नहर का पानी खा गया खेती

Submitted by admin on Sun, 02/06/2011 - 10:53
वेब/संगठन
शारदा सहायक नहरशारदा सहायक नहरअपनी फूस की झोंपड़ी में गरमी से परेशान छोटेलाल बात की शुरुआत आसान हो गई खेती के जिक्र से करते हैं. वे कहते हैं, ‘पानी की अब कोई कमी नहीं रही. नहर से पानी मिल जाता है तो धान के लिए पानी की दिक्कत नहीं रहती.’

पास बैठे रामसरूप यादव मानो एक जरूरी बात जोड़ते हैं, ‘अब बाढ़ का खतरा कम हो गया है.’
राजरानी इलाके में खर-पतवार के खत्म होने का श्रेय नहर को देती हैं.

लेकिन छोटेलाल ने बात अभी खत्म नहीं की है. उनका सुर भी अब थोड़ा बदल रहा है, ‘गेहूं की फसल लेकिन अब खराब हो गई है. राशन से गेहूं न मिले तो गेहूं के दर्शन नहीं होते. जिनके पास कार्ड नहीं हैं उनकी दशा और खराब है.’

धीरे-धीरे उनकी आवाज में नाराजगी बढ़ रही है, ‘पहले अच्छी फसल होती थी. नहर ने खेती बरबाद कर दी. सीलन से नहर के पासवाली जमीनें खराब हो गई हैं. पहले धान, गेहूं, अरहर, साग-सब्जी हो जाती थी, अब जैसे-तैसे धान ही हो पाता है. गेहूं तो होता ही नहीं.’

आखिर में छोटेलाल सबसे मतलब की बात पर आते हैं, ‘जब से शारदा आई है मेरी 15-16 बिस्वा जमीन बेकार पड़ी है. याद ही नहीं उसमें कब फसल बोई गई थी.’

वे शारदा सहायक नहर की बात कर रहे हैं, जो रायबरेली जिले में अमावां प्रखंड के उनके गांव खुदायगंज के दक्षिण से होकर गुजरती है.

उत्तर प्रदेश के 16 जिलों से होकर गुजरने वाली शारदा सहायक नहर का उद्देश्य 150 प्रखंडों में 16.77 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई करना था. मगर देश की प्रमुख नहरों में से एक यह नहर अपने लिए तय लक्ष्य के आधे से भी कम यानी 48 प्रतिशत को ही पूरा कर सकी है. 2000 में पूरी हुई 260 किमी लंबी इस नहर के हिस्से उपलब्धियों से अधिक नाकामियां ही दर्ज हैं. इसने खाद्यान्न उत्पादन से होनेवाली आय में 33 प्रतिशत और तिलहन के उत्पादन से आय में 84 प्रतिशत की बढ़ोतरी भले दर्ज कराई है लेकिन दालों, सब्जियों और बागबानी से होनेवाली आय में क्रमशः 60, 6 और 15 प्रतिशत की गिरावट आई है.

एक ऐसे देश में, जहां लगभग 59 प्रतिशत आबादी की आजीविका का मुख्य साधन खेती है, सिंचाई की सुविधा सीधे-सीधे भूख, गरीबी, खाद्य सुरक्षा तथा देश और किसानों की खुशहाली से जुड़ी हुई है. लेकिन देश में खेती के काम में लाई जा रही कुल भूमि के लगभग 42 फीसदी हिस्से की ही सिंचाई हो पाती है. इसमें से भी सिंचाई की 60 प्रतिशत जरूरत भूमिगत जल से पूरी की जाती है और सिर्फ 28.2 प्रतिशत भूमि की नहरों से सिंचाई की जाती है.

देश के सबसे बड़े राज्यों में शुमार उत्तर प्रदेश की भी बहुसंख्यक आबादी खेती पर निर्भर है. लेकिन उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग की वेबसाइट बताती है कि राज्य में में कुल बोई जा रही भूमि का महज 56.8 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित इलाके के तहत आता है. यहां सिंचाई की ऐसी स्थिति इसके बावजूद बनी हुई है कि राज्य में शारदा नहर, शारदा सहायक जैसी बड़ी सिंचाई परियोजनाएं दशकों से चल रही हैं.

