पालन करे, सो प्रज्ञजन

Submitted by Hindi on Mon, 03/12/2018 - 13:39

भारतीय संस्कृति में नदी के प्रति उचित व्यवहार करने हेतु जहाँ एक ओर दण्ड का प्रावधान है, वहीं दूसरी ओर नदी को इतना महत्व की स्थिति में प्रस्तुत किया गया; ताकि समाज उचित व्यवहार के लिये स्वयं प्रेरित हो।

भारतीय संस्कृति, सिर्फ नदी से व्यवहार करने की ही सीख नहीं देती; उस सीख की पालना के प्रावधान भी सांस्कृतिक निर्देश की तरह हमें विरासत से मिले हैं। आइये, जानें:

नदीव्यवहार पालना प्रावधान


1. दण्ड प्रावधान: स्पष्ट है कि नदी के प्रति निर्देशित व्यवहार को न करना, नदी के प्रति अपराध है। इसी क्रम में मनुस्मृति (अध्याय तीन, श्लोक संख्या-163) ने नदी के बहाव को दूसरी ओर ले जाना अथवा उसके प्रवाह को रोकने को अपराध घोषित किया है; साथ ही ऐसा अपराध करने वाले को श्राृद्धादि कर्म से त्याज्य बताया है।

स्त्रोतासां भेदको यश्च तेषां चावरणे रतः।

इसी प्रकार मनुस्मृति-अध्याय तीन के 281वें श्लोक मेें सर्वसाधारण के उपयोग हेतु बने तालाबों के जल को खराब करने, उस पर कब्जा करने तथा आगे के रास्ते को रोकने को अपराध कर्म मानते हुए राजा को निर्देश दिया है कि ऐसे अपराध के लिये प्रथम साहस का दण्ड दे।

यस्तु पूर्वनिविष्टस्य तडाग्स्योद्रव्यं हरेत।
आगमंवाप्यपाँ भिघास्स दाप्यं पूूर्ण साहस्य।।

चूंकि तालाबों का जल भी नदी को सिंचित करता है। अतः तालाबों के प्रति किए गए अपराध को भी नदी के प्रति अप्रत्यक्ष रूप से किया गया अपराध ही मानना चाहिए।

2. प्रेरक प्रावधान: भारतीय संस्कृति में नदी के प्रति उचित व्यवहार करने हेतु जहाँ एक ओर दण्ड का प्रावधान है, वहीं दूसरी ओर नदी को इतना महत्व की स्थिति में प्रस्तुत किया गया; ताकि समाज उचित व्यवहार के लिये स्वयं प्रेरित हो।

समाज,नदियों से कैसा व्यवहार करे ? इसके लिये प्रत्येक नदी के उद्गम से संगम तक मठ-मंदिर बनाये। मठ-मंदिरों में साधुओं को नदी को गुरुभाव वाला चौकीदार बनाकर बैठाया। नर्मदा किनारे इतने मंदिर बनाये गए, जितने शायद ही किसी अन्य नदी के किनारे हों। नदी के प्रवाह को संस्कृति का प्रवाह कहा। दो नदियों के संगम को दो-संस्कृतियों का संगम बताया। किसी-किसी ने तो भारत की संस्कृति को गंगा-जमुनी संस्कृति ही कह डाला।

न माधव ससो मासो। न कृतेन युग समम्।
न च वेद समं शास्त्रं। न तीर्थ गंगया समम्।।

तात्पर्य यह कि न बैसाख जैसा कोई महीना है, न सतयुग समान कोई युग है, न वेद समान कोई शास्त्र हैं और न गंगा समान कोई तीर्थ हैं।

यह बताते हुए स्कन्द पुराण ने यदि गंगा को तीर्थ कहा, तो पद्म पुराण के अनुसार जिस नदी के तीर्थ का नाम ज्ञात न हो, उसे ‘विष्णुतीर्थ’ कहें। प्रसाद के रूप में वितरित किए जाने वाले पंचामृत में दूध, दही, घी, शहद के अतिरिक्त गंगाजल को मिश्रित किए जाने का निर्देश है। क्या महर्षि व्यास, क्या वाल्मीकि, शुक, कालिदास और भवभूति..अनेकानेक कवियों ने नदियों की स्तुति में काव्य रचे। संस्कृति ने नदी के पत्थरों तक को शंकर जैसा मान दिया। ’कंकर-कंकर में शंकर’ की उक्ति प्रथम बार नर्मदा के पत्थरों के लिये कही गई। निर्देश दिया गया कि शिवलिंग के पत्थर नर्मदा के ही हों; वैष्णवों के शालीग्राम गंडकी नदी के हों।

एक अन्य निर्देशानुसार, जब तक प्रजा चार समुद्र और सात नदियों का जल लाकर राजा का अभिषेक नहीं करती, राजा को राज करने का अधिकारी नहीं माना जाये।

नदियों के किनारे विशेष मौकों पर विशेष स्नान व मेलों के आयोजन के निर्देश हैं। भैया दूज, गंगा दशहरा आदि तो पूर्णरूपेण नदी पर्व हैं। अकेेले गंगा को लें, तो वर्ष भर में 21 विशेष तिथि/अवसर पर गंगा पूजन के अवसर होते हैं:

