बीहड़ भूमि का समतलीकरण - खतरा या अवसर (Leveling the Chambal Ravines - Right or Wrong)

Submitted by Editorial Team on Mon, 09/11/2017 - 16:34
Source
डाउन टू अर्थ, सितम्बर, 2017

चम्बल नदी घाटी का लगभग 4,800 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र इस बीहड़ के अन्तर्गत आता है जिसका विकास मुख्य रूप से चम्बल नदी के दोनों किनारों पर हुआ है, जो इस इलाके की जीवनरेखा है। चम्बल के किनारे पर घाटी का गठन काफी सघन है जिसका 5 से 6 किमी का क्षेत्र गहरे नालों के जाल से बँटा हुआ है। कई छोटे और बड़े नाले अन्ततः नदी में मिलकर नदी प्रणाली में गाद को काफी बढ़ा देते हैं। पानी के प्रवाह के कारण उत्पन्न गाद को इस घाटी प्रभावित क्षेत्र की एक प्रमुख संचालक शक्ति माना जाता है। भूमि ह्रास दुनिया के कई हिस्सों में एक गम्भीर पर्यावरणीय चुनौती का रूप ले चुका है। घाटी, भूमि ह्रास का ही एक रूप है जो भूमि के अत्यधिक विच्छेदित भागों का निर्माण करती है। घाटी बनने का प्रमुख कारण पानी का तेज बहाव है जो मुख्य रूप से प्राकृतिक प्रक्रिया है, किन्तु मनुष्य की गतिविधियों के कारण इसकी तीव्रता बढ़ सकती है। वैश्विक अनुमान के अनुसार कुल ह्रास क्षेत्र न्यूनतम 100 करोड़ हेक्टेयर से लेकर अधिकतम 6 अरब हेक्टेयर हो सकता है, जिसके स्थान सम्बन्धी वितरण में भी इतना ही अन्तर है। कृषि-आधारित देशों में भूमि ह्रास का विकास और कल्याण पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

भारत में पानी से मृदा का कटाव, भूमि ह्रास के सबसे महत्त्वपूर्ण कारणों में से एक है। केवल भारत में लगभग 3.61 करोड़ हेक्टेयर भूमि पानी द्वारा कटाव से प्रभावित है। इस श्रेणी में सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश हैं। मध्य भारत में चम्बल घाटी देश के सबसे प्रभावित क्षेत्रों में से है। चम्बल मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में कटाव से प्रभावित क्षेत्र है, जिसे आमतौर पर घाटी के रूप में जाना जाता है। चम्बल यमुना नदी की एक महत्त्वपूर्ण सहायक नदी चम्बल नदी के किनारे स्थित है।

स्थानीय रूप से बीहड़ के नाम से प्रचलित चम्बल घाटी भारत का सबसे निम्नीकृत भूखण्ड है। चम्बल के बीहड़ में बड़े नाले और अत्यधिक विच्छेदित घाटी शामिल है। यह क्षेत्र अपने कमतर विकास और उच्च अपराध दर के लिये जाना जाता है। चम्बल नदी घाटी का लगभग 4,800 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र इस बीहड़ के अन्तर्गत आता है जिसका विकास मुख्य रूप से चम्बल नदी के दोनों किनारों पर हुआ है, जो इस इलाके की जीवनरेखा है। चम्बल के किनारे पर घाटी का गठन काफी सघन है जिसका 5 से 6 किमी का क्षेत्र गहरे नालों के जाल से बँटा हुआ है। कई छोटे और बड़े नाले अन्ततः नदी में मिलकर नदी प्रणाली में गाद को काफी बढ़ा देते हैं। पानी के प्रवाह के कारण उत्पन्न गाद को इस घाटी प्रभावित क्षेत्र की एक प्रमुख संचालक शक्ति माना जाता है।

इस घनी आबादी वाले क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक संरचना काफी जटिल है। गाँवों में रहने वाले 80 प्रतिशत से अधिक लोग मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं। इस क्षेत्र में कोई बड़ा उद्योग नहीं है तथा जीवनयापन के अन्य विकल्प भी सीमित हैं। इसलिये, भूमि पर निर्भरता काफी अधिक है। भूमि के कटाव और नालों की संरचना, जो उनकी भूमि की उपलब्धता को और कम करती है, का सामना कर रहे क्षेत्र के किसान इससे निपटने के कई वैकल्पिक तरीके अपनाते आये हैं।

इन समस्याओं से निपटने के तरीकों में बाँध की रूपरेखा बनाना, चैनलिंग, नालों का रास्ता बदलना, फसल उगाने के तरीकों में परिवर्तन तथा सबसे महत्त्वपूर्ण, भूमि को समतल बनाना शामिल है। भारी एवं आधुनिक मशीनरी की अधिकाधिक उपलब्धता के कारण हाल के वर्षों में भूमि को समतल करने के काम में अत्यधिक बढ़ोत्तरी हुई है। हालांकि इस इलाके में सर्वेक्षण के दौरान, किसानों ने समतल की गई भूमि की गुणवत्ता एवं उत्पादकता के सम्बन्ध में निराशा प्रकट की। अपनी भूमि के एक हिस्से को समतल करने के लिये मशीनरी किराए पर लेने के चलते भारी कर्ज लेने वाले एक अधेड़ किसान ने बताया, “ज्यादातर मामलों में, समतल की गई भूमि अनुत्पादक हो जाती है तथा भूमि को समतल बनाए रखना एक महंगा काम है।”

