देश के जिन राज्यों में मानसून सामान्य रहा, वहाँ के लोग संभवत: महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त क्षेत्रों की गंभीरता का अनुमान बमुश्किल लगा पाएँगे। सरकार टैंकरों के द्वारा गाँवों में पानी पहुँचाने की व्यवस्था कर रही है, लेकिन अनेक गाँव ऐसे हैं, जहाँ पानी मात्र सप्ताह या दो सप्ताह में एक बार ही भेजा जा रहा है। टैंकर लॉबी पानी की इस संकटावस्था में भी जमकर मनमाने पैसे वसूल रही है। मरता क्या न करता! ऊँचे दामों में टैंकर का पानी खरीदने को लोग मजबूर हैं। ऊपर से प्रशासन का ढीला रवैया लोगों की खिन्नता को चरम पर ले जा रहा है। एक महीने के अंदर सौ से ऊपर आत्महत्याएँ इस मजबूरी का द्योतक हैं। यह मराठवाड़ा का आँकड़ा है और विदर्भ में दो हजार से ऊपर किसान अवसाद से पीड़ित हैं। ये आँकड़े तो प्रकाश में आए हैं, लेकिन न जाने कितने लोग अनेकानेक बीमारियों से भी ग्रसित होंगे। अनेक बड़े शहरों में भी पानी की कटौती की जाने लगी है। अभी तो फिर भी सहनीय है, किंतु समस्या की विकरालता का वास्तविक विद्रूप चेहरा ग्रीष्म ऋतु में दिखेगा। चिंता का विषय यह है कि गाँवों से लोगों का पलायन शहरों की तरफ हो रहा है, जहाँ शहर स्वयं इस समस्या से जूझ रहे हैं। किंतु ऐसा लग नहीं रहा कि सरकार कोई ठोस कदम उठा पाई है।
इससे पूर्व मैंने अपने इसी स्तंभ में लिखा था कि किस प्रकार यहाँ के नेता तथा मंत्रीगण हस्यास्पद सुझाव दे रहे हैं। पहले किसानों को सलाह दी कि वे मत्स्य पालन करके फ्राई फिश बेचकर अपनी आय को बढ़ा सकते हैं। अब एक नया उपाय एक मंत्री जी ने बताया कि किसानों को कैश क्राप यानी जिस उत्पाद को बेचकर तुरंत पैसा कमाया जा सके, की तरफ ध्यान देना चाहिए। कैसे? देखिए।
महाराष्ट्र के एक बड़े किसान के कई एकड़ खेत के मध्य एक बड़ा-सा तालाब है, जिसका पानी सूखा पड़ने के बाद भी समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन उसमें इतना भी पानी नहीं है कि वह अपने खेतों को सींच सके। अतएव उसने अपने तालाब में आइसटर यानी सीप की खेती शुरू की, जिससे कृत्रिम ढंग से मोतियों का निर्माण किया जा सकेगा। यह किसान आशावान है कि इन मोतियों को बेचकर काफी पैसा कमा लेगा। यहाँ के मंत्री जी ने यह सुना तो उन्होंने अन्य किसानों से अपील की कि वे भी सीपी-आइस्टर की खेती करें और कैश क्राप पर ध्यान केंद्रित करें।
मंत्री जी ने घोषणा की कि जो भी किसान आइस्टर की खेती करना चाहते हैं, वे अपने खेतों की बीच तालाब खोदकर यह कर सकते हैं और तालाब बनाने के लिये राज्य सरकार हर किसान को पचास हजार रुपए का अनुदान देगी। अब जरा ध्यान दीजिए। इन सूखाग्रस्त इलाकों में कई वर्षों से मानसून की कृपा नहीं हुई है, अत: जमीन बिल्कुल सूखकर कड़ी हो गई है। कइयों की जमीन बंजर हो गई है। यदि मान भी लें कि सभी किसान पहाड़ खोदकर रास्ता बनाने वाले दशरथ मांझी की तरह जुट भी जाएँ तो उसमें पानी कहाँ से भरा जाएगा। कुछ जिलों में वर्षों से पानी की कमी बनी हुई है तो क्या गारंटी है कि आने वाली वर्षा ऋतु में पानी पर्याप्त मात्रा