बेपानी होली का अवसाद

Submitted by Hindi on Mon, 04/18/2016 - 09:11
Source
डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट, 17 अप्रैल, 2016

जल संकटवर्षों बाद पहली बार होली के दिन सवेरे मैं आराम से बैठी थी। काम वाली बाई ने आते ही पूछा- अरे, आप कहीं गईं नहीं? मैंने मात्र आँखों के इशारे से ही पूछा- कहाँ? उसने बताया कि जिस दूसरे घर में वह काम करती है, वे लोग कहीं और होली खेलने गए हैं। साथ ही दूसरा वाक्य मानो फेबीकोल की सहायता से एकदम पक्का चिपका दिया कि वह शाम को नहीं आएगी। मेरे कुछ पूछने से पहले ही उसने स्वयं सोच लिया कि शायद मैं शाम को घर पर नहीं रहूँगी। मैंने छुट्टी दे दी, साथ ही स्पष्ट कर दिया कि मैं कहीं नहीं जाऊँगी और घर पर ही रहूँगी। होली के लगभग एक माह पूर्व से महाराष्ट्र में होली न खेलने का आह्वान किया जाने लगा था। सोशल मीडिया के माध्यम से इसे अभियान का रूप दिया गया और सरकार भी निवेदन के साथ बार-बार आग्रह करती रही कि महाराष्ट्र में भारी जल संकट को देखते हुए नागरिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे होली न खेलें। व्हाट्स एप पर पब्लिक ने लीटर के हिसाब से आँसू बहाए।

एक से एक हृदय को द्रवित करने वाली, गाँवों के जल संकट झेलते लोगों की तस्वीरों और जानवरों के चित्र एक मोबाइल से दूसरे मोबाइल पर यात्रा करते रहे। यह अभियान देखकर मुझे प्रसन्नता हुई कि कब से आम जनता इस विकट संकट के प्रति सचेत है और अपने कर्तव्यों को समझती है। यह खुशी होली के दो दिन पहले अबीर की तरह पड़ते ही फिसल गई। कारण? होली के दो दिन पहले राज्य सरकार का फरमान आया कि शहर के वाटर पार्क बंद रखे जाएँ, क्योंकि उन्हें चलाने के लिये हजारों लीटर पानी लगता है, साथ ही वह रंगों से दूषित भी हो जाते हैं और इस सूखे की स्थिति में यह उचित नहीं। होली के दिन सैकड़ों की संख्या में लोग वहाँ जाते हैं। वहाँ पर अनेकानेक वाटर स्पोर्ट्स का लोग आनंद उठाते हैं। पूल में लोग घंटों पड़े रहते हैं, जिसका पानी निरन्तर साफ रखना पड़ता है। रेन डान्स में पानी अत्यधिक बर्बाद होता है।

राज्य सरकार के इस आदेश को वाटर पार्कों के मालिकों ने रद्दी को टोकरी में डालते हुए घोषणा की कि वे अंतिम समय में इस आदेश का पालन करने में असमर्थ हैं, क्योंकि इन पार्कों में विशिष्ट पर्वों पर बहुत पहले से बुकिंग हो जाती है और दो दिन पहले इस बुकिंग को कैंसिल नहीं किया जा सकता। फलस्वरूप उनके पार्क खुले रहेंगे। क्या इसे सरकार और वाटर पार्कों की मिलीभगत कहा जाए? आम जनता को सरकार ने 20-25 दिन पहले से जाग्रत कर दिया था। यही नहीं, अनेक स्वीमिंग पूलों को बंद करवा दिया गया तो वाटर पार्कों को पहले से ही नोटिस क्यों नहीं भेजी गई? अंतिम समय में नोटिस भेजकर सरकार ने अपने कर्तव्य का निर्वहन कर दिया, वाटर पार्कों ने असमर्थता प्रकट कर दी। पानी की दयनीय स्थिति गाँवों के शुष्क कुँओं, तालाबों और नहरों के अंधेरों में डूब गई। आम जनता ने बड़ी-सी सरकार की अपील पढ़ ली, गदगद हो गई और वाटर पार्कों की नकारात्मकता की छोटी-सी खबर को शायद लोगों ने देखा ही नहीं। क्या इसे जल राजनीति कहा जा सकता है? कुछ चुनिंदा लोगों को यह सुविधा क्यों?

