बाढ़ के कारणों को समझकर काम करने से ही बात बनेगी

Submitted by Shivendra on Thu, 10/03/2019 - 10:35

बाढ़ के कारणों को समझकर काम करने से ही बात बनेगी। फोटो स्त्रोत-news18बाढ़ के कारणों को समझकर काम करने से ही बात बनेगी। फोटो स्त्रोत-news18

भोपाल से प्रकाशित होने वाले दैनिक भास्कर अखबार में दिनांक एक अक्टूबर 2019 को छपी खबर के अनुसार पिछले 48 घंटों में बिहार में होने वाली कुल मानसूनी बरसात का 40 प्रतिशत पानी बरसा है। उस अप्रत्याशित बरसात के कारण लगभग 21 लाख की आबादी वाले पटना नगर के 80 प्रतिशत मकानों में पानी भरा है। वहीं पटना नगर की सडकों पर छह से सात फुट तक पानी भरा है। अखबार में प्रकाशित खबर के अनुसार पटना के पास से बहने वाली गंगा, पुनपुन, सोन और गंडक खतरे के निशान के ऊपर बह रही हैं। मौजूदा हालात बता रहे हैं कि गंगा कछार के विभिन्न इलाकों में हो रही बरसात का सबसे अधिक खामयाजा बिहार भोग रहा है। कुछ लोग इसे कुदरती तो कुछ लोग इसे नगरीय इलाकों से जल निकासी के कुप्रबन्ध तथा अनदेखी से उपजी त्रासदी बता रहे हैं। 

अभी कुछ ही दिन पहले पटना के हवाई अड्डे का रन-वे 17 सितम्बर 2019 को हुई अल्पकालीन अतिवृष्टि के कारण खराब हो गया था। उसके कारण 18 सितम्बर 2019 की उठानें प्रभावित हुईं थीं। इस समस्या को अतिवृष्टि का परिणाम बताया गया था। कुछ लोगों को लगता है कि यह हवाई अड्डे से जल निकासी की सटीक व्यवस्था के अभाव का प्रतिफल भी हो सकता है। आने वाले दिनों में जलवायु परिवर्तन के कारण कम समय में अधिक पानी बरसने की घटनायें सामान्य हो सकती हैं।

राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार देश का चार सौ लाख हेक्टेयर से अधिक का इलाका बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के अन्र्तगत आता है। हर साल इस इलाके में इजाफा हो रहा है। अनुमान है कि हर साल लगभग 70 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बाढ़ आती है। औसतन 35 लाख हेेक्टेयर क्षेत्र की फसल बरबाद होती है। जन-धन की हानि तथा जानवरों की मौत का आंकड़ा अलग है। कुछ लोगों का मानना है कि बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में हर साल होने वाली हानि किसी हद तक बाढ़ के पानी को व्यवस्थित तरीके से समायोजित नहीं कर पाने की हमारी तकनीकी विफलता का परिणाम है। पर्यावरण के जानकारों के अनुसार आने वाले सालों में जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में बदलाव देखा जाएगा। स्थानीय स्तर पर बरसात का चरित्र बदलेगा। पिछले कुछ सालों से उसके बदलते चरित्र के संकेत मिलने लगे हैं। केदारनाथ में बादल फटने, केरल में आई अप्रत्याशित बाढ़ और पुणे तथा मुम्बई की हालिया अतिवृष्टि को उसका स्पष्ट संकेत माना जा सकता है। बरसात के इस मिजाज ने अनेक इलाकों का, कुछ समय के लिए ही सही, हुलिया ही बदल दिया था।  मौसम विभाग के अनुसार, इस साल देश में 25 साल के बाद, सबसे अधिक मानसूनी बरसात हुई है। आंकडे बताते हैं कि जून से सितम्बर के बीच 963.3 मिलीमीटर पानी बरसा है। यह मात्रा बरसात के दीर्घकालीन औसत (880.6 मिलीमीटर) से लगभग दस प्रतिशत अधिक है। गौरतलब है कि इस साल की बरसात ने देश के पश्चिमी भाग को अधिक भिगोया है। कुछ इलाकों में सितम्बर में पानी अधिक बरसा है। सितम्बर की बरसात ने संतृप्त धरती से रन-आॅफ को बढ़ने में मदद दी है।

