जल-जीवन मिशन: नगरीय अनुभवों से सीखें गांव

Submitted by Shivendra on Fri, 06/11/2021 - 15:05

जल-जीवन मिशन: नगरीय अनुभवों से सीखें गांव, Source:needpix.com,फोटो

प्रचार वाक्य ’हर घर जल’ और जल जीवन मिशन द्वारा ग्राम पंचायतों और पानी समितियों को दिए मार्गदर्शी निर्देश - यदि इन दो आइनों को सामने रखें तो गर्व से कहना होगा कि संवैधानिक भारत के इतिहास में यह पहला अवसर है कि जब किसी केन्द्रीय सरकार ने 73वें संविधान संशोधन की लोकतांत्रिक भावना के अनुरुप स्थानीय पेयजल प्रबंधन की योजना, क्रियान्वयन, कर्मचारी, निगरानी और संस्थागत् अधिकारों को वास्तव में उन गांवों को सौंप दिया है, जिन्हे पानी पीना है। 
हर घर में नल, नल से जल - यदि इस लक्ष्य वाक्य को सामने रखें, तो कहना होगा कि यह गांवों के लिए एक बेहद चुनौतीपूर्ण सौदा है; पानी प्रबंधन ही नहीं, जीवन शैली तक बदल देने की चुनौती पेश करने वाला सौदा।
नूतन पथ

यह सच है कि प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951) से लेकर अब तक भारत स्वच्छ-शुद्ध पेयजल मुहैया कराने की मुहिम में भारत 1500 अरब रुपए से अधिक धनराशि खर्च कर चुका है; बावजूद इसके नतीजे अनुकूल नहीं है। पेयजल की अशुद्धि से मरने वालों की संख्या बढ़ी है। जल उपलब्धता लगातार घटती जा रही है। वर्ष - 1951 में जल उपलब्धता 5177 क्युबिक मीटर प्रति व्यक्ति थी। वर्ष - 2050 में 1000 क्युबिक मीटर प्रति व्यक्ति हो जाने का आकलन है। इससे यह तो स्पष्ट है कि हमने जो रास्ता अब तक अख्तियार किया था; वह पूरी तरह कारगर साबित नहीं हुआ। अतः नया पथ तो चुनना ही होगा। 

निस्संदेह, जल-जीवन मिशन ने एक नूतन पथ चुना है। उपभोक्ता को जल प्रबंधन की जवाबदेही सौंपने का पथ। ग्रामीण, नगरीय...हर घर को नल से जल देने का पथ। परम्परा, प्यासे को कुएं के पास जाने का निर्देश देती रही है। नल, पानी को प्यासे के पास ले जाने वाला अविष्कार है। यह अविष्कार, परम्परा उलट पथ है। ऐसी मान्यता के कारण ही कभी दिल्ली के गांवों में इस लोकगीत के स्वर गूंजते थे - फिरंगी नल न लगायो....। अतः इस नूतन पथ की पड़ताल तो करनी ही होगी। आइए, दो बुनियादी प्रश्न से शुरुआत करें। 

बुनियादी प्रश्न

स्वयं से पूछें कि पेयजल यदि सीधे हैण्डपम्प अथवा कुएं से मिले, तो क्या सभी को शुद्ध पेयजल प्राप्ति की गारण्टी असंभव होगी ? क्या हर घर को नल से जल पहुंचा देने मात्र से गारण्टी संभव हो जाएगी ? 

ये दो ऐसे बुनियादी प्रश्न है,, जिनके उत्तर पाए बगै़र न तो शुद्ध पेयजल प्राप्ति को लेकर ज़रूरी सावधानियों के प्रति सजग हुआ जा सकता है और न ही उन व्यवस्थाओं तथा मार्गदेशी निर्देशों के महत्व को समझा जा सकता है, जो जल-जीवन मिशन के दस्तावेज़ों में दर्ज हैं। आइए, उत्तर हासिल करें।

प्रश्न 01: क्या हैंडपम्प-कुएं से असंभव शुद्ध पानी ?
 