गाँवों के गम्भीर सूखे की समस्या के फलस्वरूप शहरों में ग्रामीणों का पलायन बड़ी संख्या में हो रहा है। मात्र लातूर जिले से ही एक लाख लोग भागे हैं। लातूर में पानी की सबसे विकट समस्या है। वहाँ सात-आठ दिन बाद सरकार टैंकरों से पानी पहुँचा पाती है, जिसके लिये मध्य रात्रि से ही लोग लाइन में लग जाते हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, लातूर से जो एक महीने में एक लाख लोगों ने शहरों का रुख किया है, उनमें से आधे पुणे शहर और आधे औरंगाबाद गए हैं। हाल यह है कि इन दोनों शहरों में पहले से ही बड़ी मुश्किल से नागरिकों को जल दिया जा रहा है। इन शहरों में पानी की इतनी किल्लत है कि चौबीस घंटे आनेवाला पानी अब मात्र चौबीस घंटे में तीन बार एक-डेढ़ घंटे के लिये आता है। कॉरपोरेशन का पानी एक दिन बाद पंप किया जाता है। टैंकरों से जो पानी आता है, वह बलुआ होता है, क्योंकि बोरवेल में पानी की सतह बहुत नीचे चली गई। फलस्वरूप लोगों के घरों के एक्वागार्ड वगैरह भी खराब हो रहे हैं। जहाँ वर्षा देवी ने कृपा की, इस स्थिति में सुधार हो जाएगा, किन्तु प्रश्न है कि वह कृपा दृष्टि कब करेंगी? उनकी कृपा की प्रतीक्षा महाराष्ट्र के अनेक जिले पिछले चार वर्ष से कर रहे हैं। हाँ, यह वर्ष पश्चिमी महाराष्ट्र के लिये भी सूखे की स्थिति उत्पन्न कर रहा है। एक जान-पहचान की महिला ने बड़ी ही लचर दलील दी कि वह पानी की कमी के कारण गीली होली नहीं खेलेंगी। मात्र सूखी यानी अबीर-गुलाल ही चलेगा। ये उच्च शिक्षित लोग क्यों यह नहीं समझते कि सूखी होली के लिये भी पानी चाहिए- ज्यादा पानी नहाने-धोने व अन्य सफाई के लिये। यह किस प्रकार का तर्क है?

इन लोगों से भले तो कई ऐसे लोग हैं, जिन्हें हम अशिक्षित व अनजान समझते हैं। मैंने अपनी काम वालियों को हिचकते हुए होली के मिठाई-पकवान दिए और साथ ही एक वाक्य जोड़ा कि इस वर्ष मैं रंग या अबीर-गुलाल नहीं दूँगी। उन्होंने उतनी ही फुर्ती से उत्तर दिया कि बिल्कुल ठीक है, क्योंकि उनके बच्चे भी होली नहीं खेलेंगे, इसलिए कि उनकी पाठशाला में बताया गया है कि पानी के अतिशय कष्ट को देखते हुए वे लोग होली न खेलें। ये छोटे बच्चे बड़े ही हम्बल यानी अत्यन्त साधारण, दीन परिवारों से आते हैं, जो क्लास टीचर ने मस्तिष्क में भर दिया- वह बैठ गया। निश्चित रूप से समर्थ घरों के बच्चे शायद इतनी जल्दी इसे समझते नहीं। अनेक लोग ऐसी जगहों पर होली खेलने चले गए, जहाँ इसका इंजताम किया गया था। यानी दोहरा मापदंड। होली न खेलने की मुहिम को मराठी चित्रपट केकलाकारों ने भी आगे बढ़ाया। प्रतिदिन उनके बयान और उनकी चिन्ता को समाचार पत्रों में उनके सुंदर चित्रों के साथ छापा जाता रहा। साथ ही समाज के विशिष्टि तथा फैन फालोइंग वाले व्यक्तियों के इंटरव्यू छपने लगे। समझा जाता है कि ऐसे लोगों की बातों का आम जनता पर जाने-अनजाने प्रभाव पड़ता है। लेकिन यह क्या? होली के बाद छपे उनके रंगों से सराबोर चित्रों को देखकर मैं अचंभित रह गई। भले वह गुलाल रहा हो, फिर भी यह गलत था।

