भूजल स्तर में गिरावट का संकट का मूल कारण, भूजल-संचयन की तुलना मंे भूजल-निकासी का अधिक होना है। जल निकासी एवम् संचयन में संतुलन स्थापित करने में जवाबदेही सुनिश्चित वाली नीति यह हो कि जिसने प्रकृति से जितना और जैसा लिया, वह प्रकृति को कम से कम उतना और वैसी गुणवत्ता का जल लौटाए; किसान भी, फैक्टरी मालिक भी।
बाध्यता हो कि सभी ग्राम पंचायतें अधिकारिक रूप से प्रत्येक न्याय पंचायत क्षेत्रवार भूजल-निकासी की एकसमान अधिकतम गहराई तय करे। उससे नीचे जाने की अनुमति सिर्फ लगातार पांच साला सूखे से उत्पन्न आपात् स्थिति में ही हो। यह गहराई, ’डार्क ज़ोन’ घोषित किए जाने के लिए तय गहराई से हर हाल में कम से कम 10 फीट कम ही हो। पालना नहीं करने पर संबंधित व्यक्ति के शासकीय योजना लाभ वापस लिए जा सकते है । किसी ग्राम पंचायत में 10 से अधिक परिवारों द्वारा ऐसा करने पर संबंधित ग्राम पंचायत को वित्तीय आवंटन रोक दिए जाएं।
जलवायु परिवर्तन के संकेत सावधान कर रहे हैं कि यदि समय रहते नहीं चेता गया तो परम्परागत खेती बचेगी नहीं। यदि हमारा इलाका बाढ़ क्षेत्र से सुखाड़ क्षेत्र होने की ओर अग्रसर है, तो भी धान, गन्ने जैसी फसलों को सिर्फ इसलिए बोते जाना कि परम्परा से हम इन्हे ही बो रहे हैं; क्या समझदारी होगी ? आवश्यक है कि जल और वायु बदल रहें हैं तो कृषि चक्र, बीजों के चुनाव और सिंचाई के तौर-तरीके भी बदलें। रासायनिक उर्वरकों, खर-पतवार व कीटनाशकों ने पानी की गुणवत्ता की गारण्टी छीन ली है। प्राकृतिक खेती की ओर लौटे बगै़र यह गारण्टी हमेशा असंभव ही रहने वाली है। अतः स्थानीय भूगोल तथा जलवायु अनुकूल बीजों, प्रजातियों, तौर-तरीकों व खान-पान को प्राथमिकता देकर अपनाएं। धरती सिर्फ ज़रूरत पूर्ति के लिए है। अतः सिर्फ अजीविका चलाने वाली कृषि हो। अधिक धन की मांग करने वाले ग्रामीण सपनों की पूर्ति के लिए उपलब्ध ग्राम्य उत्पाद, शिल्प व कौशल आधारित आय मार्ग प्रशस्त करने पर ध्यान दिया जाए।
स्वच्छ भारत मिशन का निर्देश था कि जल स्त्रोत से 30 फीट की दूरी के भीतर शौचालय का निर्माण न किया जाए। गंगा में मलीय काॅलीफाॅर्म की बढ़ी मात्रा प्रमाण है कि इस निर्देश की व्यापक स्तर पर अनदेखी हुई है। शौचालय के टैंक भी तल से सील नहीं किए गए। आकार व गहराई में भी अनियमितताएं पाईं गई हैं। इस कारण आज नहीं तो कल, निकटस्थ जल स्त्रोत प्रदूषित होंगे ही। ग़ल़ती सुधार कैसे हो ? निर्णय लिया जाए। कदम उठाए जाएं।
कचरे का निष्पादन, उसके उपजने के स्त्रोत पर किया जाए। कचरे को ढोकर ले जाना नैतिक और वैज्ञानिक पाप माना जाए।विशेष रूप से उद्योगों और चारदीवारीयुक्त आवासीय परिसर वाली नई बसावटों को उनके उपयोग का पानी स्वयं शोधित करने तथा शोधित जल के पुर्नोपयोग के लिए प्रोत्साहित किया जाए। उनके सीवेज को पाइप से जोड़ने की बजाय, उनके परिसर के भीतर शोधित करने विशेष प्रोत्साहन योजना बनाई जाए। शोधित मल को सोनखाद के रूप में इस्तेमाल किया जाए।
पुरानी बसावटों में जल-मल के शोधन का नया तंत्र विकसित करने की आवश्यकता होने की दशा में उसे नदी किनारे न करके, बसावटवार विकेन्द्रित शोधन तंत्र विकसित किया जाए।
अतिरिक्त ताजा जल का प्रवाह नदियों मंे क्रमशः बढ़ाया जाए; शोधन पश्चात् प्राप्त अतिरिक्त जल को नहरों मे प्रवाहित किया जाए। प्रवाहित किए जाने वाले ऐसे शोधित जल की गुणवत्ता जांच, निगरानी एवम् नियंत्रण समिति में संबंधित नहर उपभोक्ताओं के प्रतिनिधि भी निर्णायक अधिकार प्राप्त सदस्य बनाए जाएं।