गौर करें कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के शुरु में पेश ’वाटर एड’ की रिपोर्ट में प्रति वर्ष 3.77 करोड़ भारतीय आबादी के जल-जनित बीमारियों से ग्रसित होने का आंकड़ा दर्शाया है। यहां जलजनित मतलब जल संचारी। केन्द्रीय स्वास्थ्य आसूचना ब्यूरो तथा स्वास्थ्य-परिवार कल्याण मंत्रालय ने वर्ष-2018 पर आधारित आंकडे़ दिए हैं: जल-जनित बीमारियों से ग्रसितों की संख्या - 36 हज़ार व्यक्ति प्रति दिन अर्थात 1.314000 करोड़ व्यक्ति प्रति वर्ष; तदनुसार हमारी तत्कालीन कुल आबादी का लगभग 01 प्रतिशत। आज अप्रैल, 2021 में यह आंकड़ा भिन्न हो सकता है। किंतु इन आंकड़ों को सामने रखकर सरकार यह दावा तो कर ही सकती है कि भारत की बहुमत आबादी को उपलब्ध पेयजल अभी भी जलजनित बीमारियों से सुरक्षित है। अब चूंकि भारत की 80 प्रतिशत आबादी को अभी हासिल पेयजल का मुख्य स्त्रोत भूगर्भ जल ही है; अतः आप उक्त आंकड़ों के आधार पर कह सकते हैं कि हां, बहुमत आबादी को आज भी कुआं, हैण्डपम्प, बोरवैल आदि से पीने योग्य पानी देना संभव है। इस संभावना का मार्ग प्रशस्त करते हुए यह भूलने की बात नहीं कि उपभोक्ता की दृष्टि से संचालन में सुचारुपन के छह पैमाने हैं: स्त्रोत का टिकाऊपन, उपलब्ध पानी की पर्याप्त मात्रा, सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता, न्यूनतम लागत, उपयोग में अनुशासन तथा संचालन में स्वावलम्बन। ग्रामीण समुदाय की दृष्टि से एक अन्य बुनियादी ज़रूरत है, आपसी साझा। 

गौर कीजिए कि कुएं की आयु, हमारी पांच पीढ़ी की कुल मिलाकर होने वाली आयु से भी ज्यादा होती है। अतः यह अधिक टिकाऊ उपक्रम है। पानी, पंचतत्वों में से एक तत्व  है। भूमि, गगन, वायु और आकाश... इन शेष चार तत्वों के सीधे सतत् संपर्क में रहने के कारण कुएं के पानी में स्वयं को स्वच्छ करने की प्राकृतिक क्षमता होती है। कुआं, एक स्वावलम्बी ढांचा है। कुआं एक साथ कई हाथों को पानी भरने की इज़ाजत देता है। अतः कुआं साझा बढ़ाने वाला उपक्रम भी है। पानी भरने में मेहनत लगती है। मेहनत, सतत् लगने वाली लागत है। ऐसी लागत, पानी की बर्बादी रोकने में सहायक है; बशर्ते हम अकेले रह रहे बुजुर्गों व दिव्यांगों को छोड़कर किसी अन्य को पेयजल कुओं पर पम्प लगाने की अनुमति न दे; यह सुनिश्चित करें कि कुओं को भूजल गहराई की तय लक्ष्मणरेखा लांघने की इज़ाजत पांच साला अकाल की स्थिति में ही होगी। 

कुआं-हैंडपम्प 24 घंटे पेयजल सुलभता की गारण्टी  है  । अतः लोग जितनी ज़रूरत, सिर्फ उतना निकालते हैं। ताज़ा निकालते हैं। ताज़ा पीते हैं। रुखा-सूखा खाकर भी ग्रामीणों की अच्छी सेहत के राज के पीछे का एक कारण यह भी है। कुआं-हैंडपम्प से मिलने वाले पानी की आपूर्ति व रखरखाव का खर्च न्यूनतम होता है। बिल नहीं देना पड़ता। पाइप लीकेज के कारण होने वाली पानी की बर्बादी शून्य है। कुआं-हैंडपम्प से पानी लेने के लिए बिजली, ईंधन जैसे सतत् खर्च वाले बाहरी संसाधन पर निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं होती। भारत के गांवों पर अतिरिक्त खर्च लादना यूं भी उचित नहीं। उन्हे परावलम्बी बनाना तो कतई अनुचित है।