शारदा सहायक नहर मूलतः शारदा नहर परियोजना से जुड़ी हुई है, जिसकी शुरुआत 1926 में हुई थी. शारदा नहर को मौजूदा उत्तराखंड के नैनीताल में स्थित अपर शारदा बैराज से पानी मिलता है. इस नहर का लक्ष्य केंद्रीय और पूर्वी उत्तर प्रदेश के 15 जिलों को सिंचाई की सुविधा मुहैया कराना था, लेकिन यह केंद्रीय उत्तर प्रदेश के सिर्फ 10 जिलों को ही लाभ मिल पहुंचा सकी. चार दशकों के बाद पाया गया कि यह नहर अपने लक्ष्य के महज 19 प्रतिशत इलाके को ही सिंचित कर पाने में सक्षम थी. 1960 के दशक में हरित क्रांति के दौरान पानी की अधिक जरूरतोंवाली फसलों का चलन शुरू किया गया तो पहले से ही लक्ष्यों से काफी पीछे चल रही यह नहर नई मांग को पूरा कर पाने में नाकाम थी. और तब 1968 में शारदा सहायक नहर परियोजना पर काम शुरू हुआ.

लेकिन समस्या सुलझने के बजाय और उलझती गई. सहायक परियोजना भी सुस्त रफ्तार, आधी-अधूरी कामयाबी और नुकसानदेह नतीजों की मिसाल बन गई. इस पर 32 साल की लंबी अवधि और अनुमान से 20 गुना अधिक (1300 करोड़) रुपये खर्च हुए. हालांकि इसपर बनी छोटी नहरों और उपशाखाओं के 15000 किमी लंबे जाल के जरिए इलाहाबाद, रायबरेली, सुल्तानपुर, बाराबंकी, जौनपुर, प्रतापगढ़ में किसानों को तो पर्याप्त पानी मिल जाता है, पर अंबेडकर नगर, फैजाबाद, मऊ, सीतापुर और वाराणसी में किसानों को जरूरत का पांचवा हिस्सा भी दुश्वार है. बलिया, गाजीपुर और लखनऊ में होनेवाली कुल सिंचाई में शारदा सहायक का योगदान महज 20 फीसदी ही है.

लेकिन यह नुकसान भी उतना बड़ा नहीं लगेगा, अगर हम जमीन पर इससे हो रही सिंचाई के नुकसानदेह नतीजों पर गौर करें. अच्छी खेती के सपनों को दुस्वप्न में तब्दील करने में इस नहर ने चार लंबे दशक लिये हैं.

खुदायगंज के रामनारायण ने सपनों को दुस्वप्न बनते देखने में अपनी उमर गुजार दी है. जब वे केवल 8-9 साल के थे, तो यह नहर बननी शुरू हुई थी. तब उनके घरों में किन्हीं परीकथाओं की तरह नहर का जिक्र छिड़ता था. नहर में बीघा भर जमीन चली जाने के बाद भी ऐसी कहानियों में कमी नहीं आई. यह उम्मीद बनी रही कि पानी आने के बाद बाकी जमीन में इतनी उपज होगी कि इसकी भरपाई हो जाएगी.

रामनारायण आज अपने जीवन के पांचवें दशक में हैं और अपनी बची हुई जमीन की ओर निराशा से इशारा करते हुए कहते हैं, ‘इसमें अब खाली धान होता है. सीलन के कारण गेहूं की फसल खराब हो जाती है. धान में भी अक्सर कोई न कोई रोग लग जाता है और सीलन अधिक हुई तो जड़ें सड़ने से पूरी फसल मारी जाती है. जब नहर नहीं थी तो यहां अरहर और गेहूं की अच्छी-खासी उपज हो जाती थी. लेकिन अब कुछ भी नहीं होता. कितनी भी मेहनत करो पर बीघे में तीन क्विंटल धान भी नहीं होता.’

