जल विशेषज्ञ बताते हैं कि कोसी बैराज का इंतजाम भारत के हाथ में है, गंडक बैराज का नियंत्रण भारत के हाथ में है। पानी छोड़ते हैं हम और इल्जाम नेपाल के माथे डालते हैं। बिहार के जल संसाधन मंत्री तो हाल-फिलहाल यहाँ तक बोल गए कि बाढ़ का एकमात्र समाधान नेपाल में हाई डैम बनाने से ही होगा और ऐसा बयान देने वाले करीब-करीब सभी पूर्व मुख्यमंत्री और सिंचाई मंत्री भी रहे हैं। ये बयान सुनते-सुनते 72 वर्ष बीत गए और ऐसे बयान आगे भी सुनने पड़ सकते हैं। नेपाल में हाई डैम पहले भी नहीं बन सकता था।
पिछले साल की सुखाड़ से आहत बिहार इस वर्ष भी सूखे से कराह रहा था, मगर खुशहाली लेकर आई वर्षा पाँच दिनों में ही आफत में बदल गई। ढाई सौ से तीन सौ मिलीमीटर वर्षा के प्रहार को झेलने की स्थिति में बिहार नहीं था। सरकार की सारी तैयारी धरी-की-धरी रह गई। गंडक, लालबकेया, बागमती, अधबारा समूह, कमला, कोसी, कनकई और महानंदा नदियों की बाढ़ का कहर बढ़ने लगा। कई नदियों के बड़े तटबंध और छोटे सुरक्षा तटबंध भराभरा कर टूटने लगे, मानो यह बालू की भीत रही हो। तटबंध का टूटना क्या था बेलगाम पानी चैतरफा कहर बरपाना शुरू कर दिया।
13 जुलाई से बाढ़ का पानी राज्य के विभिन्न भागों में फैलने लगा और अभी तक पूर्वी और पश्चिमी चम्पारण, सीतामढ़ी, शिवहर, दरभंगा, मधुबनी, सहरसा, सुपौल, कटिहार, अररिया, किशनगंज, मुजफ्फरपुर सहित 12 जिलों के 77 प्रखण्ड 546 पंचायतों की करीब 88 लाख से अधिक जनसंख्या के प्रभावित होने का सरकारी दावा है। साथ ही सरकार द्वारा बाढ़ पीड़ित होने वाले 28 जिलों के डीएम को भी अलर्ट किया गया था, जहां अभी भी अलर्ट जारी है। अब तक बाढ़ में डूब कर मरने वालों की संख्या करीब 130 बताई जा रही है। बाढ़ का यह कहर कोई अनहोनी नहीं है। करीब हर वर्ष बाढ़ का दंश झेलने को बिहारवासी विवश होते हैं। बाढ़ आती है फिर शुरू होता है सरकार और राजनीतिज्ञों का बचाव व राहत के नाम पर घड़ियाली आँसू बहाना। मानव जीवन और पशुधन की क्षति के साथ किसान-मजदूरों के आवास के साथ खेती को भी नुकसान होता है। सरकार द्वारा राहत और अन्य अनुदान का खेल शुरू होता है जो नाममात्र के पीड़ितों को पहुँचता है।
वार्षिक बाढ़ मानव क्षति रिपोर्ट बताती है कि बिहार में 1979 से 2017 तक बाढ़ में मरने वालों की संख्या करीब 7200 रही। गैर-सरकारी आंकड़ा और ज्यादा ही होगा। इसी तरह हजारों पशुओं के दहने-मरने और प्रत्येक वर्ष करोड़ों के सरकारी गैर सरकारी सम्पत्ति के बहने और बर्बाद होने का आंकड़ा आता रहा है। बिहार का 72 फीसद क्षेत्र और करीब दो करोड़ जनसंख्या बाढ़ से पीड़ित होती है, जबकि पूरे देश के क्षेत्र का यह 16.5 फीसद और जनसंख्या का करीब 22.1 फीसद भाग होता है। सवाल है कि प्रत्येक वर्ष की इस प्राकृतिक आपदा की मुख्य वजह क्या है ? पहले बाढ़ गाँव तक ही सीमित होती था अब यह शहर को भी प्रभावित करती है। आपदा पीड़ित आमजन और जानकार भी बाढ़ का मुख्य कारण तटबंध को मानते हैं। प्रत्येक वर्ष विभिन्न नदियों में दर्जनों जगह तटबंध टूटते हैं, कभी-कभी एक ही नदी में दर्जन भर जगहों पर तटबंध टूटने की घटना घटी है। बावजूद, आजादी के समय का करीब 50 किलोमीटर की तटबंध आज बढ़कर करीब 4 हजार किमी हो गया है। इसके अतिरिक्त रेलवे के साथ नए राष्ट्रीय उच्च पथ और राज्य उच्च पथ भी छोटे बाँध का ही काम करते हैं, जिनमें अपेक्षाकृत बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के अनुपात में पुलों की संख्या कम होती है। ये सभी पानी को घेरकर बाढ़ के पानी की निकासी में बाधक बनते हैं। आखिरकार जब तटबंध इतनी बड़ी तबाही का मुख्य कारण है, फिर हर साल तटबंध का विस्तार क्यों होता जा रहा है ? और हम यह कहकर आमजन को गुमराह करते हैं कि नेपाल के पानी छोड़ने से तबाही होती है।