उक्त तर्कों को सामने रखकर क्या हमें इस पक्ष की पैरोकारी नहीं करनी चाहिए कि कम से कम सुरक्षित भूजल वाले क्षेत्रों मे हम नल की बजाय, हैंडपम्प, कुएं को प्राथमिकता दें अथवा इसका अंतिम निर्णय स्थानीय पानी प्रबंधन के विवेक पर छोड़ दें ?
यह पैरोकारी इसलिए भी चूंकि यदि नगरों तथा भौगोलिक विषमता के चलते पहाड़ी इलाकों के हर परिवार को नल से पानी पहुंचाने की आवश्यकता को एकबारगी मंजू़र कर भी लिया जाए, तो मैदानी गांवों के पाइप से पानी के अनुभव प्रतिकूल हैं। पाइप से पानी की उपलब्धता, लोगों को पानी के मामले में पराधीन बनाती है। पाइप से पानी मिलने लगता है, तो लोग पानी की टिकाऊ जलस्त्रोतों के बारे में सोचना और करना... दोनो बंद कर देते हैं। शांता कुमार मुख्यमंत्रित्व काल में शिमला में हैण्डपम्प लगने के बाद नगर के कुएं-बावड़ियां बदहाल हो गए। क्या इण्डिया मार्का हैडपम्प लगने के बाद लोगों ने कुओं को अनुपयोगी मान, बदहाल नहीं हो जाने दिया ?  यूं भी पानी चाहे पाइप से पहुंचाया जाए अथवा नहरों से, जलापूर्ति के इस तंत्र की एक बड़ी कमज़ोरी यह है कि जितना पानी उपयोग में नहीं आता, उससे ज्यादा बर्बाद हो जाता है। मूल स्त्रोत से नल तक पानी पहुंचाने के रास्ते में  40 प्रतिशत तक पानी रिसकर बह जाने का आंकड़ा है। क्या यह भूल जाने लायक तथ्य है कि नहरों और पाइपों से आर्थिक समृद्धि हासिल करने वाला महाराष्ट्र, आज पानी के लिए सबसे अधिक जूझता हुआ राज्य है ?

प्रश्न 2: क्या शुद्ध जल की गारण्टी है नल-जल ?

यह दूसरा प्रश्न इसलिए ताकि जो नल को हर घर ले जाने को लेकर सहमत हों, उन्हे चुनौतियों औ रसावधनियों  से रुबरु तो होना ही होगा। सावधानी के लिए सतर्कता व सीख ज़रूरी होते ही हैं। चूंकि इस अविष्कार के उपयोग का सर्वाधिक अनुभव, नगरों को हासिल है। नल-जल प्रबंध के संबंध में नगरीय अनुभवों से गहरा कोई और नहीं सिखा सकता; तो आइए, पहले नगरीय अनुभवों से ही रुबरु हों। 