में बरसेगा। जहाँ पीने का भी पानी नसीब न हो रहा हो और जानवरों को खुला छोड़ा जा रहा हो, वहाँ क्या यह उपाय शगूफा नहीं? दूसरे, किसानों को आइस्टर की खेती के लिये कुछ ट्रेनिंग भी देनी पड़ेगी। एक ध्यान देने योग्य बात कि जो छोटे किसान हैं, क्या वे अपने एक या दो खेत को खोदकर जगह को कम करेंगे? वह भी उस योजना के लिये, जिसका भविष्य ही लचर हो। मान लें, तालाब खुद भी जाए और कहीं से पानी भर दिया जाए, हालाँकि यह मुमकिन नहीं, तो क्या इतनी प्यासी धरती में दोगुने-तिगुने पानी की आवश्यकता नहीं होगी? सूखी पृथ्वी न जाने कितना पानी ही सोख लेगी। वैसे मैं इस विषय की ज्ञाता नहीं हूँ, किंतु मेरी साधारण सोच यही तर्क देती है।
आवश्यकता है कि किसानों को कैसे त्वरित सहायता पहुँचाई जाए। इन्हीं कठिन परिस्थितियों से निपटने के लिये एमजीएनआरईजीए यानी मनरेगा जैसी योजना को पिछली यूपीए सरकार ने बनाया था। पहले तो यह सोचकर इस योजना को लाया गया था कि पूरे वर्ष किसानों के पास खेती का काम नहीं होता और ये कुछ महीने कठिन होते हैं, अत: इस योजना के अंतर्गत उन्हें सौ दिन काम करने के एवज में मजदूरी का प्रावधान रखा गया था। ताकि उनके हाथ में कुछ कैश आ सके। लेकिन जब इस योजना को लागू किया गया तो भाजपा के अनेक नेताओं के साथ हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री जी ने इसका घोर विरोध किया था। उन्हें यह योजना अंधे कुएँ की तरह लगी कि जिसमें डालते जाओ, लेकिन हासिल कुछ नहीं होता। यही नहीं 2014 के पार्लियामेंट के चुनाव में इसे उन्होंने एक मुद्दा तक बना डाला था। फरवरी 2015 में मोदी ने कांग्रेस का मजाक उड़ाते हुए लोकसभा में यह बयान तक दे डाला कि वे मनरेगा को जिंदा रखेंगे, ताकि यूपीए की आर्थिक नीतियों की विफलता को देश देख सके। किंतु इसका पुन: प्रवर्तन स्पष्ट करता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में यह कितनी लाभकारी साबित हो रही है।
प्रधानमंत्री जी ने इसे मान्यूमेंटल यानी बहुत बड़ी असफलता घोषित की थी। उसी योजना पर अब सभी दलों की मुहर लग जाना ही परिलक्षित करता है कि इस विकट स्थिति के समय गाँवों की यह जीवन रेखा बन गई है। महाराष्ट्र से ज्यादा उत्तराखण्ड में इसके लाभकारी परिणाम सामने आए हैं। उत्तराखण्ड में यह योजना इतनी सफल हो रही है कि इसकी पुष्टि ग्रामीण विकास मंत्री बीरेंद्र सिंह ने भी की है। महाराष्ट्र में भी यह योजना किसानों के लिये सहायक सिद्ध हो रही है, किंतु इसमें जो छिद्र है और पैसा जो बाहर बह जाता है, उसे बंद करने का युद्धस्तर पर प्रयत्न होना चाहिए। यह मनरेगा सामाजिक सुरक्षा की सबसे बड़ी योजना कही जा सकती है। जहाँ-जहाँ इसे सुचारू रूप से चलाया जा सका है वहाँ ग्रामीणों को थोड़ी राहत अवश्य मिली है। क्योंकि कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ लगभग तीन वर्ष से अनावृष्टि की काली छाया मंडरा रही है तथा खेतिहरों की संकट की स्थिति की दरार बढ़ती जा रही है। यदि इनके खातों में पैसा पहुँचता रहा तो कम से कम असंतोष और जीवन के प्रति गहराती निराशा में थोड़ा विराम जरूर लगेगा। हालाँकि मनरेगा को एक सिरे से खारिज करने और आलोचना करने वालों की संख्या काफी है। एक अंग्रेजी दैनिक की स्तंभ लेखिका इस योजना के प्रारंभ होने से लेकर आज तक इसके विरोध में लिखती रही हैं, लेकिन विदेशों का जब हर क्षेत्र में उदाहरण दिया जाता है तो इसे भी क्यों नहीं।