जल विशेषज्ञ बताते हैं कि कोसी बैराज का इंतजाम भारत के हाथ में है, गंडक बैराज का नियंत्रण भारत के हाथ में है। पानी छोड़ते हैं हम और इल्जाम नेपाल के माथे डालते हैं। बिहार के जल संसाधन मंत्री तो हाल-फिलहाल यहाँ तक बोल गए कि बाढ़ का एकमात्र समाधान नेपाल में हाई डैम बनाने से ही होगा और ऐसा बयान देने वाले करीब-करीब सभी पूर्व मुख्यमंत्री और सिंचाई मंत्री भी रहे हैं। ये बयान सुनते-सुनते 72 वर्ष बीत गए और ऐसे बयान आगे भी सुनने पड़ सकते हैं। नेपाल में हाई डैम पहले भी नहीं बन सकता था। अब तो वहाँ की राजनैतिक स्थिति भी काफी बदल चुकी है। सरकार बयानबाजी कर जनता को डैम के नाम पर भटका रही है। विशेषज्ञों के अनुसार डैम बनेगा तो उस पर करीब 8 सौ फीट ऊँचा बांध बनेगा और जब वहाँ की सरकार से रिश्ते बिगड़ेंगे तब बगैर युद्ध के ही वह हमें परास्त करने में सक्षम होगा। आज अगर डबल इंजन की सरकार के मंत्री हाई डैम के पक्ष में बयान दे रहे हैं तो क्या 8 सौ फीट ऊँचे बांध से सम्भावित दुर्घटना और सुरक्षा के खतरे का समाधान ढूँढ लिया गया है ? अगर भारत के साथ नेपाल को भी इस हाई डैम से भारी लाभ है तो यह डैम बन क्यों नहीं रहा है ? क्या नेपाल और भारत के इन भूकम्पीय क्षेत्रों से हाई डैम के खतरे का आकलन कर लिया गया है ?
अगर तटबन्ध समाधान नहीं है तो फिर तटबंध का इतना विस्तार क्यों किया जा रहा है ? तटबंधों का निर्माण कितने पानी को सम्भालने के लिए किया गया था ? अभी प्रवाह कितना है ? नदियों में कितना शिल्टेशन हुआ है, उससे जल प्रवाह की क्षमता कितनी घटी है और उसके पुनःस्थापन के लिए क्या कदम उठाए गए ? पहले ढाई दिन की बाढ़ होती थी, वह ढाई महीने की बाढ़ की चपेट में कैसे आने लगे ? इतनी ही नहीं हमने नेपाल तक तटबंध बना दिए। बागमती परियोजना उदाहरण है, जिस पर नेपाल के करमहिया बैराज तक तटबंध का निर्माण भारत सरकार ने ही कराया है। उसकी उपलब्धियाँ क्या है ? ये सारे सवाल आमजन के जेहन में हैं। सरकार को भी इसका खुलासा करना चाहिए। तटबंध का विस्तार होने के साथ बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों का विस्तार हुआ है। यह खेल कब तक चलता रहेगा ? अगर तटबंध की उपयोगिता नहीं है तो यह खेल बंद होना चाहिए। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के लोगों और जल विशेषज्ञों के साथ गहन चिंतन कर तटबंध की नीति बदलनी चाहिए।
जल विशेषज्ञों के अनुसार मुक्त रूप से बहती नदी की बाढ़ के पानी में काफी मात्रा में गाद मौजूद रहती है, जो बड़े इलाके में फैलकर भूमि का निर्माण करती है। तटबंध पानी का फैलाव रोकने के साथ गाद का फैलाव भी रोक देते हैं और नदियों के प्राकृतिक भूमि निर्माण में बाधा पहुँचाते हैं। तटबंधों से नदी तल उठने के साथ बाढ़ का लेवल भी उठता है, फिर तटबंध ऊँचा करना पड़ेगा और बाढ़ और जलजमाव का खतरा बढ़ता जाएगा। ऐसा नहीं है कि प्राकृतिक आपदा से देश और दुनिया के अन्य भाग पीड़ित नहीं है, परन्तु बिहार की यह आपदा मानव निर्मित है, जो तटबंध निर्माण से भयावह बन गई है और राजनीतिज्ञ और सरकारी नुमाइंदे इस कामधेनु को जीवित रखना चाहते हैं।
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