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एक दूसरी कथा के अनुसार, गाधिराज की पुत्री और ऋषि ऋचीक की पत्नी सत्यवती अपने पति का अनुसरण करते हुए स्वर्ग गई। सत्यवती का पृथ्वी पर पुनः अवतरण एक जलधारा के रूप में हुआ। कुशिक वंश से सम्बन्ध होने के कारण इस जलधारा को ‘कौशिकी’ नाम मिला। ‘कौशिकी’ को ही हम आज बिहार की कोसी नदी के नाम से जानते हैं।
भिन्न नदियाँ और इनके नामकरण के भिन्न-भिन्न आधार। कहीं आकार, तो कहीं स्थानीयता, कहीं कोई कथा-प्रसंग तो कहीं कुछ और। कहीं किसी और के नाम का आधार खुद कोई नदी है। आइये, जाने क्या है नदी-नाम सम्बन्ध ?नदी नामकरण
नदियों के नामकरण के भिन्न आधार दिए गए हैं। अधिकांश नदियों के नामकरण उनके गुण, वंश अथवा उद्गम स्थल के आधार पर किए गए हैं।उदाहरण के तौर पर कहा गया कि ‘गं अव्ययं गम्यति इति गंगा’ अर्थात जो स्वर्ग को जाये, वह गंगा है। गंगा के विष्णुपदी, जाहन्वी, भागीरथी, त्रिपथगा आदि सहस्त्रनाम हैं, जिनके अस्तित्व में आने की वजह भिन्न घटना, सम्बन्ध अथवा गुण बताये गए हैं। यम की बहन होने के कारण ’यमी’ नाम प्राप्त धारा ही कालांतर में ’यमुना’ कहलाई। कलिन्दज पर्वत से निकलने के कारण यमुना का एक नाम ‘कालिंदी’ पड़ा।
एक कथा के अनुसार, पार्वती नदी के शरीर से निकली ‘शिवा’ नदी को ही कालांतर में ‘कौशिकी’ नाम मिला। एक दूसरी कथा के अनुसार, गाधिराज की पुत्री और ऋषि ऋचीक की पत्नी सत्यवती अपने पति का अनुसरण करते हुए स्वर्ग गई। सत्यवती का पृथ्वी पर पुनः अवतरण एक जलधारा के रूप में हुआ। कुशिक वंश से सम्बन्ध होने के कारण इस जलधारा को ‘कौशिकी’ नाम मिला। ‘कौशिकी’ को ही हम आज बिहार की कोसी नदी के नाम से जानते हैं।
कोसी के नामकरण तथा कोसी के प्रति ऋषि विश्वामित्र की आस्था का जिक्र, रामायण में है। ताड़का वध पश्चात् शोणभद्र (सोन नदी) की ओर प्रस्थान करते हुए स्वयं ऋषि विश्वामित्र ने अपनी बड़ी बहन सत्यवती और इसके पुनः अवतरण का जिक्र राजकुमार राम-लक्ष्मण से किया है। रामायण में विश्वामित्र को गाधिराज का पुत्र बताया गया है। ‘कौशिक सुनहु मंद यह बालक’ -रामचारित मानस में राम विवाह प्रसंग के दौरान ऋषि परशुराम द्वारा ऋषि विश्वामित्र को ‘कौशिक’ नाम का सम्बोधन विश्वामित्र के कुशिक वंश से सम्बन्ध होने का प्रमाण है। कोसी नामकरण पर विस्तृत जानकारी श्री दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक - ‘दुई पाटन के बीच’ में भी उपलब्ध है।कुछ नदियों के नाम के आधार किसी प्राणी के गुणों जैसे उनके गुण बने। गो-मती, गो-दावरी, साबर-मती, बाघ-मती आदि ऐसे ही नाम है। गौतम ऋषि के तप से प्रकट होने के कारण गोदावरी का एक नाम ’गौतमी गंगा’ भी है। सरीसृप जैसे घुमावदार प्रवाह मार्ग के कारण उत्तर प्रदेश की एक नदी का नाम ‘सई’ है। नर्मदा, तापी, पेनमगंगा, कृष्णा, काली, तुंगभद्रा, से लेकर मूसी, मीठी, पेन्नर, पेरियार, अडयार, वेदवती, सुवर्णमुखी, कमला, मयूराक्षी, पुनपुन, घाघरा, ब्रह्मपुत्र जैसे तमाम नाम वाली धाराएं भारत में हैें।
स्पष्ट है कि इन जलधाराओं के नामकरण के आधारों को जानकर हम इनके गुण, सम्बन्ध तथा स्थानीयता के बारे में कुछ न कुछ जानकारी अवश्य प्राप्त कर सकते हैं।
नदी आधार पर भूमि नामकरण
भाद्र कृष्णचतुर्दश्या यावदाक्रमते जलम्।
तवद गर्भ विज्ञानीयात् तर्द्ध्व तीरमुच्यते।
सर्धहस्तशतं यावत् गंगातीरामिति स्मृतम।
तीराद्ग्वयूतिमात्रं च परितःक्षेत्र मुच्यते।
तीरक्षेत्रमिदं प्रोक्तं सर्वपाप विवर्जितम्।
(सन्दर्भ ग्रंथ: वृहद धर्मपुराण, ऋषि मनीषा कथन - 54, 45- 47)
इसका तात्पर्य है कि भाद्र कृष्ण चतुर्दशी को जितनी दूर तक गंगा का फैलाव रहता है, उतनी दूर तक गंगा के दोनो तटों का भू-भाग ‘नदी गर्भ’ कहलाता है। ‘नदी गर्भ’ के बाद 150 हाथ की दूरी का भू-भाग ‘नदी तीर’ कहलाता है। ‘नदी तीर’ से एक ग्वयूति यानी दो हजार धनुष की भूमि को ‘नदी क्षेत्र’ कहा गया है। एक ग्वयूति यानी दो हजार धनुष यानी दो मील यानी एक कोस यानी तीन किलोमीटर। इस तरह दोनो नदी तीरों से तीन-तीन किलोमीटर की दूरियाँ ‘नदी क्षेत्र’ हुईं।
नदी भूमि के इस विस्तार को जानना इसलिये भी जरूरी है, चूंकि उक्त सन्दर्भ सिर्फ नदी भूमि का विस्तार ही नहीं बताता, बल्कि इस विस्तृत भूमि में पापकर्म करने से भी मना करता है। पापकर्म यानी जो कर्म नदी जैविकी के किसी भी अंग अथवा क्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हों।
नदी भूमि के उक्त विस्तार को सामने रखकर यदि हम अपनी नदी के नदी गर्भ क्षेत्र, तीर क्षेत्र और नदी क्षेत्र में चल रही गतिविधियों की सूची बनायें, तो यह आकलन करना आसान हो जायेगा कि नदी के साथ हम पापकर्म कर रहे हैं या पुण्य कर्म ?