अरसे से लोग बाढ़ और सूखे को प्राकृतिक घटना बता कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे हैं। यह अनुचित है क्योंकि जब हम बाढ़ प्रबन्ध के मद में धन खर्च करते हैं तो उसकी सफलता या विफलता का श्रेय भी हमारा ही है। इसलिए बाढ़ को प्राकृतिक घटना मानने के स्थान पर तकनीकी चुनौती मानना चाहिए। बाढ़ से निपटने के लिए नए सिरे से सोचना चाहिए। पुराने तरीके के तकनीकी पक्ष को परिष्कृत करना चाहिए। इसी अनुक्रम में बिहार की मौजूदा बाढ़ को समझने का बौद्धिक प्रयास होना चाहिए। इस बौद्धिक प्रयास को पटना नगर से प्रारंभ कर गंगा नदी के बाकी बचे नदी तंत्र की भूमिका पर खत्म करना चाहिए। यह कहानी हर नगर की कहानी है, फिर वह चाहे दिल्ली हो या चेन्नई। पुणे हो या पटना। सब जगह कहानी एक ही है। 

इस संदर्भ में एक ताजी घटना याद आती है। अभी कुछ ही दिन पहले पटना के हवाई अड्डे का रन-वे 17 सितम्बर 2019 को हुई अल्पकालीन अतिवृष्टि के कारण खराब हो गया था। उसके कारण 18 सितम्बर 2019 की उठानें प्रभावित हुईं थीं। इस समस्या को अतिवृष्टि का परिणाम बताया गया था। कुछ लोगों को लगता है कि यह हवाई अड्डे से जल निकासी की सटीक व्यवस्था के अभाव का प्रतिफल भी हो सकता है। आने वाले दिनों में जलवायु परिवर्तन के कारण कम समय में अधिक पानी बरसने की घटनायें सामान्य हो सकती हैं। उस स्थिति में हमारा काम सभी इंजीनियरिंग संरचनाओं के तकनीकी पक्ष में सुधार के साथ-साथ बरसाती पानी की निचली बसाहटों से त्वरित निकासी भी होगा। यह काम सभी जगह, स्थानीय भूगोल के मुताबिक, मामूली बदलाव के साथ करना पड़ेगा। वही समस्या का स्थायी समाधान होगा। यथास्थित या अनदेखी समस्या का हल नहीं है। 

किसी भी नगर या कस्बे में बरसाती पानी की निकासी अमूनन नालों के माध्यम से होती है। ये नाले कुदरत द्वारा बहते पानी द्वारा गढ़े मार्ग पर चलकर, किसी बड़ी नदी से जुड जाते हैं। बड़ी नदी से जुडने का यह क्रम चलता रहता है। इसी पद्धति से कछार का सारा पानी अन्ततः समुद्र को मिल जाता है। गौरतलब है कि सभी नाले उदगम पर संकरे होते हैं। धीरे-धीरे वे क्रमशः चैडे होते जाते हैं। यह व्यवस्था कुदरती है। वह बदलाव पानी की बढ़ती मात्रा के निपटान की निरापद व्यवस्था का हिस्सा है। उसी व्यवस्था के कारण बाढ़ का पानी न्यूनतम समय में आगे बढ़ जाता है। इसी व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में बाढ़ के पानी की निकासी को देखना चाहिए। वही व्यवस्था बसाहटों को जल प्रलय से मुक्ति दिलाएगी। 

पटना में बाढ़ के दौरान जल भराव हुआ। नतीजा सामने है। यह केवल ड्रेनेज की कमी या उसकी अपर्याप्तता का परिणाम नहीं है। किसी हद तक यह पटना के शहरीकरण के दौरान प्राकृतिक नालों को सहेज कर नहीं रखने का परिणाम भी है। उनके ढ़ाल और क्रमशः बढ़ती चैड़ाई को बदलने का परिणाम भी है। यदि उनके कुदरती स्वरुप के साथ छेडछाड नहीं की होती, उन्हें व्यवधान रहित रखा होता तो पानी की निकासी बेहतर होती। इसके अलावा, गंगा जो इस पूरे तंत्र के पानी को बंगाल की खाडी को सोंपती है, फरक्का बैराज के कारण, काफी हद तक असहाय है। फरक्का बैराज से गंगा की तली में जमा हो रही गाद ने गंगा का ढ़ाल कम किया है। कम ढ़ाल के कारण गंगा का वेग कम हुआ है। इन सब कारणों के मिले-जुले असर के कारण बिहार ने बाढ़ की मौजूदा त्रासदी भोगी है। भूगोल बदलने का खामयाजा भोगा है। पर्यावरण, नदी विज्ञान और नगर नियोजन में ड्रेनेज के साथ हुई नाइंसाफी की कीमत चुकाई है। यह त्रासदी हर शहर की है। इसलिए अब ड्रेनेज को समग्रता में समझना होगा। पानी की निकासी के लिए नाला बनाना या उसे पक्का करना पर्याप्त नहीं है। शहर के पानी को उसके गन्तव्य तक पहुँचाना ही ड्रेनेज का सही लक्ष्य है। वही सही प्रबन्ध है। उसे अपनाने के अलावा और कोई विकल्प नही है। उसकी अनदेखी का अर्थ विकास को हानि पहुँचाना है। 

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