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तहलका
अपनी वीरता और जुझारूपन के लिए प्रसिद्ध बुंदेलखंड में कई सालों के सूखे, इसके चलते पैदा कृषि संकट और इनसे निपटने की योजनाओं में भ्रष्टाचार ने पलायन और आत्महत्याओं की एक अंतहीन श्रृंखला को जन्म दे डाला है। तसवीरें और रिपोर्ट रेयाज उल हक
बुंदेलखंड को मिले 3,506 करोड़ रुपए के पैकेज से महोबा जिले के पवा गांव की रामकली को समय पर और नियमित रूप से राशन मिल जाने की कम ही संभावना है। उतनी ही कम संभावना इस बात की भी है कि उन्हें और उनके तीन बेटों और एक बहू के पांच सदस्यों वाले परिवार को साल में 100 दिनों का सुनिश्चित रोजगार मिल जाएगा। और इस बात की संभावना तो बिल्कुल ही नहीं है कि उनके परिवार के ऊपर चढ़ चुके एक लाख रुपए के कर्ज का बोझ इस पैकेज से कम हो जाएगा। बेशक, इस पैकेज से उनके पति के लौट आने की भी कोई उम्मीद नहीं है।
रामकली के पति कहीं गए नहीं हैं। 22 जनवरी की शाम को पास ही बन रही नाली का काम करके लौटने के बाद वे जेब में रोटियां रखकर कहीं चले गए थे। रात गहराने के बाद भी जब वे नहीं लौटे तो रामकली ने अपने बेटों और रिश्तेदारों के साथ उनकी तलाश शुरू की। उन्हें सुंदरलाल को खोजने में बहुत परेशानी नहीं हुई। गांव के पास ही एक पेड़ पर लटकती उनकी लाश मिल गई थी। सुंदरलाल ने खुद को फांसी लगा ली थी।
सुंदरलाल की आत्महत्या की कई सारी और एक-दूसरे में बुरी तरह उलझी हुई वजहें हैं। उनकी मौत के पीछे गरीबी, सूखा, इससे निपटने में सरकार की नाकामी, लोगों को राहत देने के लिए चलाई जा रही योजनाओं में भ्रष्टाचार और पंचायती राज के लुभावने चेहरे के पीछे छिपे सामंती समाज के क्रूर चेहरे की मिली-जुली कहानी है। इनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। जिस समय सुंदरलाल ने आत्महत्या करने के अपने फैसले पर अमल किया, उस समय उनके िसर पर लगभग एक लाख रुपए का कर्ज था, जिसे उन्होंने अपनी बेटी की शादी तथा अपने बेटों और बहू की बीमारी के इलाज के लिए गांव के कई लोगों से लिया था। सुंदरलाल एक ऐसे गांव में रहते थे जहां न इलाज के लिए कोई सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र है और न ही कोई ढंग का डॉक्टर। उनके पास राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून के तहत एक जॉब कार्ड था, जिसपर अंतिम बार काम 2007 में दिया गया था - पिछले चार वर्षों में कुल मिलाकर 65 दिनों का काम, और मजदूरी के रूप में 3,500 रुपए। जाहिर है, यह राशि छह लोगों के परिवार का 4 साल तो क्या छह महीने पेट भरने के लिए भी काफी नहीं थी। उनके राशन कार्ड पर पिछले दस में से तीन महीने गांव के कोटेदार ने राशन नहीं दिया था। जाहिर है कि उनकी समस्याओं को मीडिया के मायावती बनाम राहुल गांधी समीकरण की मदद से नहीं समझा जा सकता। सुंदरलाल की यह कहानी पूरे बुंदेलखंड की 2 करोड़ 10 लाख की आबादी की कहानी से कमोबेश मिलती-जुलती है। इसलिए उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश समूचे बुंदेलखंड की समस्याओं को समझने सरीखी है।
