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नदी में तांबे, सोना, चाँदी के सिक्के डालने का चलन था, आज की तरह नुकसानदेह गिलट के नहीं। नदी में स्नान से पहले प्रवाह से बहुत दूरी पर छोटे बच्चों को मूत्र त्याग करा देने का चलन था। कई जगह तो नदी में स्नान से पहले, घर से स्नान करके चलने का भी चलन जिक्र में आया है। अपने साथ लाया कचरा छोड़ने की परम्परा तो कभी नहीं रही। किन्तु आज स्नान के सम्बन्ध में उक्त पौराणिक निर्देशों को पोंगापंथी से ज्यादा अधिक महत्त्वपूर्ण मानता कौन है? कार्तिक पूर्णिमा - कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अन्तिम तिथि! मौसमी बदलाव का एक खास बिन्दु! शरद गई, हेमन्त आई। पित्त गया, अब कफ बढ़ेगा; ठंड बढ़ेगी। गौर कीजिए, साल के 12 महीनों में कार्तिक, सर्वाधिक पवित्र उत्सव माह है। पूरे माह तुलसी की पूजा-अर्चना होती है।
अन्तिम पाँच दिन तुलसी, आँवला, शिव व सूर्य स्नान को समर्पित हो जाते हैं। अन्तिम तिथि, कार्तिक पूर्णिमा तिथि विशेष महत्त्व लेकर आती है। कार्तिक पूर्णिमा, स्नान पर्व से ज्यादा, कई संयोगों के महायोग की तिथि है।
अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से सिख गुरू गुरू नानक जी का जन्म तिथि 15 अप्रैल,1469 को बताया जाता है। भारतीय कालगणना, गुरू नानक जी का प्रकाशोत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मानना तय करती है। इस नाते, इस दिवस का एक प्रमुख आकर्षण गुरू नानक जी प्रकाशोत्सव भी है।
कई दिन पहले से प्रभातफेरियाँ, फिर गुरू ग्रन्थ साहिब का 48 घंटे का अखण्ड पाठ; प्रकाशोत्सव के दिन प्रातः चार से पाँच बजे की ‘अमृतवेला’, ‘असर-दी-वर’ के साथ सुप्रभात, फिर कथा, कीर्तन और लंगर यानी भक्ति, सेवा और उत्सव का अद्भुत समागम का तिथि भी है कार्तिक पूर्णिमा। जैन समुदाय, प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ के मन्दिर की विशेष तीर्थ यात्रा का आयोजन भी इस तिथि को करता है।
हिन्दू पौराणिक कथा है कि त्रिपुरासुर ने देवताओं को हराया; आकाश में तीन नगर भी बसाए। इन तीन नगरों को संयुक्त रूप से ‘त्रिपुरा’ का नाम दिया। कार्तिक पूर्णिमा को भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर का संहार कर दिया। इस नाते, कार्तिक पूर्णिमा का एक नाम ‘त्रिपुरि पूर्णिमा’ भी है। शिव आराधना के लिये महाशिवरात्रि के बाद सबसे अधिक महत्त्व की दूसरी तिथि, कार्तिक पूर्णिमा ही मानी गई है।
त्रिपुरासुर की मृत्यु पर देवों ने शिव के निर्देश पर इस दिन दीपोत्सव मनाया। काशी-कानपुर के गंगा घाटों से लेकर, जैन समुदाय के बीच कार्तिक पूर्णिमा आज भी ‘देव दीपावली’ के रूप में ही मनाई जाती है।
कार्तिक पूर्णिमा, तुलसी और देवों में प्रमुख कार्तिकेय के सारांश के रूप में उत्पन्न ‘वृंद’ की जन्म तिथि है। देवउठनी ग्यारस से तुलसी विवाह शुरू हो जाता है। कार्तिक पूर्णिमा, तुलसी विवाहोत्सव सम्पन्न होने की तिथि है। मृत पूर्वजों को समर्पण की दृष्टि से भी कार्तिक पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है। राधा और कृष्ण के रासोत्सव की तिथि भी यही मानी गई है।
