बुन्देलखण्ड क्षेत्र मध्य भारत में स्थित है तथा इसका भौगोलिक क्षेत्रफल लगभग 70.4 लाख हेक्टेयर है। इस क्षेत्र में लाल मिट्टियाँ लगभग 50 प्रतिशत क्षेत्रफल में पायी जाती हैं। ये मिट्टियाँ कम से मध्यम गहराई की हैं तथा कम उर्वरा शक्ति होने के कारण इनकी उत्पादन क्षमता भी कम है। लाल मिट्टियाँ मुख्यतः ऊँचे स्थानों पर पाई जाने के कारण उनसे वर्षा ऋतु में वर्षा के जल का अधिकांश भाग बहकर व्यर्थ चला जाता है। इस क्षेत्र में प्रचलित परती-गेहूँ फसल चक्र के कारण अधिकांश पोषक तत्व मिट्टी के कटाव, तत्वों के रिसाव एवं खरपतवारों द्वारा उद्ग्रहण आदि से नष्ट हो जाते हैं। सीमित संसाधनों के कारण इस क्षेत्र के किसान रासायनिक उर्वरकों पर अधिक धन व्यय नहीं कर सकते अतः हरी खाद इस क्षेत्र की मृदा की उर्वरा शक्ति एवं उत्पादन क्षमता बढ़ाने तथा मृदा क्षरण को कम करने के लिये अच्छा विकल्प है। अतः बुन्देलखण्ड के किसान वर्षा ऋतु (खरीफ) में हरी खाद की फसल लेकर लाभान्वित हो सकते हैं।
परिचय
1. बुन्देलखण्ड क्षेत्र में लगभग 70 प्रतिशत खेत खरीफ ऋतु में परती छोड़ दिये जाते हैं।
2. लाल मिट्टियाँ, जो इस क्षेत्र में लगभग 50 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल में पायी जाती हैं, की उत्पादन क्षमता, मिट्टी की कम जल धारण क्षमता, कम उर्वरता एवं मिट्टी की कम गहराई के कारण बहुत कम है।
3. मुख्यतः ये मिट्टियाँ पहाड़ियों से सटे क्षेत्रों में ऊँचाई वाले स्थानों पर पायी जाती हैं जिसके कारण वर्षा के जल का अधिकांश भाग अपवाह के रूप में बहकर व्यर्थ चला जाता है।
4. इस क्षेत्र में ‘परती-गेहूँ’ फसल चक्र मुख्य रूप से अपनाया जाता है जिसके कारण वर्षा ऋतु में काफी मात्रा में मृदा क्षरण तथा पोषक तत्वों का खेतों से ह्रास होता है।
5. इस क्षेत्र में वर्षा ऋतु में, हरी खाद की फसल को उगाकर ढालू खेतों से मृदा क्षरण को काफी सीमा तक कम किया जा सकता है तथा साथ ही साथ खेत की मिट्टी की भौतिक एवं रासायनिक अवस्था, जल धारण क्षमता तथा उर्वरा शक्ति को भी बढ़ाया जा सकता है।
हरी खाद क्यों?