पम्पसेट वाले कुछ गाँवों और कुछ सम्पन्न किसानों को छोड़कर, इस क्षेत्र में कृषि पूरी तरह से वर्षा पर आधारित है। समतल की गई सिंचित भूमि शुरुआती वर्षों में उत्पादक और फायदेमन्द साबित होती है। परन्तु निकट भविष्य में ही समतल की गई भूमि पर लगातार सिंचाई से और कटाव शुरू हो जाता है क्योंकि खेतों के बीच में नालियाँ और छोटे गड्ढे बनने लगते हैं। समतल की गई भूमि की देखभाल करना बहुत श्रम-साध्य प्रक्रिया है क्योंकि इस भूमि को दोबारा भरकर, दबाकर, पुश्ते बनाकर तथा बाड़ लगाकर रख-रखाव करने की निरन्तर आवश्यकता होती है। यह ध्यान दिया गया है कि पिछले 40 वर्षों (1970 के दशक के मध्य से लेकर 2014 तक) के दौरान निचली चम्बल घाटी में लगभग 600 वर्ग किमी के क्षेत्र को समतल किया गया है। मिट्टी के टीलों को तोड़ने के लिये मशीनरी किराए पर लेने की लागत 800 रुपए प्रति घंटा है।

भूमि की निकटता और वहाँ तक पहुँच जैसे कारणों के आधार पर समतल की जाने वाली भूमि का चुनाव किया जाता है। इस प्रकार बिना पूर्व नियोजन के समतल की गई भूमि पर रख-रखाव की लागत बढ़ जाती है।

बीहड़ एकीकृत पारिस्थितिकी तंत्र का एक हिस्सा है। भूमि को समतल करने से न केवल पारिस्थितिकी नष्ट होती है बल्कि मिट्टी की ऊपरी परत भी ढीली हो जाती है जिसके कारण मिट्टी के कटाव का खतरा बढ़ जाता है तथा भूमि और नालियाँ बनने के लिये संवेदनशील हो जाती है। भूमि को समतल करने में तथा खेती शुरू करने में एक वर्ष का समय लगता है। अनियमित बारिश वाले वर्षों में हालात और भी खराब हो जाते हैं क्योंकि लगातार भारी बारिश होने से खेतों में बड़े पैमाने पर मिट्टी का कटाव शुरू हो जाता है। समतल की गई भूमि पर नालियों के बनने की प्रक्रिया और अतिक्रमण अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। यदि ध्यान नहीं दिया गया तो थोड़े ही समय में बहुमूल्य अछूती भूमि भी नालियों के कटाव का शिकार बन जाएगी।

भूमि को समतल बनाने का प्रभाव क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक असमानता पर भी पड़ता है। भूमि को समतल बनाने की भारी-भरकम लागत को देखते हुए यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि केवल वे लोग ही भूमि को समतल बनाकर उसे खेती योग्य बनाए रख सकते हैं जिनके पास पर्याप्त श्रम शक्ति है और धन है। प्रत्येक बारिश के बाद नालों के सिरों को दोबारा भरने और भूमि को समतल बनाए रखने के लिये निरन्तर देखभाल और निगरानी की जरूरत है। घाटी की भूमि के एक बड़े हिस्से को हर वर्ष समतल किया जा रहा है तथा जंगल समेत साझा भूमि और चारागाहों की भूमि में गिरावट आ रही है। इस प्रकार बीहड़ को समतल करने से साझा भूमि के निजीकरण की सम्भावना पैदा हो गई है। यद्यपि छोटे किसान भी भूमि को समतल बनाते हैं, तथापि ग्रामीण किसानों के शक्ति सम्पन्न तबके ने इसका सबसे ज्यादा फायदा उठाया है।

ग्रामीणों के साथ हमारी सामूहिक चर्चाओं के दौरान स्थानीय लोगों के जीवनयापन के साधन के रूप में बीहड़ के कई उपयोग सामने आये। यह प्राकृतिक स्थल बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह ईंधन की लकड़ी का प्रमुख स्रोत है जिनमें कीकर, बबूल, पारबती, केर आदि वृक्ष प्रमुख हैं। जंगली फल जैसे टेंटी और बेर अचार बनाने के लिये इकट्ठा किया जाता जिसका इस्तेमाल घरेलू उपभोग और आस-पास के बाजारों में बेचने के लिये किया जाता है। इसके अलावा लोग हमेशा से घाटी की जमीन का इस्तेमाल अपने मवेशियों के लिये चारागाह के रूप में करते रहे हैं। ऐसी भूमि का अधिक्रमण करने से और उसे समतल बनाने से साझा भूमि निजी भूमि में बदल गई है तथा इसके परिणामस्वरूप सामान्य ग्रामीणों, विशेष रूप से सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले ग्रामीणों की इस भूमि तक पहुँच को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है।