कार्तिक पूर्णिमा, वैवत्सय की रक्षा के लिये भगवान विष्णु द्वारा मत्स्यावतार यानी मछली की देह धारण कर पृथ्वी पर अवतरित होने की तिथि भी है। वैवत्सय, सातवें मनु का नाम है। सातवें मनु से ही मानव प्रजाति उद्गम माना गया है। गंगा स्नान के जरिए, मानव प्रजाति, सातवें मनु की रक्षा के लिये, मत्स्यावतार लेने वाले विष्णु का आभार भी प्रकट करती है।
कार्तिक पूर्णिमा का स्नान, शीत ऋतु से पहले का अन्तिम गंगा स्नान होता है। इसे साधारण स्नान नहीं माना जाता। कार्तिक पूर्णिमा पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित गढ़ मुक्तेश्वर में विशेष मेला लगता है और विशेष स्नान होता है। कार्तिक पूर्णिमा को राजस्थान के पुष्कर में भी विशेष मेला लगता है और वहाँ स्थित पवित्र सरोवर में भी विशेष स्नान होता है।
नदी स्नान के बहाने नदी तट पर हुआ सूर्य स्नान, इस दिवस पर विटामिन डी का खजाना लेकर आता है। यह, इस स्नान के लाभ का आधुनिक पक्ष है। ज्योतिष मानता है कि कार्तिक पूर्णिमा को भरुणी अथवा रोहिणी नक्षत्र होने की स्थिति हो, तो इस तिथि के लाभ का परिमाण और बढ़ जाता है।
भारत के पारम्परिक ज्ञानतंत्र ने भी स्नान के पक्ष में कई तर्क पेश किये हैं; तद्नुसार स्नान, सिर्फ एक क्रिया नहीं, बल्कि जल के तीन कर्मकाण्डों में एक कर्मकाण्ड है। शेष दो कर्मकाण्ड, तर्पण और श्राद्ध हैं। स्नान का स्थान, भोजन से भी ऊँचा है। पुलस्त्य ऋषि कहते हैं कि स्नान के बिना न तो शरीर निर्मल होता है और न ही बुद्धि।
मन की शुद्धि के लिये सबसे पहले स्नान का ही विधान है। भविष्य पुराण में श्री कृष्ण ने भी यही कहा है। इसी कारण, स्वस्थ मनुष्य के लिये स्नान कभी निषेध नहीं। पवित्र नदी, समुद्र, सरोवर, कुआँ और बावड़ी जैसे प्राकृतिक जलस्रोतों से सीधे किये जाने वाले वरुण स्नान की महिमा तो वेद-पुराणों ने भी गाई है।
वे तो यहाँ तक लिख गए हैं कि त्याग, तीर्थ, स्नान, यज्ञ और होम से जो फल मिलता है, धीर पुरुष उपर्युक्त स्नानों से ही वे फल प्राप्त कर लिया करते हैं। स्नान मंत्रों के भी बाकायदा उल्लेख मिलते हैं:
पंचामृतेन सुस्नातस्तथा गन्धोदकेन च।
ग्रगादीनां च तोयेन स्नातो नन्तः देहि में सदा।।
अर्थात पंचामृत और चन्दनयुक्त जल से भली भाँति नहाकर, गंगा आदि नदियों के जल से स्नान किये हुए भगवान अनन्त मुझ पर प्रसन्न हों।
स्नातो हं सर्वतीर्थेपु गर्ते प्रस्नवणेपु च।
नदीपु सर्वतीर्थेपु तत्स्नानं देहि में सदा।।
अर्थात मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों तथा नदियों में स्नान कर चुका। जल! आप मुझे इन सभी में स्नान करने का फल प्रदान करो।
पद्म पुराण के मुताबिक, महर्षियों के पूछने पर ब्रह्मा ने पाँच प्रकार के स्नान बताए हैं: आग्नेय, वरुण, ब्रह्मा, वायव्य और दिव्य। सम्पूर्ण शरीर में भस्म लगाना, आग्नेय स्नान है। वायु चलने से गौ के चरणों से उड़ने वाली धूल से स्नान, वायव्य स्नान है। जल से स्नान, वरुण स्नान है।
धूप रहते हुए यदि आकाश से पानी बरसे और कोई उस उसमें स्नान करे, तो उसे दिव्य स्नान का नाम दिया गया है। ‘आपो हिष्ठा...’ ऐसी ऋचाओं से किये जाने वाले स्नान को ब्रह्म स्नान कहते हैं।