एक नगरीय अनुभव शिमला: नगरीय क्षेत्रफल मात्र 35.34 वर्ग किलोमीटर। जनसंख्या में वृद्धि। वृद्धि दर में घटोत्तरी। 1878 से जलापूर्ति का मुख्य स्त्रोत - 25 प्राकृतिक नाले, खुरली व हौज। फरवरी, 2016 - सीवेज मिश्रित पानी के कारण पीलिया फैला। अधिकारिक आंकड़ा - 1620; वास्तविक - 9265। 34 की मौत। अश्विनी खड्ड जलशोधन संयंत्र से हुई जलापूर्ति में हेपटाइटस ई के वायरस की उपस्थिति दर्ज। अप्रैल, 2017 - शिमला नगर निगम द्वारा अश्विनी खड्ड के टयुबवैल नंबर एक, दो, तीन, चार तथा शिमला काॅलेज के पास स्थित प्राकृतिक स्त्रोत से लिए नमूनों की जांच। गुणवत्ता असंतोषजनक। मार्च, 2018 -  शेष 19 प्राकृतिक नालों में से 17 हुए बेपानी। बेपानी होने के मुख्य कारण: राष्ट्रीय राजमार्ग के डिजाइन में त्रुटि और दिसम्बर में पड़ने वाली बर्फ का फरवरी में पड़ना। परिणाम: नगरीय जलापूर्ति हुई तीन दिन में एक बार; वह भी मात्र दो घण्टे। 40 मिलियन डाॅलर के विश्व बैंक कर्ज से नई परियोजना। ब्याज और शुल्क मिलाकर लागत इससे भी ज्यादा। नए संस्थागत् प्रबंधन तंत्र के रूप में शिमला जल प्रबंधन निगम का गठन। नया स्त्रोत - 21 किलोमीटर दूर सतलुज नदी। बिजली खर्च बढ़ा। कुल लागत बढ़ी। वर्ष 2020 - बिल दर में वृद्धि। वर्ष 2016 के 11.45 (घरेलु) - 22.90 (व्यावसायिक) की तुलना में विलीन क्षेत्र में 45 रुपए प्रति किलोलीटर। 733 उपभोक्ताओं के बिल रुपए 20 हज़ार से 70 हज़ार के बीच। पार्षदों के दखल के बाद घटी दर और बिल।  वर्ष 2021 - आपूर्ति हुई दैनिक। जलापूर्ति लागत 117 रुपए प्रति किलोलीटर। दावा: सभी लीकेज दुरुस्त करने के बाद लागत घटकर हुई रुपए 90 प्रति किलोलीटर। 

गौर कीजिए कि यह गत् पंचवर्षीय अनुभव एक ऐसे पहाड़ी नगर का है, जो एक प्रदेश की राजधानी है; जिसकी ठण्ड, एक मुहावरे की तरह है; जिसकी हवाएं, दूसरे प्रदेशों को ठण्डा करने की क्षमता रखती हैं; जिसकी बर्फ और प्राकृतिक छटा पर्यटकों को अपनी तरफ जबरदस्ती खींच लाती हैं; जहां जल और उस की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली वनस्पति व वन्यजीवों की सुरक्षा की दृष्टि से घोषित शिमला जलग्रहण वन्यजीव अभ्यारण्य मौजूद है।

जल-जीवन-मिशन ने नल-जल का कम से कम 30 वर्ष की गारण्टी तंत्र विकसित करने के निर्देश दिए है। शिमला के परम्परागत् जल-तंत्र ने 150 वर्ष तक की गारण्टी दी। विशेष यह कि शिमला की जल-गारण्टी प्रकृति ने नहीं, नए राजमार्ग के समझ तंत्र ने तोड़ी। नतीजा ? पानी की उपलब्धता घटी; अशुद्धियां बढ़ी।

सीख स्पष्ट है कि स्त्रोत समृद्ध-सुरक्षित तो जल गारण्टी सुरक्षित। जलापूर्ति तंत्र, यदि पानी को गुरुत्वाकर्षण अनुकूलता के अनुसार स्त्रोत से गंतव्य तक पहुंचाने के सिद्धांत पर आधारित है तो लागत कम आएगी; व्यावधान भी कम। जरा सी चूक कर सकती है, स्त्रोत को बेपानी....असुरक्षित। स्त्रोत सुरक्षित नहीं तो पर्याप्त पानी मिलना असंभव। अपना स्त्रोत खो देने की परवाह नहीं करने वालों को एक दिन पानी परजीवी बनना पड़ता है। पानी परजीवी यानी दूसरे के पानी पर जीने वाले। परिणाम ? पाइप से पानी, पाइप से सीवेज। पाइप से परिवहन हो तो टूट-फूट से भी इंकार नहीं किया जा सकता। नया स्त्रोत मतलब नया तंत्र, नया खर्च, नया कर्ज़। संचालन तंत्र परावलम्बी हो, तो बिल और दर में संभव है बेईमानी और बेलगाम वृद्धि।