जलजमाव और सीलन यहां की बड़ी समस्याएं हैं. पानी आने पर नहर का पानी रिस कर आसपास के बड़े इलाके में फैल जाता है. पर्याप्त नहरों और नालियों के अभाव में इसकी निकासी नहीं हो पाती जिसके कारण कम पानीवाली फसलें तबाह हो जाती हैं. नहर के कुल कमांड एरिया के 3.4 प्रतिशत में पानी जमा है. शारदा नहर परियोजना से जुड़े अधिशासी अभियंता हबीब अहमद खान बताते हैं कि अकेले रायबरेली जिले में करीब 2000 हेक्टेयर जमीन पर जलभराव की स्थिति है और यह रकबा बढ़ने की ही आशंका है. वे कहते हैं, ‘शारदा सहायक जैसी नहरों के साथ सीलन और जलजमाव बड़ी समस्या है, क्योंकि ये खोदने की बजाय बांध भर कर बनाई गई हैं.’ वे कागज पर एक नक्शा बनाते हुए बताते हैं कि किस तरह रिसाव से बचने के लिए बांध पर वैकल्पिक अस्तरों की व्यवस्था की जा रही है.

लेकिन यह अकेली समस्या नहीं है. इस नहर की दूसरी सबसे बड़ी समस्या इसकी गाद है. खेतों में पानी के साथ पहुंची गाद ने उपज पर तो खासा असर डाला ही है, नहर की पानी ले जाने की क्षमता को भी घटा कर आधा कर दिया है. नहर का केवल 56 प्रतिशत पानी ही खेतों तक पहुंच पाता है. खान अपने दफ्तर के रजिस्टर से जो आंकड़े हमें देते हैं, वे बड़ी नहरों के प्रति आकर्षण से बाहर निकाल लाने के लिए काफी हैं. उनके अनुसार जिले में शारदा सहायक का कुल कमांड एरिया 2 लाख 97 हजार 538 हेक्टेयर है, लेकिन यहां सिंचाई का प्रस्तावित अनुमान 1 लाख, 37 हजार, 722 हेक्टेयर का ही है. वे बताते हैं कि नहर का सिंचित रकबा भी निरंतर घटता जा रहा है. इसकी अनेक वजहों में से एक सिल्टिंग है.

खुदायगंज के दक्षिण में नहर के उस पार परती (खाली पड़े) खेतों की कतारों में कास के पौधे तेज हवा में हिल रहे हैं. इन खेतों में खुदायगंज के चंद्रप्रकाश के 5 बीघे खेत हैं. सूरजबली और संतोष सिंह जैसे दूसरे दर्जनों लोगों के खेत भी परती पड़े हैं. नहर से लगे होने के बावजूद इनमें पानी नहीं पहुंच पाता. जब नहर नहीं थी तो इनकी सिंचाई होती थी, लेकिन अब उन तक पानी पहुंचानेवाली छोटी नहर (माइनर) का रास्ता शारदा सहायक नहर ने रोक दिया है. रामस्वरूप यादव बताते हैं कि हिलगी, गोहन्ना, कासो जैसे दर्जनों गांवों में हजारों बीघा परती पड़ी जमीन को इस नहर से कोई फायदा नहीं हुआ है. वे पहले भी परती थीं और अब भी वहां पानी नहीं पहुंच पाता.

बहुत सारी जमीन परती पड़ी हुई है और जिस जमीन पर खेती हो रही है, वह भी खर्चीली है. नहर के कमांड एरिया में में महंगे खाद, खर-पतवारनाशी तथा कीटनाशकों का उपयोग बढ़ा है. साथ में कटाई के बाद की प्रक्रियाओं के लिए किसान जिन परंपरागत तकनीकों और उपायों का उपयोग करते थे, उनकी जगह पिछले तीन दशकों में मशीनों ने ले ली है. मशीनें (ट्रैक्टर, थ्रेसर आदि) संपन्न किसानों के पास ही होती हैं, जिनके उपयोग करने का खर्च किसान किराये के रूप में अपनी उपज में से ही देते हैं. इसका मतलब है कि पिछले तीन-चार दशकों में इस इलाके में खेती और उपज का तो पर्याप्त विकास नहीं हुआ है, लेकिन मशीनों, महंगे रसायनों और कथित आधुनिक तकनीक के बढ़े चलन के कारण छोटे और भूमिहीन किसानों की उपज का अच्छा-खासा हिस्सा संपन्न किसानों (और सूदखोरों, जो प्रायः संपन्न किसान ही होते हैं) के पास चला जा रहा है. इससे विकास के तमाम दावों के बावजूद किसानों की आय जस की तस बनी हुई है.