हमारे क्षेत्र सर्वेक्षण के दौरान, कई भूमिहीन लोगों ने बताया कि पहले वे अपने मवेशियों को चराने के लिये बीहड़ पर निर्भर थे, जो अब आसानी से उपलब्ध नहीं है। इस कारण मवेशियों की जनसंख्या कम हो गई है तथा वर्षा आधारित कृषि और मवेशियों के बीच का जैविक सम्बन्ध टूट गया है। कई भूमिहीन और सीमान्त किसानों के लिये इसका मतलब पास के शहरों की ओर पलायन है जहाँ वे कामगार, घरेलू नौकर और फैक्टरी मजदूर के रूप में काम करने के लिये मजबूर हैं।

बीहड़ का विनाश और बड़े किसानों तथा प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा इस पर कब्जा करने के लिंग सम्बन्धी आयाम भी हैं। इस मुद्दे पर आधारित सामूहिक चर्चा के दौरान कई महिलाओं ने घास-फूस के इस्तेमाल से घर के अन्दर होने वाले प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं की शिकायत की थी। इसका प्रभाव बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। बीहड़ से ईंधन की लकड़ी इकट्ठा करना दिन-ब-दिन मुश्किल होने के कारण पिछले कुछ वर्षों के दौरान घास-फूस का इस्तेमाल बढ़ा है, विशेषकर आर्थिक रूप से कमजोर घरों में। ऐसे परिवर्तन स्थानीय अर्थव्यवस्था तथा समाज को और विघटन की ओर ले गए हैं जिसके कारण उत्पीड़न और अपराध के लम्बे इतिहास वाले इस क्षेत्र में सामाजिक असमानता और मतभेदों में वृद्धि हुई है।

दूसरी ओर, प्राकृतिक आवास के नष्ट होने के कारण जंगली जानवर आमतौर पर खेतों में घुस आते हैं तथा खड़ी फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं। अनेक किसानों ने जंगली जानवरों द्वारा हो रहे नुकसान को न रोक पाने की अपनी व्यथा हमारे साथ बाँटी। उनमें से कुछ ने अरहर की खेती करना ही छोड़ दिया है, जिसे उगाने में अधिक समय लगता और लम्बे समय तक उसकी सुरक्षा करनी पड़ती है। कभी-कभी इस समस्या के कारण उन्हें जमीन खाली छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता है।

अत्याधुनिक मशीनरी की उपलब्धता और सड़क सम्पर्क में सुधार होने के साथ ही इस क्षेत्र में भूमि को समतल करने के काम में और तेजी आई है। भूमि को समतल करने के लिये मशीनरी किराए पर देना शक्ति सम्पन्न स्थानीय लोगों के लिये कारोबार करने के अवसर के रूप में सामने आया है। अतिशय भूमि का औद्योगीकरण के लिये इस्तेमाल की योजना है। इस क्षेत्र की संवेदनशील पारिस्थितिकी के लिये इनके दीर्घकालीन प्रभावों के चलते ऐसी योजनाओं की सावधानीपूर्वक जाँच करने की जरूरत है। ऐसे स्थान पर जहाँ प्राकृतिक प्रक्रियाएँ अब भी सक्रिय हैं, उद्योग, गौशाला आदि की योजना बनाना उचित नहीं होगा।

भू-आकृति विज्ञान के सन्दर्भ में, यह क्षेत्र अब भी सन्तुलन की स्थिति में नहीं है, यह अब भी भूगर्भीय अपरदन की प्रक्रियाओं के नियंत्रण में है। मृदा अपरदन के प्रभाव को कम-से-कम करने के लिये संवेदनशील पारिस्थितिकी वाले इस क्षेत्र के लिये संरक्षण और विकास की अधिक वैज्ञानिक, सुव्यवस्थित और संवेदनशील योजना बनाने की आवश्यकता है। इस क्षेत्र में कोई भी अन्य निर्माणगत गतिविधि मिट्टी के अधिक नुकसान का कारण बनेगी तथा नदी में बड़ी मात्रा में गाद इकट्ठा हो जाएगी जिसके कारण नदी के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ता है। इससे निःसन्देह आगे और बाढ़ आएगी।

भूमि को समतल करने के अल्पकालिक लाभ से बड़ा नुकसान हो सकता है, जिसे पलटा नहीं जा सकता। नुकसान होने के बाद उसकी चिन्ता करने से बेहतर है कि इसे रोका जाये। बीहड़ को समतल करने से पारिस्थितिकीय प्रभाव न केवल ऐसी अद्भुत प्राकृतिक छटा को हानि पहुँचाएगा; बल्कि इससे सामाजिक सौहार्द्र पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, मतभेद बढ़ेंगे और इससे गरीबों पर पलायन का संकट खड़ा हो जाएगा। अतः संवेदनशील पारिस्थितिकी के प्रति सर्वांगीण दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। चम्बल घाटी के प्रति आर्थिक लाभ की संकीर्ण सोच सही नहीं होगी। पैसे से प्रकृति की कीमत नहीं आँकी जा सकती।

(लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में सहायक प्रोफेसर हैं)