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डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'बागमती की सद्गति' से
1996 में हुई पंचेश्वर बांध-संधि के अनुसार इस समय तक उस योजना का निर्माण कार्य पूरा हो जाना चाहिये था जो अब तक शुरू भी नहीं हुआ और न निकट भविष्य में इसके शुरू होने के कोई आसार ही नजर आते हैं। भारत और नेपाल सरकार के बीच बराहक्षेत्र परियोजना के डी.पी.आर. बनाने का पहला समझौता 1997 में हुआ था और यह रिपोर्ट बनाने का काम अभी तक (जून 2010) पूरा नहीं हुआ है।
बिहार की बाढ़ समस्या का समाधान नेपाल में है और इसके लिए कुछ भी कर सकने में बिहार सरकार असमर्थ है और इस मसले की सारी जिम्मेवारी केन्द्र सरकार की है यह बात बिहारी लोक मानस में गहरे बैठा दी गयी है। कुछ लोग यह बात निश्चयपूर्वक कहते हैं कि बिहार के जो सांसद लोकसभा या राज्यसभा में बैठते हैं वह दृढ़तापूर्वक नेपाल में प्रस्तावित बांधों के बारे में बात नहीं करते। ऐसे लोग इसका एक कारण बताते हैं कि वहाँ सारा माहौल ही सूखे के इर्द-गिर्द घूमता है। ऐसे में बाढ़ की आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह जाती है। बिहार से कई बार सांसद रहे डॉ. गौरी शंकर राजहंस का मानना है, ‘‘...दिल्ली में बैठे लोग उस नारकीय जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं। प्रश्न यह है कि उत्तर बिहार के लोग आखिर इस नरक को क्यों भोगें? आज यदि ऐसी घटना यूरोप में होती और किसी पड़ोसी देश की गलती से किसी देश में बाढ़ आती तो प्रभावित देश भरपूर मुआवज़ा वसूलता। परन्तु नेपाल हमारा पड़ोसी ही नहीं, निकटतम मित्र और भाई है।उससे भला क्या मुआवजा वसूला जा सकता है? नेपाल के लोगों का कहना है कि वे इस बात को अच्छी तरह महसूस करते हैं कि उनकी नदियों के कारण उत्तरी बिहार के लोग हर साल तबाह हो जाते हैं... पर उत्तरी बिहार के लोगों को यह महसूस करना चाहिये कि इसी तरह की त्रासदी से नेपाल की तराई के लोग भी गुजरते हैं। यह तर्क शत-प्रतिशत सही है। अतः क्यों नहीं नेपाल और भारत सरकार मिल कर इस समस्या का कोई स्थाई समाधान खोजें?’’ उनका आगे कहना था कि भारत सरकार नेपाल के महाराज ज्ञानेन्द्र और वहाँ की सरकार को यह समझाने में सफल हो जाए कि इस तरह के बड़े डैम बनाने से नेपाल और उत्तरी बिहार दोनों का कायाकल्प हो जायेगा तो कोई कारण नहीं है कि नेपाल के महाराज और वहाँ की सरकार भारत के अनुरोध को टालें।
दरअसल, इस तरह के बयान कहीं न कहीं यह संकेत देते हैं कि इस पूरे मसले पर भारत सरकार की तरफ से ठीक तरह से कोई कोशिश नहीं हुई है जबकि भारत और नेपाल के बीच बात-चीत का सिलसिला 1940 के दशक से जारी है। 1937 में अंग्रेजों के समय पटना में जो बाढ़ सम्मेलन हुआ था उसमें बिहार के तत्कालीन चीफ इंजीनियर कैप्टेन जी. एफ. हॉल ने जरूर यह कहा था, ‘‘...कोसी के ऊपरी क्षेत्र पर नेपाल का नियंत्रण है और बिहार सरकार के पास नदी को नियंत्रित करने के लिए असीमित साधन नहीं हैं। यह भी प्रस्ताव किया गया है कि हमें नेपाल का सहयोग प्राप्त करना चाहिये। यह बहुत जरूरी भी है लेकिन मुझे ऐसे किसी सहयोग की उम्मीद नहीं है। उन्हें (नेपाल को) इस सम्मेलन में आमंत्रित किया गया था पर उन्होंने कोई भी प्रतिनिधि भेजने से इन्कार कर दिया। मेरा नेपाल सरकार के साथ नदी नियंत्रण और सीमा विवाद के मुद्दों पर कुछ वास्ता पड़ा है और मैं इसके अलावा कोई राय कायम नहीं कर सकता कि वह बिहार के फायदे के लिए अपने आपको कोई तकलीफ देंगे।”
यह भी सच है कि आजाद भारत में नेपाल के साथ कोसी परियोजना, गंडक परियोजना, पश्चिमी कोसी नहर तथा पंचेश्वर बांध और बराहक्षेत्र बांध की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट जैसी योजनाओं को लेकर कई समझौते हुए मगर कहीं न कहीं कोई कमी जरूर है जिसकी वजह से कोई न कोई व्यवधान पड़ता है और रिश्तों में कोई गर्मजोशी नहीं दिखायी पड़ती। 1996 में हुई पंचेश्वर बांध-संधि के अनुसार इस समय तक उस योजना का निर्माण कार्य पूरा हो जाना चाहिये था जो अब तक शुरू भी नहीं हुआ और न निकट भविष्य में इसके शुरू होने के कोई आसार ही नजर आते हैं। भारत और नेपाल सरकार के बीच बराहक्षेत्र परियोजना के डी.पी.आर. बनाने का पहला समझौता 1997 में हुआ था और यह रिपोर्ट बनाने का काम अभी तक (जून 2010) पूरा नहीं हुआ है।