गौर कीजिए कि यह सीख सिर्फ शिमला की नहीं है। भारत की राजधानी दिल्ली भी पानी के मामले में परजीवी नगर है। महज् 12,000 की छोटी सी आबादी वाले गैरसैंण को हासिल जलापूर्ति मात्र 27 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन है। फिर भी मांग करने वाले गैरसैण को उत्तराखण्ड की राजधानी बनाए जाने की जिद्द पर अडे़ हैं। अखबारी रिपोतार्ज बता रहे हैं कि उत्तराखण्ड के 92 में से 71 नगरों में आपूर्ति किए गये पानी की मात्रा, तय मानक से कम है। 19 नगरों में 50 लीटर प्रति व्यक्ति, प्रति दिन से कम जलापूर्ति हो रही है। गर्मी के दिनों में भारत के कई नगरों में 17 लीटर प्रति व्यक्ति, प्रति दिन जलापूर्ति का आंकड़ा है। दुनिया के 200 नगर डे जीरो श्रेणी की ओर बढ़ रहे हैं। जीरो डे’ का मतलब है कि नलों में पानी की आपूर्ति बंद है। टैंकरों के माध्यम से प्रति व्यक्ति प्रति दिन 25 लीटर की औसत से पानी पहुंचाया जा रहा है। विज्ञान पर्यावरण के्रन्द्र ने भारत के चेन्नई और बंगुलुरु शहर को सावधान किया है।
प्रदूषण के दो चित्रों पर गौर फरमाइए: ’’प्रयागराज से लेकर मिर्जापुर, भदोही, बनारस, चंदोली, बलिया, बक्सर तक की 300 किलोमीटर लम्बी गंगा तटवर्ती पट्टी में गंजेटिक पर्किसन और गंजेटिक डिमेंशिया के रोगी बढे़ हैं। मोटर नूरान नामक जो बीमारी, इस पट्टी के लोगों को तेजी से अपना शिकार बना रही है, उसका एक कारण गंगा में मौजूद धात्विक प्रदूषण है। यह बीमारी अंगों में कसाव के साथ फड़फड़ाहट जैसे लक्षण लेकर आती है। खेती में प्रयोग होने वाले इंडोसल्फान इंडोसल्फान अग्नि फास्फोरस डीडीटी, लिन्डेन, एन्ड्रिन जैसे रसायनों के रिसकर गंगा में मिलने से इन इलाकों में पेट व पित्ताश्य की थैली के कैंसर रोगी बढे़ हैं। शोधकर्ता आशंकित है कि गंगा प्रदूषण, अनुवांशिक दुष्प्रभाव भी डाल सकता है। इसके लिए फिलहाल, गंगा के जलीय जीवों पर अनुवांशिक प्रभावों का अध्ययन भी शुरु किया गया है।’’ 
यह समाचार जनवरी - 2020 का है। समाचार, डाॅक्टर सूरज द्वारा 2500 मरीजों पर किया गए शोध पर आधारित है। डाॅक्टर सूरज, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सर सुन्दरलाल अस्पताल में न्यूरोलाॅजी विभाग के शोधार्थी हैं। अगली समाचार मार्च - 2021 का है: ’’आंध्र प्रदेश के एलुरु शहर के पानी और दूध में निकल तथा सीसे जैसी भारी धातु के कारण 500 से अधिक लोग बीमार। बीमारों को दौरे, घबराहट, बेहोशी, उल्टी, पीठ दर्द।’’ 
पहला समाचार मिश्रित बसावट क्षेत्रों का है, दूसरा नगरीय इलाके का। दोनो समाचारों से उत्तर स्पष्ट है कि सिर्फ नल से जल पहुंचा देना मात्र, शुद्ध जल सुलभता की गारण्टी नहीं है। यदि शुद्ध और पर्याप्त पेयजल चाहिए तो गारण्टी तो कई अन्य भी देनी होंगी। जलापूर्ति स्त्रोत की सुरक्षा की गारण्टी की ज़रूरत इनमें सबसे पहली है।  
अन्य प्रश्न
जलापूर्ति स्त्रोत सुरक्षा के समक्ष खडे़ प्रश्न कई हैं। प्रदूषण, शोषण, अतिक्रमण के कारण जल-संरचनाओं के सूखने और बीमार होने का चित्र तेजी से उभर रहा है। वर्ष 2006 से 2016 के मात्र 10 वर्ष के अंतराल में कोलकाता के 46 प्रतिशत तालाब, झील और नहरें सूख गईं। पिछले 100 साल के कालखण्ड में गंगा, पद्मा और मेघना डेल्टा क्षेत्र की 700 से ज्यादा नदियां नष्ट हो गईं हैं। अति दोहित भूगर्भ इकाइयों की संख्या नित् बढ़ रही है। बोतलबंद पानी, शीतल पेय, शराब जैसे अधिक पानी की मांग वाले उद्योगों के अति दोहन पर कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं हैं। वे आसपास के कई किलोमीटर के हिस्से का भूजल खींच लेते हैं। जब स्त्रोत में ही पानी की गारण्टी नहीं, तो 24 घण्टे जलापूर्ति की गारण्टी कोई कैसा दे सकेगा ? 