99.8% किसानों को 2009 में खरीफ की फसल पर नुकसान उठाना पड़ा। इनमें से 74 प्रतिशत को 50 से100 प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ा। 33 प्रतिशत लोगों को कोई सहायता नहीं मिली सुंदरलाल का चार भाइयों का परिवार जितना आज बिखरा हुआ है उतना तब भी नहीं बिखरा था। जब उनके पिता शिवदयाल कोरी 1992 में कारसेवा के लिए अयोध्या जाने के बाद फिर कभी नहीं लौटे थे। कुछ समय बाद सभी भाइयों ने आपस में जमीन बांट ली और खेती करने लगे। अभी एक दशक पहले तक उनके साथ कोई समस्या नहीं थी। उनकी जमीन पर इतनी दाल और गेहूं हो जाती थी कि काम चल जाता था। हालांकि मजदूरी तब भी करनी पड़ती थी, लेकिन वह गांव में ही मिल जाती थी। समस्या तब शुरू हुई जब दस साल पहले बारिश ने धोखा देना शुरू किया। इससे पानी की कमी होने लगी। कुएं सूखने लगे और डीजल इंजन वाले पंप सेट से सिंचाई करने की हैसियत गांव के अधिकतर लोगों की नहीं थी। इसका सीधा असर खेती पर पड़ा और धीरे-धीरे खेतों की बुवाई कम होती गई। जमीन परती रहने के कारण गांव में काम मिलना बंद हो गया तो भुखमरी से बचने के लिए सुंदरलाल को गांव छोड़ना पड़ा। वे अब कानपुर के ईंट भट्ठों पर काम करने आ गए।
ईंट भट्ठे पर दो लोगों को एक दिन में 1,200 ईंटें बनाने पर मजदूरी मिलती थी 240 रुपए। इस कमाई से पेट तो भर जाता था लेकिन परिवार चलाने के लिए सिर्फ पेट भरना ही काफी नहीं होता। घर में दूसरी जरूरतें भी पड़ती हैं। शादियां और बीमारी उन वजहों में सबसे ऊपर हैं जिनमें सबसे अधिक खर्च होता है। सुंदरलाल की एक बेटी है और तीन बेटे। सात साल पहले जब खरेला में उन्होंने अपनी बेटी की शादी की तब सूखे का तीसरा साल था। उन्हें कर्ज लेना पड़ा था। वह तो किसी तरह चुक गया, लेकिन असली संकट तब सामने आया जब उनका छोटा बेटा बीमार पड़ा।
करण की उम्र 15 के आसपास है। लगभग एक साल पहले उसके बीमार पड़ने पर सुंदरलाल उसका इलाज कराने ग्वालियर और फिर झांसी लेकर गए। वे इस बीमारी से परिचित थे। यह उनके दोनों बड़े बेटों को भी हो चुकी थी। लेकिन झांसी के डॉक्टर करण को ठीक नहीं कर पाए। तब तक सुंदरलाल के सिर पर एक लाख रुपए का कर्ज चढ़ चुका था। आखिरकार वे करण को लेकर एक बाबा की शरण में गए।
करण की बीमारी अब कुछ ठीक है, लेकिन सुंदर अब इस दुनिया में नहीं हैं।
सुंदरलाल के भाई कल्लू उनके अंतिम दिनों को याद करते हुए बताते हैं, ‘वे हमेशा रोते रहते थे। बोलते थे कि पैसा बहुत खर्च हो गया। उन्हें टेंशन बहुत रहती थी।’
सुंदरलाल के लिए ये दिन बहुत यातनामय रहे थे। सूखे के कारण अपने हिस्से की डेढ़ बीघा जमीन में वे कुछ बो नहीं पा रहे थे। उनकी आय का एकमात्र जरिया दिहाड़ी मजदूरी था, जिसका कोई भरोसा नहीं था। गांव के दूसरे 75 प्रतिशत लोगों की ही तरह सुंदरलाल अब कर्ज के उसी जाल में फंस चुके थे जो कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता।
अपने घर के सूनेपन की आदत डालने की कोशिश करते हुए रामकली बुदबुदाती हैं, ‘सूखे और कर्ज ने उनकी जान ले ली। अगर बारिश हो रही होती तो शायद वे इतने निराश नहीं हुए होते। तब काम मिलने की उम्मीद थी। हमने पहले भी कर्ज चुकाए थे।’
कर्ज एक तरह से गांव के लोगों के लिए जीने की शर्त बन गए हैं। लेकिन गांव के अधिकतर लोगों के पास इतनी जमीन नहीं है कि बैंक से आसानी से कर्ज मिल सके। इसके अलावा, अगर जमीन हो भी तो बैंकों की दौड़ लगाना और अधिकारियों को कमीशन देना सबके बस की बात नहीं। फिर बैंकों के साथ एक और समस्या है। उनसे आपको जब जरूरत हो तब और बार-बार कर्ज नहीं मिल सकता। ऐसे में लोगों की आखिरी आशा गांव के महाजनों पर ही टिकी रहती है.