मीडिया को भी उनके रंगों से सने चित्रों को छापने से परहेज करना चाहिए था। यह द्विअर्थी संदेश क्यों? लेकिन पुणे की कम से कम 75 प्रतिशत जनता को साधुवाद के साथ श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने सरकार के आदेश और आग्रह का लगभग शत-प्रतिशत पालन किया। ये बचे 25 प्रतिशत लोग हर समाज और हर प्रदेश में होते हैं। कुछ मनचले युवकों और नासमझ लोगों को छोड़कर होली का दिन पूर्णत: शांत रहा। न ढोल-मंजीरे की कानफोडू आवाज, न लाउडस्पीकर पर हिंदी फिल्मों के चलताऊ गाने सुनाई पड़े। न मादक द्रव्यों का सेवन कर नाचता युवा वर्ग। चीख-पुकार, हो-हल्ला, कुछ नहीं। यहाँ तक कि वर्षों से चली आ रही होली मिलन की परम्परा को भी त्याग दिया गया। मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन में इतनी शांत होली कभी नहीं देखी। इस पूरे घटना क्रम से एक बात तो स्पष्ट है कि हमारे देश की ज्यादातर जनता प्रबुद्ध है और यदि तर्क के साथ उन्हें कुछ न करने का आदेश दिया जाए तो उसका पालन करेंगे। इसमें हर वर्ग के लोगों को श्रेय दिया जाना चाहिए। रात को जमने वाली महफिलें भी नहीं जमीं।

इन विज्ञापनों से रेस्त्रां तथा होटलों ने भी धूम नहीं मचाई। यदि व्यक्तिगत स्तर पर ये महफिलें जमीं हों तो वह दिगर बात है। किसी भी क्लब, रेसार्ट ने होली के उपलक्ष्य में कोई भी कार्यक्रम आयोजित नहीं किए। वाटर पार्क इसमें सम्मिलित नहीं हैं। आम नागरिक पानी की गम्भीरता को समझ रहा है। हाँ, अमीर व समर्थ लोगों की सोसाइटियों ने बड़े पावर के पंप लगवा लिये, फलत: वे शीघ्र ही पानी अपने नए लगाए ओवर हेड टैकों में भर लेते। फलत: असंतोष होना लाजिमी है। मेरे विचार से इन सामर्थ्यवानों के पास इतना पैसा है कि वे कम से कम अपने लिये पीने का पानी बाजार से खरीद सकते हैं, अत: अपने उन पड़ोसियों के लिये उन्हें यह पानी छोड़ना चाहिए। फिर भी आपसी सहयोग अभी भी बना हुआ है और इस सहयोग की खूबसूरती यह है कि समय की नजाकत को समझते हुए उसे कोई मुद्दा नहीं बनाया गया। वैसे बीच-बीच में नेतागण आकर इसे मुद्दा बनाना चाहते हैं। मनुष्य परिस्थितियों से जितनी शीघ्रता से समझौता कर लेता है, उसका मार्ग उतना ही सरल व हृदय शांत हो जाता है। अब बस प्रतीक्षा है तो इंद्र देवता के प्रसन्न होने की और वर्षा देवी के पृथ्वी पर उतरने की। यदि इन दोनों ने मनुष्य के धैर्य की ज्यादा परीक्षा ली तो परिणाम दुखदायी हो सकते हैं।

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