1. वर्षा ऋतु में खेत में, सनई की फसल को हरी खाद के लिये उगाया जाता है जो खेत में वर्षा के जल के स्व स्थानिक संरक्षण, मृदा क्षरण में कमी तथा भूमि की उर्वरा शक्ति एवं उत्पादन क्षमता को बढ़ाने में सहायक होती है।
2. खरीफ में सनई की फसल हरी खाद के लिये प्रयोग करने के पश्चात रबी के मौसम में गेहूँ की फसल को संस्तुत विधियों द्वारा उगाया जाता है।
तकनीक को अपनाने के लिये आवश्यक सोपान
1. खरीफ के मौसम में, मानसून आने पर खेत की जुताई के पश्चात जुलाई के दूसरे सप्ताह तक सनई की बुवाई छिड़काव विधि से 60 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से, बिना किसी उर्वरक प्रयोग के, कर देनी चाहिए।
2. खेत में, सनई की खड़ी फसल को बुवाई के सात सप्ताह (बुवाई के 50 से 55 दिन बाद) के पश्चात मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करके मिट्टी में मिला देना चाहिए।
3. सनई की फसल को मिट्टी में पलटने के पश्चात इसे खेत में सड़ने के लिये छोड़ देना चाहिए।
4. आगामी रबी के मौसम में गेहूँ की फसल संस्तुत विधियों द्वारा उगायी जाती है।
आगामी गेहूँ की फसल को उगाने के लिये संस्तुत विधि
हरी खाद के उपरान्त रबी में आगामी गेहूँ की अच्छी फसल को उगाने के लिये संस्तुत विधि:
प्रजातियाँ
जी डब्लू 273, जी डब्लू 322, जी डब्लू 366, एम पी 1142, एम पी 4010, एच डी 4672 एवं एच आई 8627 इस क्षेत्र में बुवाई के लिये संस्तुत प्रजातियाँ हैं।
खेत की तैयारी
गेहूँ की बुवाई के लिये खेत की तैयारी पलेवा के पश्चात करनी चाहिए, ताकि अच्छा अंकुरण, तत्पश्चात उचित पौधा संख्या प्राप्त हो सके।
बुवाई का समय
गेहूँ की बुवाई के लिये उचित समय 15 से 30 नवम्बर के मध्य रहता है।
बीजोपचार
बुवाई से पूर्व बीज को थायराम या वीटावैक्स @ 2.5 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करने के पश्चात बुवाई करनी चाहिए।
बीज की दर एवं बुवाई की दूरी
1. उचित समय पर बीज की बुवाई करने पर 100 किलोग्राम बीज/हेक्टेयर की दर से पर्याप्त रहता है।
2. देर से, 30 नवम्बर के बाद (1 दिसम्बर से 15 दिसम्बर) बुवाई करने पर 125 किलोग्राम बीज/हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
3. बीज की बुवाई पंक्तियों में 23 सेंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए। अच्छी बुवाई, उचित अंकुरण एवं उचित उर्वरक के प्रयोग के लिये बीज एवं उर्वरक दोनों को एक साथ बुवाई (सीड-कम-फर्टीड्रिल) करने वाली मशीन के प्रयोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
उर्वरक प्रयोग की विधि
1. हरी खाद के पश्चात 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस एवं 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
2. नाइट्रोजन की आधी तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई से पूर्व खेत की अन्तिम जुताई के समय खेत में समान रूप से छिड़ककर हल्की जुताई द्वारा खेत की मिट्टी में मिला देनी चाहिए।
3. नाइट्रोजन की शेष बची आधी मात्रा को दो बराबर भागों में विभाजित करके प्रथम भाग को पहली सिंचाई के बाद एवं दूसरे भाग को दूसरी सिंचाई के बाद खड़ी फसल पर समान रूप से छिड़ककर प्रयोग करनी चाहिए।
सिंचाई
1. गेहूँ की फसल की बढ़वार की विभिन्न अवस्थाओं पर आवश्यक रूप से सिंचाई करनी चाहिए तथा प्रत्येक सिंचाई में 7 सेंटीमीटर जल का उपयोग करना चाहिए। विभिन्न अवस्थाओं पर सिंचाई का अनुमानित समय निम्नलिखित है:
2. पहली सिंचाई – मुकुट जड़ अवस्था पर, बुवाई के 18 से 21 दिन के मध्य।
3. दूसरी सिंचाई – कल्ले निकलते समय, बुवाई के 40 से 42 दिन के मध्य।
4. तीसरी सिंचाई – गाँठें बनते समय, बुवाई के 55 से 60 दिन के मध्य।
5. चौथी सिंचाई – फूल आते समय, बुवाई के 65 से 70 दिन के मध्य।
6. पाँचवी सिंचाई – दानों में दूध पड़ते समय, बुवाई के 80 से 85 दिन के मध्य।
7. छठी सिंचाई – दाना भरते समय, बुवाई के 100 से 105 दिन के बाद।
रासायनिक खरपतवार नियंत्रण
1. फसल में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों पर नियंत्रण के लिये 2, 4-डी (ईस्टर) नामक खरपतवारनाशी दवा की ½ लीटर (सक्रिय तत्व) मात्रा को 500-600 लीटर पानी में अच्छी तरह घोलकर, प्रति हेक्टेयर की दर से, गेहूँ की खड़ी फसल पर बुवाई के 30-35 दिन बाद छिड़काव करें।
2. संकरी पत्ती वाले खरपतवारों एवं फैलेरिस माइनर पर नियंत्रण के लिये आइसोप्रोट्यूरान नामक खरपतवारनाशी दवा की 1 किलोग्राम (सक्रिय तत्व) मात्रा को 500-600 लीटर पानी में अच्छी तरह घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से गेहूँ की खड़ी फसल पर बुवाई के 30-35 दिन बाद छिड़काव करें।
कटाई एवं गहाई
1. अधिक पकने पर दानों के छिटकने से होने वाले नुकसान से बचने के लिये फसल की सही समय पर कटाई करनी चाहिए।
2. कटाई के उपरान्त शीघ्र ही फसल की, थ्रेशर द्वारा गहाई करें।
हरी खाद के लाभ
भूमि में जैव पदार्थ एवं पोषक तत्वों का समावेश
सनई की फसल को भूमि में पलट कर हरी खाद के लिये प्रयोग करने पर 18.4 टन/हेक्टेयर हरा जैव पदार्थ, 45.4 किलोग्राम नाइट्रोजन, 3.5 किलोग्राम फास्फोरस एवं 51.9 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर प्राप्त हुआ (तालिका 1)।
तालिका 1 : लाल मिट्टियों में सनई की हरी खाद द्वारा जैव पदार्थ एवं पोषक तत्वों का समावेश | |
विवरण | मात्रा |
जैव पदार्थ समावेश (टन/हेक्टेयर) | |
हरा जैव पदार्थ | 18.4 |
सूखा जैव पदार्थ | 4.7 |
पोषक तत्वों का समावेश (किलोग्राम/हेक्टेयर) | |
नाइट्रोजन | 45.4 |
फास्फोरस | 3.5 |
पोटाश | 51.9 |
गेहूँ की उपज एवं जल उपयोग क्षमता
1. परती – गेहूँ की फसल चक्र की तुलना में, सनई की हरी खाद – गेहूँ फसल चक्र के प्रयोग से गेहूँ की फसल के दाने एवं भूसे की उपज तथा जल उपयोग क्षमता में वृद्धि हुई (तालिका 2)।
2. परती – गेहूँ फसल चक्र (कृषक विधि) की तुलना में खरीफ में सनई की हरी खाद के पश्चात रबी में गेहूँ की फसल लेने पर, गेहूँ के दाने एवं भूसे की उपज में क्रमशः 35 एवं 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
3. परती – गेहूँ फसल चक्र की तुलना में, सनई की हरी खाद – गेहूँ फसल चक्र के प्रयोग से, गेहूँ की फसल की जल उपयोग क्षमता में भी 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
तालिका 2 : विभिन्न उपचारों का गेहूँ की उपज एवं जल उपयोग क्षमता पर प्रभाव | ||
विवरण | विधि | |
कृषक विधि (परती-गेहूँ) | उन्नत विधि (हरी खाद-गेहूँ) | |
उपज (किलोग्राम/हेक्टेयर) | ||
दाना | 1477 | 1991 |
भूसा | 2826 | 3676 |
जल उपयोग क्षमता (किग्रा/हे.-मिमी) | 5.22 | 6.76 |
आर्थिक लाभ