1. गंगा दशहरा
2. पूर्णिमा स्नान
3. व्यास पूर्णिमा (आषाढ़ मास)
4. शरद पूर्णिमा (आश्विन मास)
5. कार्तिक पूर्णिमा
6. माघी पूर्णिमा
7. कजरी पूर्णिमा (श्रावण मास)
8. हरिशयनी एकादशी (आषाढ़ शुक्ल पक्ष)
9. देवोत्थान एकादशी (कार्तिक शुक्ल पक्ष)
10. मकर सक्रान्ति (माघ मास)
11. चैत सम्वत्
12. शिवरात्रि
13. पितृपक्ष (अमावस्या स्नान)
14. सूर्य ग्रहण
15. चन्द्र ग्रहण
16. सोमवती अमावस्या (जब सोमवार के दिन अमावस्या पडे़)
17. गंगा सप्तमी (बैसाख शुक्ल पक्ष)
18. माघ मेला
19. कुंभ
20. अर्धकुंभ
21. कांवर (श्रावण मास)

इन 21 अवसरों का उल्लेख करते हुए यह भी निर्देश दिया गया है कि किस अवसर पर किस स्थान पर स्नान अथवा आयोजन का महत्व होगा।

माघ मकर दिस जब रवि जाहू।
सब कोई प्रयाग नहावहू।।

अर्थात माघ के महीने में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करेे, अर्थात मकर सक्रान्ति पर इलाहाबाद प्रयाग में स्नान करना चाहिए। इसी प्रकार कार्तिक पूर्णिमा स्नान का विशेष स्थान गढ़मुक्तेश्वर गंगा तट माना गया। कुंभ आयोजन के चार स्थान बताये गएः हरिद्वार इलाहाबाद प्रयाग, उज्जैन और नासिक।

गंगा द्वारे प्रयागे च धारा गोदावरी तटे।
कुम्भारव्यौ दिव्य योगोग्यं प्रोच्यते शंकरादर्ध।।

तर्क यह है कि जब बृहस्पति ग्रह, शनि की खास राशि कुंभ में प्रवेश करता है तथा सूर्य और चन्द्रमा मंगल की राशि मेष में आ जाते हैं, तब इनका प्रभाव बिंदु हरिद्वार का गंगा तट माना गया है। जब बृहस्पति ग्रह, शुक्र की राशि वृष में प्रवेश करता है तथा सूर्य और चन्द्रमा का शनि की मकर राशि में प्रवेश होता है, तो प्रभाव बिंदु इलाहाबाद संगम पर केन्द्रित होता है। जब बृहस्पति ग्रह, सूर्य की राशि सिंह में प्रवेश करता है तथा जब तक सूर्य चन्द्रमा सहित सिंह राशि में बना रहता है, तब तक प्रभाव बिंदु महाराष्ट्र में नासिक स्थित गोदावरी तीर पर केन्द्रित होता है। इसी तरह जब बृहस्पति सिंहस्थ हो, सूर्य मंगल की मेष राशि में हो तथा चन्द्रमा शुक्र की राशि तुला में पहुंच जाये, तो प्रभाव क्षेत्र महाकाल की नगरी उज्जैन में शिप्रा नदी का तट बनता है। उक्त प्रभाव बिंदु केन्द्रों के अनुसार ही अलग-अलग समय में कुंभ आयोजन के स्थान तय किए गए हैं। खास स्थानों को तीर्थ स्थापना के पीछे भी विशेष समय पर स्थान विशेष पर ग्रहों के विशेष प्रभाव को आधार माना गया है।

3. लोक प्रभाव: ऐसे प्रेरक प्रावधानों और वैज्ञानिक तर्काें का एक समय ऐसा अच्छा असर हुआ कि प्रेरित लोक ने भी नदियों को पर्याप्त महत्व देते हुए नदी दर्शन, स्नान, पान और दान को आस्था के रूप में स्थान दिया। तमाम कष्ट के बावजूद आज भी अधिकांश लोग पैदल, कुछ नंगे पैर और कोई-कोई तो लेटकर नदी परिक्रमा करते हैं। लम्बे समय से वे ऐसा ही करते आ रहे हैं। यह नदी के प्रति लोगों की आस्था का प्रमाण है। श्रीराम वनवास के दौरान माँ सीता द्वारा गंगा पार करते वक्त सकुशल वापस लौटने पर पूजन की मनौती का प्रसंग सर्वविदित ही है। “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबै।’’ भोजपुरी लोकगीत के ये शब्द आज भी नदियों को मनोकामना पूर्ण करने वाली शक्ति मानने का प्रमाण हैं। मृत्यु पूर्व दो बूंद गंगाजल की आज भी कायम लोकाकांक्षा से परिचित हैं ही। मातायें आज भी जानती हैं कि कि जिनके भी पेट में गर्मी होती है, सिर पर जल डालते ही उन्हे मूत्र त्याग की इच्छा होती है। अतः वे खासकर छोटे बच्चों को शौचादि कराकर ही नदी, तालाब आदि में स्नान के लिये लाती हैं।