योजना आयोग ने तीन साल पहले शारदा सहायक नहर का मूल्यांकन करते हुए एक रिपोर्ट (इवैल्यूएशन स्टडी ऑफ शारदा सहायक परियोजना) जारी की थी. रिपोर्ट में यह आंख खोल देनेवाली सूचना दी गई थी कि कमांड एरिया में रहनेवाले लोगों की तुलना में इससे बाहर रहनेवाले लोगों की संपत्ति में अधिक वृद्धि हुई है. योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार नहर का लाभ उठा रहे किसानों की खेती से आय में महज 0.68 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. आमदनी ठहरी हुई है, महंगाई बढ़ रही है और खेती की लागत भी. इसने किसानों को कर्जे की तरफ धकेल दिया है. नहर के कमांड एरिया में किसान अपनी औसत वार्षिक आय के 13 प्रतिशत के बराबर कर्ज लेते हैं. खुदायगंज के रामप्रसाद ने कुछ साल पहले जिला सहकारी बैंक से खाद-बीज खरीदने के लिए 1200 रुपए कर्ज लिए थे. समय पर कर्ज नहीं चुका पाने के कारण बैंक के कर्मचारी तगादे पर आने लगे जिनके आने-जाने का खर्च भी रामप्रसाद को देना पड़ता था. आखिरकार कर्मचारी एक दिन रामप्रसाद को पकड़ कर ले गए और उन्हें 15 दिन जेल में रहना पड़ा. छूट कर आने के बाद मजदूरी करके रामप्रसाद ने कर्ज की रकम लौटाई. लेकिन आमदनी का दूसरा कोई जरिया नहीं होने के कारण उन्होंने एक बार फिर से खेती के लिए 2700 रुपये कर्ज लिये हैं. वे चाहते हैं कि उनके दोनों बेटों को नरेगा में काम मिले, लेकिन मांगने के बावजूद उन्हें प्रधान ने जॉब कार्ड तक नहीं दिया है.

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) को ग्रामीण इलाकों की सारी समस्याओं की अकेली दवा के रूप में पेश किया जाता है. लेकिन जैसी मनमानी और धांधली इस योजना में व्याप्त है, वह समस्या को और गंभीर बना रही है. अधिकतर सुधार और मरम्मत कार्यों की राशि अब इस योजना के जरिए आती है, लेकिन यह राशि व्यवस्थित भ्रष्टाचार के जरिए सरकारी अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों द्वारा हड़प ली जा रही है.

खुदायगंज की राजरानी के बेटे के पास जॉब कार्ड है, लेकिन तीन-चार बार प्रधान से मांगने के बावजूद उन्हें काम नहीं मिला. वे बताती हैं, ‘वे कभी मना नहीं करते, लेकिन बताते भी नहीं कि कहां काम करने जाया जाए. जब वे बताएंगे ही नहीं कि कहां काम करने जाना है तो हम काम कहां करेंगे?’ राजरानी का बेटा कभी मजदूरी करने ‘पांच कोस दूर’ बरेली और दूसरे बाजारों में जाता है.

छोटेलाल भी जॉब कार्ड होने के बावजूद नरेगा का काम करने के बजाय कहीं और मजदूरी करना अधिक पसंद करते हैं. वे कहते हैं कि एक तो बड़ी मुश्किल से नरेगा का काम मिलता है, ऊपर से यहां मजदूरी कम से कम 15 दिनों के बाद मिलती है और बैंक मैनेजर इसके लिए दबाव डालते हैं कि वे खाते में एक हजार रुपए हमेशा रखें, जबकि दूसरी जगह काम करने पर तत्काल मजदूरी मिल जाती है. छोटेलाल ने नरेगा के तहत पांच महीने पहले कुछ काम किया था, जिसके 500 रुपये अब तक नहीं मिले हैं. छोटेलाल पूछते हैं, ‘नरेगा में काम करेंगे तो हमारे बच्चे क्या खाएंगे?’