रामविशाल राजपूत रहते पवा में हैं, लेकिन वे पास ही के चितैयां गांव में स्थित प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं। वे गांव के उन लोगों में से एक हैं जिनसे सुंदरलाल ने कर्ज लिया था। किसी बाहरी व्यक्ति के सामने लोगों को कर्ज देने का राज खुल जाने के कारण वे थोड़ी झिझक में हैं और हमारे सवालों के जवाब देने के दौरान संभलने की कोशिश करते हैं, ‘मैंने सुंदर को तीन हजार रुपए दिए थे, क्योंकि उसका एलआईसी में बीमा था और उसकी किश्त जमा करने लायक उसके पास पैसे नहीं थे।’
रामविशाल उस समय एक मीटिंग में थे जब उन्होंने सुंदरलाल की मौत की खबर सुनी। उन्हें दुख तो हुआ था, लेकिन शायद वे अकेले आदमी थे,जिन्हें इसकी आशंका पहले से थी। मौत से 6 दिन पहले हुई अपनी आखिरी भेंट में सुंदरलाल ने उनसे बैंक में जमा अपने रुपए के बारे में पूछा था। वे बताते हैं, ‘सुंदर के बैंक खाते में 20 हजार रुपए थे। उसने पूछा था कि अगर उसने आत्महत्या कर ली तो उसके खाते में जमा रकम उसके परिवार को मिल पाएगी कि नहीं। वह बहुत परेशान था। उसका दिमाग खराब हो गया था। मैंने समझाया कि ऐसा नहीं करना, नहीं तो पैसे डूब जाएंगे।’
रामविशाल ऐसा जताते हैं कि उन्हें चिंता अपने पैसों के डूब जाने की नहीं, लोगों के बरबाद होने की अधिक है। वे जबर्दस्ती की मुस्कान के साथ कहते हैं, ‘इन लोगों के करम ही ऐसे हैं कि ये हमेशा कर्ज में बने रहेंगे। ये जुआ खेलकर अपने पैसे बरबाद कर देते हैं और फिर शादी-ब्याह के लिए कर्ज में फंसते हैं।’
लेकिन जो सवाल हैं वे रामविशाल की चिंता से कहीं अधिक जटिल हैं। ये वे सवाल हैं जो बुंदेलखंड के सात जिलों के लाखों किसानों की जिंदगी से जुड़े हैं। यह उनकी खुशहाली और उनके सपनों से जुड़े सवाल हैं। इन सवालों का संबंध उन योजनाओं के औचित्य से है जो इन जिलों में सूखे से निपटने के नाम पर चलाई जा रही हैं। इन सवालों का संबंध उन पागलपन भरी नीतियों से भी है जो सूखे से हो रही भारी तबाही के बावजूद इसकी वजहों को और बढ़ावा दे रही हैं। इसका संबंध समाज की उस उत्पीड़क व्यवस्था से भी है जो पानी की कमी को कुछ समुदायों के लिए अधिक तकलीफदेह बना रही है। सबसे बढ़कर ये सवाल सरकार की कार्यप्रणाली और जनता की भलाई को लेकर उसकी मंशा से जुड़े हुए हैं। आने वाले पन्नों में हम इन सवालों को समझने और सुलझाने की कोशिश करेंगे। हम यह भी देखने की कोशिश करेंगे कि जिस व्यवस्था पर अपनी योजनाओं के जरिए बुंदेलखंड को मिले पैकेज से लोगों को राहत दिलाने का जिम्मा है वह उसके साथ कैसे पेश आती है जो उसका लाभ उठाना चाहता है।