नदी आधार पर भूमि के अन्य विभाजन देखिए। जिस भूमि पर की जाने वाली कृषि पूरी तरह वर्षा पर आधारित हो, उसे ‘देव मातृक भूमि’ की श्रेणी में रखा गया। जो भूमि कृषि के लिये नदी जल पर आधारित हो, उसे ‘नदी मातृक भूमि’ की श्रेणी में रखा गया। गंगा-यमुना दो नदियों के बीच की भूमि को ‘दोआब’ कहा गया। ‘दो-आब’ यानी जिस भूमि के दोनो ओर सतही जल प्रवाह हो। कई इलाकों की स्थानीय बोली में नदी किनारे की भूमि के लिये ‘तराई’ या ‘तिराई’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
नदी आधार पर भूमि नामकरण के अन्य सन्दर्भ खोजने चाहिए। उन्हे जानकर यदि श्रेणी बदल गई है, तो हम अपनी भूमि की श्रेणी के बदलाव के इतिहास से परिचित हो सकेंगे।
यहाँ एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि भारतीय सांस्कृतिक ग्रथों ने किसी प्रशासनिक सीमा को उत्तर और दक्षिण भारत की विभाजन रेखा के रूप में उल्लिखित करने की बजाय, नदियों को इसका आधार बनाया है। दक्षिणी क्षेत्र को ‘गोदावरी दक्षिण तीरे’ तथा उत्तरी क्षेत्र को ’रेवा उत्तर तीरे’ तथा उत्तर भारत को ‘रेवाखण्ड’ कहा है। रेवा यानी नर्मदा नदी।
नदियों को आधार बनाकर किए भूमि विभाजन से पता चलता है कि भारतीय संस्कृति का नदियों से कितना गहरा परिचय था। इसे आप नदी आधार के जरिए लोगों को उनकी भू-सांस्कृतिक विविधता से गहराई से परिचय कराने की कोशिश भी कह सकते हैं।
नदी आधार पर गोत्र नामकरण
ऋषि सन्तानों द्वारा ऋषियों के नाम पर गोत्र नामकरण की प्रथा काफी पुरानी तथा सर्वविदित है। कहा जाता है कि कौशिक यानी ऋषि विश्वामित्र के वंशज होने नाते एक वर्ग ने अपने गोत्र का नाम कौशिक रखा। किन्तु नदी सन्दर्भ के अनुसार कौशिकी नदी के नाम पर ’कौशिक’ गोत्र तथा ब्राह्मणों के एक वर्ग का नामकरण हुआ। इसी तरह सरस्वती नदी के नाम पर ’सारस्वत’ गोत्र के नामकरण की बात सामने आती है। सन्दर्भ है कि पण्डे-पुरोहितों के वर्ग ने स्वयं को सरस्वती की सन्तान मानते हुए स्वयं के गोत्र को ’सारस्वत’ का नाम दिया। इसी तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश की सरयू नदी के उत्तर दिशा में रहने वाले ब्राह्मणों ने कभी अपने को ’सरयूपारिण ब्राह्मण’ कहकर सम्बोधित किया।
सन्दर्भ मिलता है कि लोगों ने अपनी ही नहीं, अपने मवेशियों तक की पहचान को नदियों से जोड़ना श्रेयस्कर समझा। श्री काका कालेलकर ने अपनी पुस्तक ’जीवन लीला’ में इसका जिक्र करते हुए सिंधु तट के घोड़ों को ’सैंधव’, महाराष्ट्र की भीमा नदी के टट्टुओं को ’भीमा थड़ी के टट्टू’ और हरियाणा की गाय को ’यमुनापारी’ नामकरण का उल्लेख किया है। गौर कीजिए कि अंग्रेजों ने कृष्णा नदी के इलाके की सुंदर गायों को ’कृष्णा वैली ब्रीड’ का नाम दिया।
ये नामकरण प्रमाण हैं कि भारतीय समाज के एक वर्ग ने नदी से जुड़ाव को गौरव का विषय समझा। यह जुड़ाव हमेशा रहे, इसी उद्देश्य से नदी के नाम को अपने गोत्र अथवा वर्ग नाम के रूप में अपना लिया। इसी तरह ’कुहुल’ का प्रबन्धन करने के कारण ही एक वर्ग के नाम के साथ ’कोहली’ जुड़ा है।प्रश्न यह है कि क्या आज कौशिक, सारस्वत, सरयूपारिण ब्राह्मण नदियों से तथा कोहली कुहुलों से अपने गौरवपूर्ण जुड़ाव को व्यवहार में कायम रख सके हैं ?