स्मृतियाँ पाँच और प्रकार के स्नान बताती हैं। कहती है कि तुलसी के पत्ते से स्पर्श किया हुआ जल, शालीग्राम शिला को नहलाने पश्चात् का जल, गौओं के सींग से स्पर्श किया हुआ जल, ब्राह्मण का चरणोदक तथा मुख्य गुरुजनों का चरणोदक अत्यन्त पवित्र होता है। इन पाँच प्रकार के जलों से मस्तक का अभिषेक करना भी स्नान के पाँच प्रकार हैं।
आप प्रश्न कर सकते हैं कि हमारे पौराणिक ग्रंथ स्नान से हमारे लाभ की बात तो करते हैं, किन्तु क्या नदियों में हमारे स्नान करने से नदियों को भी कुछ लाभ होता है? नदी स्नान का आधुनिक चित्र देखें, तो कह सकते हैं कि नहीं, उलटे हानि ही होती है। स्नान पीछे स्नानार्थिंयों द्वारा छोड़कर गए कचरे से नदी और उसका तट मलीन ही होते हैं। यदि नदी स्नान के पारम्परिक निर्देशों की पालना करें, तो कह सकते हैं कि हाँ, हमारे स्नान से नदी को लाभ होता है।
श्री नरहरिपुराण का अध्याय 58 स्नान विधि बताते हुए विशेष निर्देश देता है: “स्नान के लिये कुश, तिल और शुद्ध मिट्टी लें। प्रसन्नचित्त होकर नदी तट पर जाएँ। पवित्र स्नान पर तिल छिड़ककर, कुश और मिट्टी रखे दें। नदी में प्रवेश से पूर्व शुद्ध मिट्टी से अपने शरीर पर लेप करने के पश्चात् जल से स्नान करें। आचमन करें। स्वच्छ जल में प्रवेश करके वरुण देव को नमस्कार करें।
इसके बाद ही जहाँ, पर्याप्त जल हो, वहाँ डुबकी लगाकर स्नान करें। स्नान पश्चात् वरुण देव का अभिषेक, कुश के अगले भाग के जल से अपने शरीर का मार्जन करें। ‘इदं विष्णुर्विचक्रमें..’ मंत्र का पाठ करते हुए शरीर के क्रमशः तीन भागों में मिट्टी का लेप करें। फिर नारायण का स्मरण करते हुए जल में प्रवेश करें। फिर जल में डुबकी लगाकर तीन बार अघमर्षण पाठ करें।
तत्पश्चात् कुश और तिलों से देवताओं, ऋषियों और पितरों का तर्पण करें। समाहितचित हों। जल से बाहर आकर धुले हुए दो श्वेत वस्त्रों को धारण करें। धोती अथवा उत्तरीय धारण करने के पश्चात् अपने केशों को न फटकारें।
अत्यधिक लाल और नीले वस्त्र न पहनें। जिस वस्त्र में मल, दाग लगा हो अथवा किनारी न हो, उसका त्याग कर दें। मिट्टी और जल से अपने चरण धोएँ। तीन बार आचमन करें। क्रमशः अंगों का स्पर्श करें। अंगूठे और तर्जनी से नासिका को स्पर्श करें। इसके बाद शुद्ध व एकाग्रचित्त होकर पूर्व दिशा में मुँह करके कुशासन पर बैठ जाएँ और तीन बार प्राणायाम करें।
इसी प्रकार भविष्य पुराण में गंगा स्नान की विधि भी बताई गई है। इन विधियों में नदी के साथ हमारे आचरण की स्वच्छता और पवित्रता स्वतः निहित है। इससे नदी को नुकसान कहाँ हुआ? उलटे, एक साथ स्नान के कारण हुई जलीय हलचल से तात्कालिक तौर पर नदी को प्राणवायु ही मिलती है; ठीक वैसे, जैसे एक माँ को सभी सन्तानों से एक साथ मिलकर मिलती है।
मिलन में शुचिता की दृष्टि से ही ‘गंगा रक्षा सूत्र’ ने गंगा तट पर प्रतिबन्धित गतिविधियों का भी जिक्र किया है। नदी में तांबे, सोना, चाँदी के सिक्के डालने का चलन था, आज की तरह नुकसानदेह गिलट के नहीं। नदी में स्नान से पहले प्रवाह से बहुत दूरी पर छोटे बच्चों को मूत्र त्याग करा देने का चलन था।
कई जगह तो नदी में स्नान से पहले, घर से स्नान करके चलने का भी चलन जिक्र में आया है। अपने साथ लाया कचरा छोड़ने की परम्परा तो कभी नहीं रही। किन्तु आज स्नान के सम्बन्ध में उक्त पौराणिक निर्देशों को पोंगापंथी से ज्यादा अधिक महत्त्वपूर्ण मानता कौन है?