1. कृषक विधि की तुलना में, सनई की हरी खाद के उपरान्त गेहूँ की फसल के द्वारा शुद्ध लाभ में 69 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
2. सनई की हरी खाद के पश्चात गेहूँ की फसल लेने पर, लाभ लागत अनुपात 1.38 से बढ़कर 1.54 हो गया (तालिका 3)।
तालिका 3 : हरी खाद के प्रयोग का आर्थिक विश्लेषण | ||
विवरण | कृषक विधि (परती-गेहूँ) | उन्नत विधि (हरी खाद-गेहूँ) |
उत्पादन की लागत (रु./हे.) | 19,265 | 23,205 |
कुल प्रतिफल (रु./हे.) | 26,677 | 35,747 |
शुद्ध लाभ (रु./हे.) | 7,411 | 12,541 |
लाभ लागत अनुपात | 1.38:1 | 1.54:1 |
आर्थिक गणना के लिये, जुलाई 2013 में प्रचलित दरें शामिल की गई हैं। |
अन्य लाभ
संसाधन संरक्षण
परम्परागत खेती की तुलना में, हरी खाद के लिये बोई गयी सनई की फसल, 2 प्रतिशत ढाल वाली लाल मृदाओं में लगभग 38 प्रतिशत अपवाह में तथा 4 गुना मृदा ह्रास में कमी लाती है।
मृदा गुणवत्ता में सुधार
1. सनई की हरी खाद की फसल मृदा की भौतिक एवं रासायनिक दशा में सुधार लाती है।
2. सनई की हरी खाद के प्रयोग से, मृदा का स्थूलता घनत्व (Bulk density) 1.58 से घटकर 1.45 ग्राम/घन सेंटीमीटर तथा रिसाव (infiltration rate) 4.19 से बढ़कर 6.38 सेंटीमीटर/घंटा हो गई (तालिका 4)।
3. परती-गेहूँ फसल चक्र की तुलना में हरी खाद-गेहूँ के फसल चक्र द्वारा भूमि में जैविक कार्बन, नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा में क्रमशः 14.3, 31.0, 31.0 एवं 11.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
तालिका 4 : विभिन्न उपचारों का भूमि की भौतिक एवं रासायनिक गुणों पर प्रभाव (5 वर्ष पश्चात)। | ||
विवरण | उपचार | |
कृषक विधि (परती-गेहूँ) | उन्नत विधि (हरी खाद-गेहूँ) | |
भौतिक गुण | ||
स्थूलता घनत्व (ग्रा./घन सेमी) | 1.58 | 1.45 |
रिसाव दर (सेमी/घंटा) | 4.19 | 6.38 |
रासायनिक गुण | ||
जैविक कार्बन (किग्रा/हे.) | 0.28 | 0.32 |
उपलब्ध नाइट्रोजन (किग्रा/हे.) | 194.50 | 254.80 |
उपलब्ध फास्फोरस (किग्रा/हे.) | 12.60 | 16.50 |
उपलब्ध पोटाश (किग्रा/हे.) | 122.20 | 136.50 |
सम्भावनायें
बुन्देलखण्ड क्षेत्र में खरीफ ऋतु में लगभग 70 प्रतिशत खेत परती छोड़ दिये जाते हैं जिनसे काफी मात्रा में मिट्टी का कटाव होता है। इन परिस्थितियों में, समुचित क्षेत्र को हरी खाद की फसल के अन्तर्गत लाकर इन क्षेत्रों से होने वाले अपवाह एवं मृदा ह्रास को कम करके, भूमि की उर्वरता और उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, आगामी रबी में ली जाने वाली फसलों के लिये प्रयोग किए जाने वाले महँगे रासायनिक उर्वरकों पर होने वाले खर्च को भी काफी सीमा तक कम किया जा सकता है।
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केन्द्राध्यक्ष
भा.कृ.अनु.प. - भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान अनुसन्धान केन्द्र
दतिया - 475 661 (मध्य प्रदेश), दूरभाष - 07522-237372/237373, फैक्स - 07522-290229/400993, ई-मेल - cswcrtidatia@rediffmail.com
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निदेशक
भा.कृ.अनु.प. - भारतीय मृदा एवं जल संरक्षण संस्थान अनुसन्धान केन्द्र, 218, कौलागढ़ रोड, देहरादून - 248 195 (उत्तराखण्ड), दूरभाष - 0135-2758564, फैक्स - 0135-2754213, ई-मेल - directorsoilcons@gmail.com