पखनपुर गांव के रमेश कुमार को जॉब कार्ड मिला है, जिसके बाद उन्होंने कुछ दिन काम भी किया है, लेकिन उनकी समस्या कुछ अजीब है. नया जॉब कार्ड मिलने पर उन्होंने पाया कि उस पर कई दिनों के काम की सूचना पहले से चढ़ी हुई है, जबकि उन तिथियों को उनके पास जॉब कार्ड था ही नहीं. शिकायत करने पर भी उनकी नहीं सुनी गई. वे बताते हैं कि इस साल कुल मिला कर उन्होंने 32 दिन का काम किया है और साल में 35 दिन से अधिक का काम नरेगा से हासिल नहीं होता. उन्हें वह भत्ता भी नहीं मिलता- और यह बात पखनपुर तथा खुदायगंज दोनों गांवों के जॉब कार्डधारियों के लिए सही है- जिसके काम नहीं मिलने की स्थिति में दिये जाने का प्रावधान है.

नहर के कमांड एरिया में एक और समस्या प्रदूषित भूमिगत जल की है. पखनपुर गांव की एक हजार से अधिक की आबादी में 7 लोग विकलांग हैं. 45 वर्षीय किसान रामसनेही इंडिया मार्का हैंडपंपों का जिक्र ऐसे करते हैं, मानो वे किसी विश्वासघात का जिक्र कर रहे हों. वे कहते हैं, ‘इन हैंडपंपों तक में नमक जैसा खारा और बदबूदार पानी आता है, जिसे पीना नामुमकिन है.’ हालांकि इसका पता लगाया जाना बाकी है कि इस समस्या में नहर के पानी का कितना योगदान है.

यहीं के 70 वर्षीय रामआसरे दमे से फूलती सांसों को काबू में रखते हुए पूछते हैं, ‘खेत ऊसर पड़े हैं, राशन की दुकानों से कुछ मिलता नहीं है. आखिर क्या करे आदमी?’

लेकिन ऐसा नहीं है कि नुकसान सबके हिस्से बराबर आया है. खुदायगंज के लोगों का अनुभव है कि जिन लोगों की जमीन नहर में नहीं गई, सीलन से खराब नहीं हुई या जिनके पास काफी जमीन है, उन्हें नुकसान कम हुआ है. वे बड़ी जोतवालों की बात कर रहे हैं, जिनके पास ट्रैक्टर हैं और जो संपन्न हैं. खुदायगंज में तीन लोगों के पास ट्रैक्टर हैं और उन्हें खेती खराब होने पर भी मजदूरी करने नहीं जाना पड़ता. भूमि सुधार नहीं होने के कारण इस इलाके में भूमि का असमान वितरण भी खेती पर बुरे असर छोड़ रहा है. थोड़े से लोग अधिकतम जमीन पर कब्जा जमाए बैठे हैं (यह तथ्य कहीं और से नहीं, योजना आयोग की उक्त रिपोर्ट से उद्धृत किया गया है) और आबादी के बड़े हिस्से के पास या तो बहुत थोड़ी जमीन है या वह बंटाईदारी या खेतों में मजदूरी करके गुजर करती है. एसे में जब फसल खराब होती है तो सारा नुकसान छोटे किसानों, बंटाईदारों को ही होता है. अगर किसी छोटे किसान या बंटाईदार ने खेती के लिए कर्ज ले लिया तो उसकी बरबादी भी तय है. उसे अपने परिवार का पेट भरने और कर्जे चुकाने के लिए अलग से मजदूरी करनी पड़ती है.

घाटे में चल रही खेती, खराब होती फसलों और कर्जे ने लोगों को खेती छोड़ने पर मजबूर किया है. इसका परिणाम खेती के लिए उपयोग में लायी जानेवाली जमीन में कमी के रूप में सामने आया है. योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार शारदा सहायक के कमांड एरिया में 1980 से 2004 के बीच खेती के तहत भूमि में खासी कमी आई है. इसने इलाके से पलायन को जन्म दिया है जिससे दिल्ली, मुंबई में झुग्गियों की संख्या तो बढ़ी ही है, सीतापुर-बरेली और रायबरेली के कैसरगंज की मजदूर मंडियों में भारी भीड़ दिखने लगी है.