पवित्रता व स्वच्छता के ऐसे निर्देशों की पालना को न करने के कारण ही, आज हमने नदियों की दुर्दशा कर दी है। ऐसे स्नान, नदी को मान्य नहीं है। क्या इस कार्तिक पूर्णिमा पर हम वैसे स्नान को तत्पर होंगे, जो कि नदी को मान्य हो? आइए, संकल्प करें। आस्था की माँग भी यही है और नदी की माँग भी यही।
अन्तिम पाँच दिन तुलसी, आँवला, शिव व सूर्य स्नान को समर्पित हो जाते हैं। अन्तिम तिथि, कार्तिक पूर्णिमा तिथि विशेष महत्त्व लेकर आती है। कार्तिक पूर्णिमा, स्नान पर्व से ज्यादा, कई संयोगों के महायोग की तिथि है।
संयोगों का महायोग
अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से सिख गुरू गुरू नानक जी का जन्म तिथि 15 अप्रैल,1469 को बताया जाता है। भारतीय कालगणना, गुरू नानक जी का प्रकाशोत्सव कार्तिक पूर्णिमा को मानना तय करती है। इस नाते, इस दिवस का एक प्रमुख आकर्षण गुरू नानक जी प्रकाशोत्सव भी है।
कई दिन पहले से प्रभातफेरियाँ, फिर गुरू ग्रन्थ साहिब का 48 घंटे का अखण्ड पाठ; प्रकाशोत्सव के दिन प्रातः चार से पाँच बजे की ‘अमृतवेला’, ‘असर-दी-वर’ के साथ सुप्रभात, फिर कथा, कीर्तन और लंगर यानी भक्ति, सेवा और उत्सव का अद्भुत समागम का तिथि भी है कार्तिक पूर्णिमा। जैन समुदाय, प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ के मन्दिर की विशेष तीर्थ यात्रा का आयोजन भी इस तिथि को करता है।
हिन्दू पौराणिक कथा है कि त्रिपुरासुर ने देवताओं को हराया; आकाश में तीन नगर भी बसाए। इन तीन नगरों को संयुक्त रूप से ‘त्रिपुरा’ का नाम दिया। कार्तिक पूर्णिमा को भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर का संहार कर दिया। इस नाते, कार्तिक पूर्णिमा का एक नाम ‘त्रिपुरि पूर्णिमा’ भी है। शिव आराधना के लिये महाशिवरात्रि के बाद सबसे अधिक महत्त्व की दूसरी तिथि, कार्तिक पूर्णिमा ही मानी गई है।
त्रिपुरासुर की मृत्यु पर देवों ने शिव के निर्देश पर इस दिन दीपोत्सव मनाया। काशी-कानपुर के गंगा घाटों से लेकर, जैन समुदाय के बीच कार्तिक पूर्णिमा आज भी ‘देव दीपावली’ के रूप में ही मनाई जाती है।
कार्तिक पूर्णिमा, तुलसी और देवों में प्रमुख कार्तिकेय के सारांश के रूप में उत्पन्न ‘वृंद’ की जन्म तिथि है। देवउठनी ग्यारस से तुलसी विवाह शुरू हो जाता है। कार्तिक पूर्णिमा, तुलसी विवाहोत्सव सम्पन्न होने की तिथि है। मृत पूर्वजों को समर्पण की दृष्टि से भी कार्तिक पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है। राधा और कृष्ण के रासोत्सव की तिथि भी यही मानी गई है।
कार्तिक पूर्णिमा, वैवत्सय की रक्षा के लिये भगवान विष्णु द्वारा मत्स्यावतार यानी मछली की देह धारण कर पृथ्वी पर अवतरित होने की तिथि भी है। वैवत्सय, सातवें मनु का नाम है। सातवें मनु से ही मानव प्रजाति उद्गम माना गया है। गंगा स्नान के जरिए, मानव प्रजाति, सातवें मनु की रक्षा के लिये, मत्स्यावतार लेने वाले विष्णु का आभार भी प्रकट करती है।
कितना महत्वपूर्ण स्नान?