5000 किसानों ने पांच साल में बुंदेलखंड में आत्महत्या की है। अधिकतर मामलों की वजह किसानों द्वारा कर्ज न चुका पाना है। बांदा में80 से अधिक और महोबा में 62आत्महत्याओं के मामले हमारी कहानी में जो शब्द बार-बार आएगा वह है बुंदेलखंड। लेकिन यह महज एक शब्द नहीं है। यह मध्य भारत के दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में फैला एक विशाल पठारी इलाका है, जो लगभग श्रीलंका के बराबर है। यहां करीब 70 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में 2 करोड़ 10 लाख की आबादी रहती है। उत्तर प्रदेश में इसके सात और मध्य प्रदेश में छह जिले आते हैं। जो जिले उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में पड़ते हैं वे हैं- झांसी, महोबा,हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर और ललितपुर। बुंदेलखंड का जितना हिस्सा उत्तर प्रदेश में है उसमें दिल्ली जैसे 20 शहर समा सकते हैं।
बुंदेल, चंदेल, छत्रसाल और झांसी की रानी लक्ष्मी बाई जैसे शासकों के कारण मशहूर रहा यह इलाका अब भी आल्हा-ऊदल की यादों में जीता है। महोबा के चंदेल राजा परमाल के दरबार के इन दो योद्धाओं को महोबा ही नहीं, बुंदेलखंड के किसी भी शहर और कस्बे में निकल जाइए, आप एक मिनट के लिए भी भूल नहीं सकते। चौराहों और इमारतों पर उनकी वीरता के किस्से बताती प्रतिमाएं और प्रतीक चिह्न मिलेंगे। बाहर से आए किसी आदमी से बात करते हुए यहां के लोग आल्हा-ऊदल का जिक्र जरूर करते हैं।
अब इसमें एक चीज और जुड़ गई है - सूखा।
पिछले एक दशक से अधिक समय से बुंदेलखंड लगातार सूखा झेल रहा है। 2008 को छोड़कर जब इस इलाके में पर्याप्त बारिश हो गई थी, इस दौरान यहां औसत से बहुत कम बारिश हुई है। महोबा जैसे जिले में तो 2008 में औसत से 66 प्रतिशत कम बारिश हुई थी। सूखे की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक सर्वेक्षण के अनुसार बुंदेलखंड के अधिकतर किसान पिछले साल खरीफ फसल की अपनी लागत भी हासिल नहीं कर पाए। एेसे में, जब इलाके की 80 फीसदी आबादी खेती और पशुपालन से होने वाली आय पर निर्भर है, खेती चौपट होने के कारण आपदा जैसी स्थितियां तो बननी ही हैं।
सूखा बुंदेलखंड के लोगों के लिए नई बात नहीं है, नई बात जो है वह है इससे होने वाली तबाही। सूखे ने उत्तर प्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड की आधी से ज्यादा खेती को तबाह कर दिया है। गहराते सूखे को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2008 में नेशनल रेनफेड एरियाज अथॉरिटी के जेएस सामरा के नेतृत्व में एक केंद्रीय टीम गठित की थी। 2008 में आई उसकी रिपोर्ट के अनुसार 19वीं और 20वीं शताब्दी के 200 वर्षों में इस इलाके में केवल 12 वर्ष सूखा पड़ा था। यानी इस अवधि में सूखा पड़ने का औसत हर 16 वर्ष में एक बार का था। लेकिन 1968 से लेकर पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में औसतन पांच साल में एक बार सूखा पड़ने लगा। और अब तो पिछले दस साल से बुंदेलखंड पानी की बूंद-बूंद को तरस रहा है।
