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शुक्रवार डॉट नेट
उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री सुशील कुमार मोदी ने पिछले गुरुवार को विधानसभा में अपना नौवां बजट पेश करते हुए जब दावा किया कि राज्य की औसत वार्षिक विकास दर 11.95 प्रतिशत रही है तो यह लगा कि शायद उसके दिन बहुरेंगे पर विकास के इन आंकड़ों में बिहार के दलित और आदिवासी हाशिये पर ही रहे। वित्त मंत्री शायद उन आंकड़ों को शामिल करना भूल गए जिसमें यह स्पष्ट संकेत है- महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) में वर्ष 2012-13 में बिहार के दलितों की भागीदारी मात्र 23.97 प्रतिशत रही और 1.37 करोड़ ही मानव दिवस सृजत हुआ। जिस मनरेगा कानून के तहत ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब परिवार को साल में कम से कम 100 दिन काम देने की गारंटी मिली थी उस कानून का इतना बुरा हश्र होगा, यह किसी ने नहीं सोचा था।
पिछले पाँच साल के आंकड़े बताते हैं कि किस तरह मनरेगा के तहत सबसे कम काम दलितों को मिला। 2008-09 में मनरेगा में दलितों की भागीदारी मात्र 50.6 प्रतिशत थी और 4.96 करोड़ मानव दिवस सृजित हुए।
2009 में ये आंकड़े क्रमश: 45.30 प्रतिशत और 5.15 करोड़ थे। पिछले पाँच सालों में मनरेगा में दलितों की भागीदारी का अनुपात घटकर आधा हो गया और मानव दिवसों का सृजन घटकर लगभग एक चौथाई हो गया।
2012-13 का ग्राफ काफी चिंताजनक है, इस साल मात्र 1.37 करोड़ मानव दिवस सृजित हुए। आंकड़े गवाह हैं कि किस तरह बिहार के दलितों को काम से अलग किया जा रहा है। सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है। ग्रामीण विकास विभाग के मंत्री नीतीश मिश्रा स्वीकार करते हैं कि दलितों की भागीदारी कम हुई है पर अभी तक इसकी वजहों को नहीं तलाशा गया है। हो सकता है कि मजदूरों को मनरेगा से बेहतर काम दूसरे राज्यों में मिल रहा हो। पैसों का सही समय पर भुगतान नहीं किया जाना और मनरेगा में पनपे भ्रष्टाचार भी इसकी बड़ी वजह हो सकती है।
इस खाई को पाटने के लिये सरकार ने महादलित टोला में खास अभियान चलाया ताकि उन्हें मनरेगा से जोड़ा जा सके। स्पष्ट है कि सरकार की चिंता के केंद्र में दलित नहीं हैं। कई ऐसे मामलों का खुलासा हुआ है जिनमें मजदूरों को काम के एक साल बाद भी मजदूरी का भुगतान नहीं किया गया।
नालंदा जिला की लाखो देवी ने एक साल पहले स्कूल के भवन निर्माण में 15 दिनों की मजदूरी की, जिसका पूरा भुगतान अभी तक नहीं हुआ है। इसके बाद तालाब खुदाई के लिये उन्होंने 14 खंती का काम किया। तीन महीने गुजर गए पर पूरी मजदूरी नहीं मिली। मजदूरी से वंचित रहने वाली अकेले लाखो देवी नहीं हैं। जिस मनरेगा कानून के तहत मजदूरों को साल में कम से कम 100 दिन काम देने की गारंटी दी गई है, वहाँ मजदूरों को साल में दस दिनों का भी काम नहीं मिलता। महिलाओं की स्थिति दलितों से भी खराब है। आंकड़े बताते हैं राज्य के 38 जिलों में मात्र 22 से 33 प्रतिशत ही महिलाओं को काम मिला है। आज से चार वर्ष पहले जब बिहार में मनरेगा लागू हुआ तो यह उम्मीद बनी थी कि राज्य से मजदूरों का पलायन रुकेगा। आंकड़े बताते हैं कि बिहार से बाहर जाकर काम करने वाले मजदूरों की तादाद में हर वर्ष इजाफा हो रहा है। बिहार उन पाँच राज्यों में से है, जहाँ से सबसे ज्यादा मजदूरों का पलायन होता है। 2011-12 तक मजदूरों के पलायन में लगभग 300 प्रतिशत इजाफा हुआ है।
दरअसल मनरेगा के पीछे यह अवधारणा रही है कि रोजगार के अवसर खुलेंगे तो पलायन रुकेगा। आंकड़े बताते हैं कि मनरेगा के तहत रोजगार के लिये 2009-10 में 1 करोड़ 22 लाख 48 हजार 705 परिवारों का निबंधन किया गया जिनमें मात्र 34 लाख 29 हजार 47 परिवारों को काम मिला। पिछले साल 2010-11 में सरकार ने मनरेगा योजना पर 2600 करोड़ रु. खर्च किए, 2011-12 में यह राशि घटकर 1208 करोड़ रु. हो गई। काम की कमी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2011-12 में मात्र 6 करोड़ 53 लाख श्रम दिवस ही सृजित हो पाए।
जो कार्यक्रम राज्य की तस्वीर बदल सकता था, उसकी आड़ में बिचौलियों और ठेकेदारों का एक नया वर्ग पैदा हो गया है जो न सिर्फ मजदूरों का हक मार रहा है बल्कि सामाजिक तनाव भी पैदा कर रहा है। आंकड़े बताते हैं कि अधिकतर मजदूरों को जॉब कार्ड नहीं मिला है। जिसके पास जॉब कार्ड है उसे औसतन 26 दिन से भी कम काम मिला है। एक तरफ मनरेगा के तहत काम सृजित नहीं हो पा रहा है, दूसरी ओर सरकार ने 2400 करोड़ रु. वापस कर दिए। मनरेगा की यह हालत देश भर में है।
काम के दिनों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। वित्त वर्ष 2010-11 में मनरेगा के लिये 30,377 करोड़ रु. खर्च किए गए, जबकि 2011-12 में यह राशि 37,637 करोड़ रु. थी। 2012-13 में जनवरी तक इस योजना के तहत केवल 26,508 करोड़ रु. ही खर्च हुए। आंकड़े बताते हैं कि 2009-10 में लोगों को सबसे ज्यादा 53.99 दिन रोजगार मिला। 2011-12 आते-आते यह आंकड़ा घटकर 42.43 दिन ही रह गया। चालू वित्त वर्ष में जनवरी माह तक गरीब परिवार को औसतन 34.65 दिन ही काम मिल पाया।
दरअसल गरीबों का हक मारने में राज्य सरकार हो या केंद्र, सभी का व्यवहार एक-सा है। सरकार यह दावा करती है कि मनरेगा के तहत मजदूरों को काम मिल रहा है। इन दावों का सच यह है कि सरकार खुद अपने कामों की निगरानी नहीं कर पा रही है। अगर काम मिलता तो पलायन नहीं होता, न ही दलितों की जिंदगी में इतने अवसाद के क्षण आते। पलायन सिर्फ एक मजदूर का नहीं होता बल्कि पलायन से घर-परिवार, समाज व संस्कृति प्रभावित होती है। यह एक ऐसा दु:स्वप्न है, जो जिंदगी भर पीछा करता है।