कार्तिक पूर्णिमा का स्नान, शीत ऋतु से पहले का अन्तिम गंगा स्नान होता है। इसे साधारण स्नान नहीं माना जाता। कार्तिक पूर्णिमा पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित गढ़ मुक्तेश्वर में विशेष मेला लगता है और विशेष स्नान होता है। कार्तिक पूर्णिमा को राजस्थान के पुष्कर में भी विशेष मेला लगता है और वहाँ स्थित पवित्र सरोवर में भी विशेष स्नान होता है।
नदी स्नान के बहाने नदी तट पर हुआ सूर्य स्नान, इस दिवस पर विटामिन डी का खजाना लेकर आता है। यह, इस स्नान के लाभ का आधुनिक पक्ष है। ज्योतिष मानता है कि कार्तिक पूर्णिमा को भरुणी अथवा रोहिणी नक्षत्र होने की स्थिति हो, तो इस तिथि के लाभ का परिमाण और बढ़ जाता है।
भारत के पारम्परिक ज्ञानतंत्र ने भी स्नान के पक्ष में कई तर्क पेश किये हैं; तद्नुसार स्नान, सिर्फ एक क्रिया नहीं, बल्कि जल के तीन कर्मकाण्डों में एक कर्मकाण्ड है। शेष दो कर्मकाण्ड, तर्पण और श्राद्ध हैं। स्नान का स्थान, भोजन से भी ऊँचा है। पुलस्त्य ऋषि कहते हैं कि स्नान के बिना न तो शरीर निर्मल होता है और न ही बुद्धि।
मन की शुद्धि के लिये सबसे पहले स्नान का ही विधान है। भविष्य पुराण में श्री कृष्ण ने भी यही कहा है। इसी कारण, स्वस्थ मनुष्य के लिये स्नान कभी निषेध नहीं। पवित्र नदी, समुद्र, सरोवर, कुआँ और बावड़ी जैसे प्राकृतिक जलस्रोतों से सीधे किये जाने वाले वरुण स्नान की महिमा तो वेद-पुराणों ने भी गाई है।
वे तो यहाँ तक लिख गए हैं कि त्याग, तीर्थ, स्नान, यज्ञ और होम से जो फल मिलता है, धीर पुरुष उपर्युक्त स्नानों से ही वे फल प्राप्त कर लिया करते हैं। स्नान मंत्रों के भी बाकायदा उल्लेख मिलते हैं:
पंचामृतेन सुस्नातस्तथा गन्धोदकेन च।
ग्रगादीनां च तोयेन स्नातो नन्तः देहि में सदा।।
अर्थात पंचामृत और चन्दनयुक्त जल से भली भाँति नहाकर, गंगा आदि नदियों के जल से स्नान किये हुए भगवान अनन्त मुझ पर प्रसन्न हों।
स्नातो हं सर्वतीर्थेपु गर्ते प्रस्नवणेपु च।
नदीपु सर्वतीर्थेपु तत्स्नानं देहि में सदा।।
अर्थात मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों तथा नदियों में स्नान कर चुका। जल! आप मुझे इन सभी में स्नान करने का फल प्रदान करो।
स्नान के 10 प्रकार
पद्म पुराण के मुताबिक, महर्षियों के पूछने पर ब्रह्मा ने पाँच प्रकार के स्नान बताए हैं: आग्नेय, वरुण, ब्रह्मा, वायव्य और दिव्य। सम्पूर्ण शरीर में भस्म लगाना, आग्नेय स्नान है। वायु चलने से गौ के चरणों से उड़ने वाली धूल से स्नान, वायव्य स्नान है। जल से स्नान, वरुण स्नान है।
धूप रहते हुए यदि आकाश से पानी बरसे और कोई उस उसमें स्नान करे, तो उसे दिव्य स्नान का नाम दिया गया है। ‘आपो हिष्ठा...’ ऐसी ऋचाओं से किये जाने वाले स्नान को ब्रह्म स्नान कहते हैं।
स्मृतियाँ पाँच और प्रकार के स्नान बताती हैं। कहती है कि तुलसी के पत्ते से स्पर्श किया हुआ जल, शालीग्राम शिला को नहलाने पश्चात् का जल, गौओं के सींग से स्पर्श किया हुआ जल, ब्राह्मण का चरणोदक तथा मुख्य गुरुजनों का चरणोदक अत्यन्त पवित्र होता है। इन पाँच प्रकार के जलों से मस्तक का अभिषेक करना भी स्नान के पाँच प्रकार हैं।
स्नान का विधान