प्रश्न किया जाना चाहिए कि खनन के कारण भूजल प्रदूषण के मामले पहले क्या कम थे कि जो अब वन क्षेत्रों में पट्टा हासिल करना आसान कर दिया गया है ? एक ओर ’कैच द रेन’ का अभियान, दूसरी ओर खनन किया आसान, वह भी वन क्षेत्र में ! पांच एकड़ तक के खनन आदि के पट्टे देने का अधिकार अब ज़िलाधिकारी के हाथ हो गया है। चिंता कीजिए कि भू-संचित जल, बहकर ढाल क्षेत्र की खदानों में जाता ही है। ऐसे में वर्षा जल संचयन से भूजल स्तर को ऊपर उठाने की हर तरकीब फेल होती ही है। तब क्या प्रशासन खुद दिए खनन पट्टे को रद्द कर देगा ? रसायन, कपड़ा, चमड़ा, ताप-विद्युत आदि अधिक प्रदूषक उद्योगों के प्रदूषण पर नियंत्रण की कोशिशें जब तक लीकप्रूफ नहीं हो जाती, तब तक जलापूर्ति का स्त्रोत चाहे सतही अथवा भूगर्भीय, क्या हम उसके शुद्ध...शाश्वत् होने की गारण्टी दे सकते हैं ? सीवेज लाइनों में टूट-फूट होती ही है। मनाही के बावज़ूद, कम दबाव की जलापूर्ति की स्थिति में लोग बूस्टर पम्प लगाते ही हैं। ऐसे में यदि टूट-फूट तत्काल दुरुस्त न हो, तो अशुद्ध पानी पीने की मज़बूरी होगी ही; तो नल-जल का नया तंत्र क्या करेगा ? कहीं से कोई प्रदूषण घुस आया; किसी बांध ने किसी इलाके का पानी छीन लिया तो पंचायत क्या करेगी ? क्या युद्ध लडे़गी ?

पोषकता का पक्ष अह्म

जल-स्त्रोत सुरक्षा की दृष्टि से आइए आगे बढें। गौर करें   कि स्वच्छ मतलब कचरा मुक्त। शुद्ध मतलब स्वच्छ भी, पोषक भी। अब चूंकि कोई आंकड़ा यह सुनिश्चित नहीं करता कि बहुमत भारतीयों को उपलब्ध पेयजल, पोषक तत्वों से पूरी तरह युक्त है और फ्लोराइड, आर्सेनिक, लोहा, नाइटेट जैसे हानिकारक तत्वों से मुक्त। अतः हमें कोई भी नई व्यवस्था बनाने से पहले यह सुनिश्चित तो करना ही होगा कि पेय-जलापूर्ति का मूल स्त्रोत पोषक तत्वों से युक्त भी हों  और हानिकारक तत्वों से मुक्त भी। किंतु आर ओ यानी रिवर्स  ऑसमोसस जैसी तक़नीक यह सुनिश्चित नहीं कर सकती। 

राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण का राज्य सरकारों का आदेश है कि जिन इलाकों में एक लीटर पानी के घुलनशील ठोस तत्वों की कुल मात्रा 500 मिलीग्राम से कम पाई जाए, वहां आर ओ मशीनों के इस्तेमाल को प्रतिबंधित करें। क्यों ? क्योंकि आर ओ तकनीक पोषक तत्वों को निकाल बाहर करती है। आर ओ मतलब स्वच्छ पानी, किंतु सबसे कमज़ोर पानी। विशेषज्ञ कहते हैं कि पानी को आर्सेनिक जैसी अशुद्धियों से मुक्त करने के आर ओ मशीन निर्माता कम्पनियों के दावे भी भ्रामक हैं। ऐसे में आखिरकार यह तो बताना ही होगा कि लोग क्या करें, ताकि हर घर को नल से जल का संजाल, बाज़ार की मशीने बेचने का औजार और खरीदने का जंजाल न बन जाए। पोषकता भी रहे बरकरार। 

आइए, जल जीवन मिशन द्वारा की तैयारियों का विश्लेषण करें: प्रत्येक परिसम्पत्ति की जियो टैगिंग। प्रत्येक कनेक्शन होगा संयुक्त। कनेक्शनधारी का आधार नंबर होगा दर्ज। राज्य प्रमाणित पानी परीक्षण प्रयोगशालाओं का बनाया जा रहा देशव्यापी नेटवर्क। सूचना व पारदर्शिता के लिए डिजीटल प्लेटफाॅर्म। राज्य व ज़िला स्तरीय जल-स्त्रोतों की होती रहेगी क्रमानुसार 13 बुनियादी गुणवत्ता आधारित औचक जांच। ब्लाॅक अधिकार क्षेत्र के 100 फीसदी यानी सभी जल-स्त्रोतों की वर्ष में एक बार रासायनिक, दो बार जीवाणु जांच का प्रावधान। फील्ड किट जांच की उपलब्धता। जांच हेतु पांच  ग्रामीणों को प्रशिक्षण। किसी एक समर्पित को सौंपी जाएगी पूरी जिम्मेदारी। अशुद्धि पाए जाने पर जल शुद्धिकरण संयंत्र। मरम्मत व रखरखाव का प्रशिक्षण व अभियांत्रिकी विभाग की सहयोगी भूमिका। 

प्रश्न कीजिए कि क्या ये तैयारियां पर्याप्त हैं ? निःसंदेह, शुद्धता सुनिश्चित करने में नई तक़नीकें सहायक सिद्ध हो सकती हैं। गुणवत्ता तथा मात्रा की दूरदर्शी निगरानी आवश्यक है ही। किंतु ’डायल्यूशन इज सोल्युशन टू पाॅल्युशन’ के सिद्धांत को भूलना ग़ल़ती होगी। तद्नुसार समस्या के मूल कारणों के निवारण की ओर ले जाने वाले मूल कदम छह हैं: प्रदूषित जल का अधिकतम शोधन, पुर्नोपयोग, वर्षाजल का अधिकतम संचयन, भूजल की न्यूनतम निकासी, अनुशासित जलोपयोग और स्थानीय ज़रूरत का स्थानीय प्रबंधन।  

सुखद है कि जल-शक्ति मंत्रालय के आंकडे़ और दस्तावेज़ इस दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ने के संकेत रहे हैं। किंतु वह झरने, तालाबों, झीलों, नदियों आदि सतही स्त्रोतों को सीधे पीने योग्य बनाने के लक्ष्य की ओर बढ़ने कतई नहीं दे रहे। यदि ऐसा हो, तो कैसा हो ? पानी प्रबधन में समग्रता बिना गारण्टी कहां ?? आइए, ’आत्मनिर्भर भारत’ के आइने को सामने रखें और निम्नलिखित सुझावों पर विचार करें; सिर्फ सरकारें नहीं, हम भारत के लोग भी।