़ाइयाँ, प्रथम बुवाई के 20 दिन बाद तथा दूसरी 40 दिन बाद करने से फसल के खरपतवारों को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
2. खरपतवारों को रासायनिक विधि द्वारा भी नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिये पैंडीमिथलीन 1.0 लीटर सक्रिय तत्व को 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर बुवाई के तुरन्त बाद, परन्तु अंकुरण से पहले खेत में समान रूप से छिड़कना चाहिए।
कीट-व्याधि नियंत्रण
1. कीट – खड़ी फसल में कीट नियंत्रण के लिये, मेटासिस्टाक्स 25 ईसी 1.0 लीटर को 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 20, 30 एवं 40 दिन बाद खेत में समान रूप से छिड़कना चाहिए।
2. बीमारी – मूँग में पीले मोजेक रोग के नियंत्रण के लिये, मेटासिस्टाक्स 25 ईसी 1.0 लीटर को 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर बुवाई के 20, 30 एवं 40 दिन बाद खेत में समान रूप से छिड़कना चाहिए।
कटाई तथा गहाई
1. मूँग की 80 प्रतिशत फलियाँ पक जाने पर नियमित रूप से फलियों की तुड़ाई करते रहना चाहिए ताकि फलियों के अधिक पकने पर, दानों के छिटकर होने वाले नुकसान से बचा जा सके।
2. अरंड की फल वाली मुख्य शाखाओं की कटाई, संपुटों के पक जाने पर उनका रंग भूरा हो जाने एवं उनके सूखने पर फटकर दाने छिटकने से पहले शुरू कर देनी चाहिए। यह अवस्था बुवाई के लगभग 90 दिन बाद आती है।
3. 4 से 5 बार, 15 दिन के अन्तराल पर, फल वाली शाखाओं की कटाई करने की आवश्यकता होती है।
4. कटाई के पश्चात पके हुए फल वाली शाखाओं को धूप में सुखा कर तदुपरान्त डंडों से पीटकर या बैलों की दायें करके या ट्रैक्टर द्वारा फसल की मड़ाई की जाती है।
उपज एवं आर्थिक लाभ
1. अरंड + मूँग की अन्तः फसली खेती द्वारा 1,034 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मूँग की समतुल्य उपज प्राप्त हुई (तालिका 1)।
2. इस अन्तःफसली खेती द्वारा रु. 20,748 प्रति हेक्टेयर का शुद्ध लाभ प्राप्त हुआ, जो खरीफ ऋतु में बारानी दशा में पारम्परिक खेती के अन्तर्गत खेतों को परती रखने की तुलना में, अरंड + मूँग की अन्तःफसली की उपयुक्तता दर्शाता है।
तालिका 1 : अरंड + मूँग की अन्तःफसली खेती से प्राप्त उपज एवं आर्थिक लाभ | ||||
उपचार | मूँग की समतुल्य उपज (किग्रा/हे.) | खेती की लागत (रु./हे.) | कुल प्रतिफल (रु./हे.) | शुद्ध लाभ (रु./हे.) |
परती विधि | - | - | - | - |
अरंड + मूँग की अन्तःफसली खेती (1:2) | 1,304 | 10,272 | 31,020 | 20,748 |
अन्य लाभ
अपवाह एवं मृदा ह्रास में कमी
1. लाल मिट्टियों में 2 प्रतिशत ढाल पर, पारम्परिक विधि जिसके अन्तर्गत खरीफ ऋतु में खेतों को परती छोड़ा जाता है, में अधिक अपवाह (62.2 प्रतिशत) एवं मृदा हानि (8.63 टन/हेक्टेयर) अभिलेखित की गई।
2. परती विधि की तुलना में, अरंड + मूँग की अन्तःफसली खेती के अन्तर्गत कम अपवाह (37.1 प्रतिशत) एवं मृदा हानी (3.69 टन/हेक्टेयर) पायी गई (तालिका 2)।
तालिका 2 : विभिन्न उपचारों का अपवाह एवं मृदा हानि पर प्रभाव | ||
उपचार | अपवाह (%) | मृदा हानि (टन/हे.) |
परती विधि | 61.2 | 8.63 |
अरंड + मूँग की अन्तःफसली खेती | 37.1 | 3.69 |
पोषक तत्वों की हानि में कमी
1. परती विधि के अन्तर्गत, अपवाह में 72.9 किलोग्राम जैविक कार्बन, 42.2 किलोग्राम नाइट्रोजन, 9.7 किलोग्राम फास्फोरस एवं 4.5 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की हानि अभिलेखित की गई (तालिका 3)।
तालिका 3 : विभिन्न उपचारों का अपवाह में पोषक तत्वों की हानि पर प्रभाव | ||||
उपचार | पोषक तत्वों की हानि (किग्रा/हे.) | |||
जैविक कार्बन | नाइट्रोजन | फास्फोरस | पोटाश | |
परती विधि | 72.9 | 42.2 | 9.7 | 4.5 |
अरंड+मूँग की अन्तःफसली खेती | 2.8 | 1.7 | 7.9 | 3.2 |
3. अरंड + मूँग की अन्तःफसली खेती द्वारा परती विधि की तुलना में कम अपवाह, कम मृदा एवं पोषक तत्वों की हानि पायी गयी, जो इस अनतर्वर्ती खेती की इस क्षेत्र के लिये उपयुक्तता दर्शाती है।
विस्तार की सम्भावनायें
बारानी दशा में, बुन्देलखण्ड और मध्य प्रदेश की ऊँचाई पर पायी जाने वाली ढालू मिट्टियों (लाल मिट्टियाँ) में, अरंड + मूँग की अन्तःफसली फसल प्रणाली को, मानसून की विभिन्न स्थितियों में सफलतापूर्वक अपनाकर टिकाऊ उत्पादन प्राप्त करने के साथ-साथ मृदा, जल एवं पोषक तत्वों को भी संरक्षित किया जा सकता है।
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केन्द्राध्यक्ष
भा.कृ.अनु.प. - भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान अनुसन्धान केन्द्र
दतिया - 475 661 (मध्य प्रदेश), दूरभाष - 07522-237372/237373, फैक्स - 07522-290229/400993, ई-मेल - cswcrtidatia@rediffmail.com
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