आप प्रश्न कर सकते हैं कि हमारे पौराणिक ग्रंथ स्नान से हमारे लाभ की बात तो करते हैं, किन्तु क्या नदियों में हमारे स्नान करने से नदियों को भी कुछ लाभ होता है? नदी स्नान का आधुनिक चित्र देखें, तो कह सकते हैं कि नहीं, उलटे हानि ही होती है। स्नान पीछे स्नानार्थिंयों द्वारा छोड़कर गए कचरे से नदी और उसका तट मलीन ही होते हैं। यदि नदी स्नान के पारम्परिक निर्देशों की पालना करें, तो कह सकते हैं कि हाँ, हमारे स्नान से नदी को लाभ होता है।
श्री नरहरिपुराण का अध्याय 58 स्नान विधि बताते हुए विशेष निर्देश देता है: “स्नान के लिये कुश, तिल और शुद्ध मिट्टी लें। प्रसन्नचित्त होकर नदी तट पर जाएँ। पवित्र स्नान पर तिल छिड़ककर, कुश और मिट्टी रखे दें। नदी में प्रवेश से पूर्व शुद्ध मिट्टी से अपने शरीर पर लेप करने के पश्चात् जल से स्नान करें। आचमन करें। स्वच्छ जल में प्रवेश करके वरुण देव को नमस्कार करें।
इसके बाद ही जहाँ, पर्याप्त जल हो, वहाँ डुबकी लगाकर स्नान करें। स्नान पश्चात् वरुण देव का अभिषेक, कुश के अगले भाग के जल से अपने शरीर का मार्जन करें। ‘इदं विष्णुर्विचक्रमें..’ मंत्र का पाठ करते हुए शरीर के क्रमशः तीन भागों में मिट्टी का लेप करें। फिर नारायण का स्मरण करते हुए जल में प्रवेश करें। फिर जल में डुबकी लगाकर तीन बार अघमर्षण पाठ करें।
तत्पश्चात् कुश और तिलों से देवताओं, ऋषियों और पितरों का तर्पण करें। समाहितचित हों। जल से बाहर आकर धुले हुए दो श्वेत वस्त्रों को धारण करें। धोती अथवा उत्तरीय धारण करने के पश्चात् अपने केशों को न फटकारें।
अत्यधिक लाल और नीले वस्त्र न पहनें। जिस वस्त्र में मल, दाग लगा हो अथवा किनारी न हो, उसका त्याग कर दें। मिट्टी और जल से अपने चरण धोएँ। तीन बार आचमन करें। क्रमशः अंगों का स्पर्श करें। अंगूठे और तर्जनी से नासिका को स्पर्श करें। इसके बाद शुद्ध व एकाग्रचित्त होकर पूर्व दिशा में मुँह करके कुशासन पर बैठ जाएँ और तीन बार प्राणायाम करें।
इसी प्रकार भविष्य पुराण में गंगा स्नान की विधि भी बताई गई है। इन विधियों में नदी के साथ हमारे आचरण की स्वच्छता और पवित्रता स्वतः निहित है। इससे नदी को नुकसान कहाँ हुआ? उलटे, एक साथ स्नान के कारण हुई जलीय हलचल से तात्कालिक तौर पर नदी को प्राणवायु ही मिलती है; ठीक वैसे, जैसे एक माँ को सभी सन्तानों से एक साथ मिलकर मिलती है।
नदी को मान्य स्नान का संकल्प जरूरी
मिलन में शुचिता की दृष्टि से ही ‘गंगा रक्षा सूत्र’ ने गंगा तट पर प्रतिबन्धित गतिविधियों का भी जिक्र किया है। नदी में तांबे, सोना, चाँदी के सिक्के डालने का चलन था, आज की तरह नुकसानदेह गिलट के नहीं। नदी में स्नान से पहले प्रवाह से बहुत दूरी पर छोटे बच्चों को मूत्र त्याग करा देने का चलन था।
कई जगह तो नदी में स्नान से पहले, घर से स्नान करके चलने का भी चलन जिक्र में आया है। अपने साथ लाया कचरा छोड़ने की परम्परा तो कभी नहीं रही। किन्तु आज स्नान के सम्बन्ध में उक्त पौराणिक निर्देशों को पोंगापंथी से ज्यादा अधिक महत्त्वपूर्ण मानता कौन है?
पवित्रता व स्वच्छता के ऐसे निर्देशों की पालना को न करने के कारण ही, आज हमने नदियों की दुर्दशा कर दी है। ऐसे स्नान, नदी को मान्य नहीं है। क्या इस कार्तिक पूर्णिमा पर हम वैसे स्नान को तत्पर होंगे, जो कि नदी को मान्य हो? आइए, संकल्प करें। आस्था की माँग भी यही है और नदी की माँग भी यही।