सूखे के लंबे इतिहास को देखते हुए यहां कुछ दशक पहले तक तालाबों, कुओं और हौजों का जाल बिछा हुआ था। पानी के ये पारंपरिक स्रोत दो तरह से काम करते थे। एक तो इनसे साल भर पानी मिलता था, दूसरे बारिश का पानी इनके जरिए भूमिगत जल को बढ़ाता था। लेकिन पिछली आधी सदी से भी अधिक समय से इन ढांचों पर ध्यान देना बंद कर दिया गया, जिसने इस पूरे तंत्र को ध्वस्त कर दिया। स्थानीय जरूरतों पर ध्यान नहीं दिया गया और आंख मूंदकर नई तकनीक को अपनाया गया।ललितपुर जिले में इस विडंबना का सबसे बड़ा उदाहरण देखने को मिलता है। यहां छोटे-बड़े कुल सात बांध और पांच निर्माणाधीन बांधों के चलते यह जिला एशिया का वह इलाका है जहां बांधों की सघनता सबसे ज्यादा है। बावजूद इसके यहां कृषियोग्य भूमि का एक छोटा-सा हिस्सा ही सिंचित हो पाता है। राजस्व विभाग के आंकड़े बताते हैं कि जिले में पिछले साल कुल 3.4 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में से सिर्फ 27 हजार हेक्टेयर भूमि को ही इन बांधों से पानी मिल पाया था।
महोबा के इतिहास पर किताब लिखने वाले बुजुर्ग समाजसेवी वासुदेव चौरसिया पुराने दिनों को याद करते हैं, ‘पहले पानी की कमी होने पर लोग कुआं खोदते थे। यह पानी के उचित इस्तेमाल और फिर से रिचार्ज करने के नियम पर काम करता था। लेकिन अब झट से एक हैंडपंप लगा दिया जाता है।’
अकेले महोबा शहर में ही बासुदेव चौरसिया की बात को सही ठहराने के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। एेसे अनेक कुएं हैं जो पहले पानी के अच्छे स्रोत हुआ करते थे, लेकिन अब उनके पास हैंड पंप लगा दिए जाने के कारण वे सूख गए हैं। महोबा शहर को मदन सागर जैसे तालाबों के अलावा मदनौ और सदनौ दो कुओं से पानी मिला करता था। मदनौ कुआं अब ढक दिया गया है और सदनौ कुएं पर अतिक्रमण करके घर बना लिया गया है।
मदन सागर महोबा शहर के एक छोर पर स्थित है। यह शहर के किनारों पर बने और आपस में नहरों के जरिए जुड़े चार तालाबों में से सबसे बड़ा है,जिसपर यह शहर पीने के पानी के लिए पिछले 900 साल से निर्भर था। यह तालाब अपने इतिहास में कभी नहीं सूखा, लेकिन 2007 में वह भी सूख गया। पानी की आपूर्ति बनाए रखने के लिए तालाब में एक नहर के जरिए मध्य प्रदेश के उर्मिल बांध से पानी लाया जाता है, पर इस साल उर्मिल बांध भी सूख गया है।
यही हाल कीरत सागर तथा दूसरे सागरों का भी है। उनको आपस में जोड़ने वाली नहरें कूड़े से भरी हुई हैं, इसलिए बाहर के पानी के तालाबों में आने की संभावना कम ही है। केवल उनके पेंदे में थोड़ा-बहुत पानी बचा रह गया है, जिससे शहर के लोगों को पानी की आपूर्ति हो रही है। अगर बारिश नहीं हुई तो कुछ दिनों में यह पानी भी खत्म हो जाएगा। तब शहर के लोगों को सिर्फ टैंकरों का आसरा रह जाएगा।
सरकारी टैंकरों की संख्या पर्याप्त नहीं होती और लोग प्रायः निजी टैंकरों पर निर्भर रहते हैं, जो महंगे पड़ते हैं। इनपर प्रतिमाह करीब 1,000-1,200रुपए खर्च करने पड़ते हैं। यह रकम आधिकारिक गरीबी रेखा के चार गुणा से थोड़ा ही कम है। जाहिर है, बहुसंख्यक आबादी के लिए टैंकर का पानी भी दुर्लभ है।
