आतुर जल बोला माटी से
मैं प्रकृति का वीर्य तत्व हूँ,
तुम प्रकृति की कोख हो न्यारी।
मैं प्रथम पुरुष हूँ इस जगती का,
तुम हो प्रथम जगत की नारी।
नर-नारी सम भोग विदित जस,
तुम रंग बनो, मैं बनूँ बिहारी।
आतुर जल बोला माटी से....
न स्वाद गंध, न रंग तत्व,
पर बोध तत्व है अनुपम मेरा।
भूरा पीला लाल रंग सुन्दर,
कहीं चाँदी सा रंग तुम्हारा।
जस चाहत, तस रूप धारती
कितनी सुंदर देह तुम्हारी।
आतुर जल बोला माटी से....
चाहे इन्द्ररूप, चाहे ब्रह्मरूप, चाहे वरुणरूप,
जो रूप कहो सो रुप मैं धारूँ।
जैसा रास तुम्हे हो प्रिय,
तैसी कहो करुँ तैयारी।
करता हूँ प्रिया प्रणय निवेदन,
चल मिल रचै सप्तरंग प्यारी।
आतुर जल बोला माटी से....
प्यारी मेरा नम तन पाकर,
उमग उठेगी देह तुम्हारी,
अंगड़ाई लेगा जब अंकुर,
सूरज से कुछ विनय करुँगा,
हरित ओढ़नी मैं ला दूँगा,
बुआ हवा गाएगी लोरी,
आतुर जल बोला माटी से....
नन्हें-नन्हें हाथ हिलाकर
चहक उठेगा शिशु तुम्हारा,
रंग-बिरंगे पुष्प सजाकर
जब बैठोगी तुम मुस्काकर
हर्षित होगी दुनिया सारी।
कितनी सुंदर चाह हमारी।
आतुर जल बोला माटी से....
क्षीण होगी जब देह हमारी,
यह चाहत ही आस बनेगी।
हरित ओढ़नी सांस बनेगी।
तब चाहे तुम मुझे पी लेना,
मैं सो लूँगा कोख तुम्हारी,
जी लेंगे बन जोड़ी न्यारी।
आतुर जल बोला माटी से....
लेखक