सोशल सिक्यूरिटी यानी सामाजिक सुरक्षा की तरह माना जा सकता। जरा सोचिए, यदि यह योजना न होती तो आज इस मुसीबत से घिरे क्षेत्रों का क्या हाल होता। महाराष्ट्र में कोई बहुत बड़ी नदी नहीं है, जो राज्य के जल का भार उठा सके। चूँकि यह क्षेत्र पठारी है, अत: यहाँ पर डैम से ही पानी शहरों में पंप किया जाता है। अब शहरों की स्थिति भी खराब हो रही है। कॉरपोरेशन एक दिन छोड़कर एक दिन मात्र कुछ घंटों की पानी सप्लाई करता है। अब बाँधों में पानी इतना कम रह गया है और इस पानी को लगभग छह महीने या अगले मानसून तक चलाना है, फलस्वरूप पानी की और कटौती करने की बात की जा रही है।
किसानों की स्थिति का एक भयावह स्वरूप और है। किसान प्राय: गायों व बैलों को काम लायक न रहने पर बेच दिया करते थे, अब उस पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। गाँववालों का कहना है कि जब उनके स्वयं के न खाने का ठिकाना है, न पानी का तो वे जानवरों को कैसे पाल सकते हैं। उनका यह तर्क शत प्रतिशत सही है। कभी-कभी सरकारें ऐसे नियम-कानून बना देती हैं, जो वास्तविकता से कोसों दूर होते हैं और अव्यावहारिक होते हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि इस समस्या के प्रति आम जनता ज्यादा संजीदा है, किंतु सरकार कितनी गंभीर है- यह न उसकी बातों से लगता है, न कार्य से। यहाँ पर दालों-सब्जियों तथा मीट-अंडा इत्यादि के दाम अन्य स्थानों की अपेक्षा कई गुने ज्यादा हैं, लेकिन इस मुद्दे को विपक्षी दल भी नहीं उठा रहे हैं। जबकि अरहर की दाल का भाव जब पिछली सरकार के समय बढ़कर सौ रुपए प्रति किलो तक पहुँचा था, तब भाजपा व मीडिया ने ऐसा तूफान खड़ा कर दिया था कि उसकी ज्वाला चुनाव के बाद ही शांत हुई। लेकिन अब वही दाल फिलहाल मेरे शहर में 280 रुपए प्रति किलो बिक रही है और कहीं कोई हलचल नहीं। क्या यह भी तूफान आने के पहले की शांति है?
सत्य यह है कि मात्र इस वर्ष किसानों की आत्महत्या का आँकड़ा पिछले दस वर्षों से कहीं ज्यादा है। एक महिला मंत्री साहिबा ने इस पर बोला कि जब हम लोग इजरायल की तरह खेती करना शुरू करेंगे तो निश्चित रूप से किसानों की हालत में सुधार होगा। जब इजरायल स्टाइल खेती होगी, तब देखा जाएगा लेकिन अभी क्या होना है- इसे कृपया बताइए। लगातार साल दर साल नष्ट होती फसल, वर्षा की प्रतीक्षा, कर्ज देनेवालों की कड़ी होती शर्तें तथा अपमान, परिवार का भरण-पोषण न कर पाने की मजबूरी के भंवर में फंसे किसानों के पास बचने का अंतिम हथियार है आत्महत्या। समय रहते इसका निदान खोजना होगा।
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Source
डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट, 24 जनवरी, 2016