जब शहरों का यह हाल है तो गांवों में तो स्थिति और भी भयावह है। जालौन स्थित परमार्थ समाज सेवी संस्थान द्वारा लगभग 2 साल पहले जालौन, बांदा, महोबा, हमीरपुर, ललितपुर, झांसी और चित्रकूट के 119 गांवों में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इनमें से सिर्फ 7 प्रतिशत (आठ गांवों) में साल भर पीने का पानी रहता है, जबकि 74 गांवों में सिर्फ एक महीने पीने का पानी मिलता है। पानी के लिए महिलाओं को घंटों पैदल चल कर जाना होता है। इसके अलावा गांवों के सामंती ढांचे के कारण सूखे से दलितों और दूसरी नीची जातियों के लिए संकट और बढ़ गया है।
58% कर्ज निजी स्रोतों से लिए जाते हैं जिनमें सूदखोर भी शामिल हैं। किसानों पर 1 अरब 25 करोड़ 47लाख रुपए का सरकारी कर्ज भी है। सहकारी समितियों ने भी एक अरब रुपया से अधिक का कर्ज दियाऐसा नहीं है कि सरकार ने पेयजल पर खर्च नहीं किया है। 2008 में आई वाटरएड इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश सरकार ने बुंदेलखंड में लोगों को पीने का पानी मुहैया कराने और मिट्टी के संरक्षण के लिए 2002 से 2007 के बीच 29,2.50 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। लेकिन ठीक इसी अवधि में पीने के पानी का संकट भी बढ़ा है। हम इसे उक्त रिपोर्ट में ही देख सकते हैं। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के 7 जिलों के 60 गांवों में चर्च्स ऑक्जिलियरी फॉर सोशल एक्शन (कासा) तथा जनकेंद्रित विकास मंच द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक आधे से अधिक जल स्रोत सूख गए हैं या बेकार पड़े हैं। इसके आंकड़ों के अनुसार 486 कुओं, 56 तालाबों में से क्रमशः 266 कुएं, 29 तालाब बेकार पड़े हुए हैं। बारिश के न होने के अलावा एक बड़ा कारण इनकी मरम्मत का न होना है।
अगर हम इस आंकड़े में कुछ और तथ्यों को जोड़ दें तो यह हमें पानी के अभाव से जुड़ी दूसरी सबसे बड़ी समस्या की ओर ले जाएगा। उक्त सर्वेक्षण हमें यह भी बताता है कि इन इलाकों की 6 नदियों और 26 नालों में से 4 नदियां और 25 नाले सूखे और बेकार पड़े हैं या उनपर अतिक्रमण हो चुका है। इस बीच सरकारी खर्च कई गुणा बढ़ा है, पर हालात और खराब हुए हैं। इसलिए आज बुंदेलखंड में पेयजल के बाद दूसरी सबसे बड़ी समस्या सिंचाई के पानी की है।
ललितपुर का उदाहरण हमारे सामने है ही और यदि महोबा के अर्जुन सागर बांध की हालत भी देख ली जाए तो यह साफ हो जाता है कि सरकार पैसा चाहे कितना भी खर्च करे लेकिन किसानों की वास्तविक समस्या हल हो ही यह कतई जरूरी नहीं है। यह बांध 1950 के दशक में बना था और इससे कुल 26,551 हेक्टेयर इलाके की सिंचाई हो सकती है। अप्रैल से पहले इसके फाटकों में ग्रीजिंग हो जानी चाहिए थी ताकि जब बारिश हो और पानी आए तो कोई दिक्कत न हो। लेकिन देखने से लगता है कि इसके फाटकों को वर्षों से किसी ने छुआ तक नहीं है। फाटकों और दूसरे उपकरणों में जगह-जगह जंग लगी हुई है और उन्हें देखकर ही समझ आ जाता है कि एक लंबे समय से इसकी ओर कोई सरकारी कर्मचारी फटका भी नहीं है। वैसे भी,पानी की कमी के कारण पिछले साल बांध से एक एकड़ खेत की भी सिंचाई नहीं हो सकी थी। बांध इस हद तक खाली रहता है कि इसके भीतर लोगों ने खेत बना लिए हैं। कमोबेश यही हाल दूसरी योजनाओं का भी है।