यह इलाका कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का संसदीय क्षेत्र है और नहर के बारे में बढ़ रही शिकायतों के बाद इस साल फरवरी में केंद्र सरकार ने 319 करोड़ रुपयों का विशेष पैकेज नहर की सफाई और गाद निकालने के लिए दिया है. हो सकता है कि इससे किसानों को तत्काल कुछ राहत मिल जाए, लेकिन समस्या इससे कहीं अधिक गहरी और नीतियों से जुड़ी हुई है. मिसाल के तौर पर योजना आयोग की रिपोर्ट में राज्य के सिंचाई अधिकारियों द्वारा लागत को कम करने के लिए नहर परियोजना के कर्मचारियों में कटौती की सिफारिशों का जिक्र किया गया है. लेकिन जमीनी चुनौतियों और नहर की अधूरी कामयाबी को देखते हुए कर्मचारियों और खर्च में कटौती और बड़े नुकसानों को जन्म दे सकती है.

खान बताते हैं कि अकेले उनके डिवीजन में जूनियर इंजीनियरों के 20 में 11 पद खाली हैं. परियोजना से जुड़े एक इंजीनियर ने गुमनाम रहने की इच्छा के साथ बताया कि नहर की कार्यक्षमता पर असर इसलिए भी पड़ा है क्योंकि रख-रखाव के लिए पहले जो पैसा मिलता था, उसमें 80 प्रतिशत तक कमी आई है.

लेकिन इलाके के किसानों की समस्याओं और नहर की अधूरी कामयाबी को सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही, खर्चे में कटौती और समस्याओं की अनदेखी जैसी जानी-पहचानी शब्दावलियों के भरोसे नहीं समझा जा सकता है. दरअसल ये नतीजे हैं, वजहें नहीं. ये नतीजे हितों की पहचान, नीतियों के निर्धारण और योजनाओं के निर्माण की प्रक्रिया और इनके निर्माताओं के चरित्र के अनुसार जन्म लेते हैं. जब व्यवस्था जनता के हित में काम नहीं कर रही हो, जब नीतियों के निर्माण में और उन्हें लागू करने में जनता की न तो भागीदारी हो और न उसकी जरूरतों और विकास की अवस्थाओं का ख्याल रखा जाता हो तो एसे ही नतीजे पैदा होते हैं जो दरअसल व्यापक नुकसान पर परदा डालने के लिए काम में लाए जाते हैं. हम एक ऐसी व्यवस्था में रह रहे हैं, जहां जनता के हितों के बजाय बड़े कारपोरेट घरानों और देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को तरजीह देते हुए योजनाएं बनाई और लागू की जाती हैं.

सिर्फ वैश्वीकरण ही नहीं, बल्कि पहली पंचवर्षीय योजना के समय से ही भारत की सरकारें समानतापरक आत्मनिर्भर विकास के बजाय ऐसी बड़ी और महंगी परियोजनाएं अपनाती रही हैं, जिनमें तकनीकी और धन का आयात करना पड़ता है और जिनका लाभ या तो संदिग्ध होता है या जिनसे भारत की बड़ी (और दयनीय रूप से पिछड़ी) आबादी को कोई फायदा नहीं मिलता. इनका फायदा योजना से जुड़े ठेकेदारों, कंपनियों, प्रायोजकों, कर्जदाताओं, संपन्न किसानों और बड़े पूंजीपतियों को ही होता है. लेकिन तकनीक को खरीदने और भीमकाय परियोजनाओं पर खर्च के लिए रकम कर्ज के रूप में ली जाती है, जिसे या तो बहुसंख्यक आबादी से अप्रत्यक्ष करों के जरिए हासिल रकम से चुकाया जाता है या नये कर्जे लिये जाते हैं.

इन नीतियों ने आम जनता से उसकी मेहनत की कमाई निचोड़ कर संपन्न किसानों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, उनके देसी दलालों और विश्व बैंक को फायदा पहुंचाया है और देश को कर्जे के जाल में फंसा कर उसे विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के जरिए अमेरिकी और दूसरे साम्राज्यावादी देशों द्वारा समर्थित नीतियों को मानने को मजबूर किया है, जो हमारे देश में कृषि ही नहीं, जन जीवन को प्रभावित करनेवाले हर क्षेत्र के लिए विध्वंसक नतीजे लेकर आए हैं.

खेती के क्षेत्र में ही, जहां जमींदारी के दिखावटी उन्मूलन के कारण भूमिपतियों की मौजूदगी बनी हुई है और भूमि का लगातार थोड़े से लोगों के हाथों में संकेंद्रण होता जा रहा है, बिना भूमिहीन किसानों और खेत मजदूरों के बीच भूमि का वितरण किए कथित भारी उपज वाले बीजों, महंगे खाद और पानी की जरूरतों वाली फसलों को बढ़ावा दिया गया, जिसने भूमिपतियों को तो फायदा पहुंचाया लेकिन छोटे और भूमिहीन किसानों को तबाह कर दिया और उन्हें सूदखोरों के जाल में फंसा दिया है, जो बैंकिंग और संस्थागत सहायता से सरकार के हाथ खींच लेने के कारण फल-फूल रहे हैं और जातीय तथा सामंती उत्पीड़न के गढ़ बने हुए हैं. सरकार ने देश में सिंचाई के लिए भी बड़ी नहरों और बांधों की योजनाएं अपनायीं, जो बुरी तरह नाकाम रहने के बावजूद अब भी नए-नए इलाकों में लागू की जा रही हैं. सिंचाई से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि तमाम बड़े बांधों और नहरों के बावजूद देश में ट्यूबवेल से होनेवाली सिंचाई में कमी नहीं आई है और अब भी, खुद विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में खेती की 60 प्रतिशत पैदावार भूमिगत जल से होनेवाली सिंचाई से होती है.

शारदा सहायक परियोजना संबंधी योजना आयोग की उक्त रिपोर्ट में भी इसकी पुष्टि की गई है, जिसके अनुसार नहर के कमांड एरिया में कुल सिंचित भूमि के 47.82 प्रतिशत हिस्से की ही शारदा सहायक नहर से सिंचाई हो पाती है, जबकि ट्यूबवेल से 35.85 प्रतिशत हिस्से की सिंचाई होती है और इसमें नहर के बनने से कोई खास गिरावट नहीं आई है. साफ है कि सिंचाई का निजीकरण नहरों के बावजूद बना हुआ है और सिंचाई के नाम पर तमाम सब्सिडियों का फायदा भी संपन्न किसान, जो ट्यूबवेल लगाने और डीजल आदि का खर्च उठा सकते हैं; ही उठाते रहे हैं. अभी उत्तर प्रदेश में विश्व बैंक की सलाह और समर्थन के साथ जारी वाटर सेक्टर रिस्ट्रक्चरिंग प्रोजेक्ट भी पानी और सिंचाई के क्षेत्र के निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए चलाया जा रहा है, जो हालात को और बदतर करेगा और छोटे तथा भूमिहीन किसानों को और बदहाली में धकेलेगा.

शारदा जैसी बड़ी परियोजनाओं की कामयाबियों और नाकामियों पर बात करते हुए यह सवाल पूछने की जरूरत है कि बिना व्यापक भूमि सुधारों, रियायतों और योजनाओं के निर्माण में जनता की भागीदारी और निर्णय लेने का अधिकार दिये, सिंचाई के नाम पर बने बड़े-बड़े ढांचे क्या किसानों के जीवन स्तर को सुधार सकते हैं? इससे मिलता-जुलता , लेकिन जाहिर है, इतना परिवर्तनकामी नहीं; सवाल योजना आयोग ने अपनी रिपोर्ट में उठाया है, लेकिन क्या ये उन सवालों में से नहीं हैं जिन्हें योजना आयोग जैसी संस्थाओं से ही पूछने की जरूरत है?

(तहलका से साभार)

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