सभी राज्य व केन्द्र शासित क्षेत्र एक अंतरजनपदीय नदी तथा वन/उद्यान को क्रमशः राज्य नदी तथा राज्य वन/उद्यान का दर्जा दें। ज़िला पंचायतें, क्षेत्र पंचायतों की राय के आधार पर अपने-अपने ज़िले की एक-एक अंतरखण्डीय नदी, झील-तालाब तथा वन/उद्यान को क्रमशः जनपदीय नदी/जनपदीय झील तथा जनपदीय वन/उद्यान का दर्जा दें। दर्जे के सम्मान के लिए मानक भी खुद तय करें मानकों की प्राप्ति हेतु त्रि-वर्षीय कार्ययोजना बनाने, कब्जा मुक्ति तथा उसके समयबद्ध क्रियान्वयन की जवाबदेही भी खुद ही लें।
सभी राज्य व केन्द्र शासित क्षेत्र अपने अधिकार क्षेत्र की प्रत्येक नदी, जल संरचना तथा वन/उद्यान क्षेत्र की भूमि का चिन्हीकरण, सीमांकन तथा उसका भू-उपयोग अधिसूचित करे। ऐसी भूमि के भू-उपयोग बदलने की इज़ाजत किसी को नहीं हो।
प्रदेश व केन्द्र शासित क्षेत्र, राज्य नदी दर्जा प्राप्त नदी के लिए जिन मानकों को तय करे; उन्हे अंतरजनपदीय नदियों के लिए हासिल करने का भी समयबद्ध कार्यक्रम बनाए। अंतरजनपदीय नदी संवर्द्धन हेतु संबंधित छोटी सहायक नदियों को विशेष प्राथमिकता देकर उनके जलग्रहण क्षेत्र प्रबंधन परियोजना का निर्माण तथा क्रियान्वयन करें।
जल प्रबंधन में समग्रता संबंधी जागृति, प्रेरणा, प्रशिक्षण, प्रोत्साहन तथा समन्वयन के कार्य अपने आप में पूर्णकालिक एकीकृत तंत्र की मांग करते हैं। आवश्यक है कि इस बाबत् निर्णायक व पूर्णकालिक भूमिका, पूरी तरह किसी एक विभाग अथवा संस्थान की हो। जल संसाधन से जल शक्ति मंत्रालय हुए नामकरण को इसी पहल के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस पहल को राज्यों व ज़िलों में भी उतारा जाए। उचित हो कि प्रत्येक प्रदेश/केन्द्र शासित क्षेत्र, विशुद्ध रूप से उक्त कार्यों हेतु प्रदेश/केन्द्र शासित क्षेत्र स्तरीय जल संसाधन एवम् प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की जाने पर विचार करे। इस केन्द्र का कार्य प्रशिक्षण, आवश्यकतानुसार शोध व समन्वय तो हो ही; इस केन्द्र पर प्रत्येक ग्राम पंचायत, नगर क्षेत्र वार से लेकर राज्य स्तर के जल तथा उससे संबंधित योजना, परियोजना, सफलता, विशेषज्ञ आदि की समस्त जानकारी उपलब्ध रहे। जानकारी प्रसार एवम् दोतरफा संवाद हेतु वेब पोर्टल आदि तकनीक का उपयोग हो। राज्य जल संसाधन एवम् प्रशिक्षण केन्द्र के लिए पहले से मौजूदा संगठनों के जल विशेषज्ञों, प्रशिक्षकों तथा ज़मीनी अभियान संचालकों की सेवाएं ली जा सकती हैं।
अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद ने उसके द्वारा मान्यता प्राप्त पाठ्यक्रमों के विद्यार्थियों हेतु ग्रामीण परियोजना पर काम करने के प्रावधान की पहल की है। पर्यावरण व सिविल इंजीनियरिंग संस्थानों के अलावा शेष महाविद्यालयों के भूगोल के अंतिम वर्ष के छात्र समूहों को उनके क्षेत्र में स्थित ग्राम पंचायतों की जल-बजटिंग करने, पंचायती क्षेत्र के भूगोल के अनुसार वर्षाजल संचयन के तकनीकी तरीके सीखने, सुझाने जल ढांचों का स्थान चयन, तकनीकी डिज़ायन तय करने तथा उनकी लागत व जलसंग्रहण क्षमता का आकलन करने की परियोजना आवश्यक की जा सकती है।
छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए उन्ही संस्थानों के भूगोल तथा पर्यावरण व सिविल इंजीनियरिंग प्राध्यापकों हेतु एक अंशकालिक ’ग्राम्य जल प्रबंधन प्रशिक्षक प्रमाणपत्र कोर्स’ तैयार किया जा सकता है। इसी तर्ज पर पंचायती पानी समितियों तथा संबंधित स्वयंसेवी प्रतिनिधियों हेतु ’ग्राम्य जल प्रबंधन प्रेक्टिसनर्स कोर्स’ तैयार किया जा सकता है। ऐसे प्रशिक्षितों व तकनीकी सलाहकारों की अतिरिक्त सेवाएं लेने के लिए क्षेत्र पंचायत वार पैनल तैयार किए जा सकते हैं।
प्रशिक्षण में शामिल किए जाने वाले विषय निम्नलिखित हो सकते हैं: वर्षाजल संचयन-स्थान चयन, डिजायन एवम् निर्माण तकनीक, जल अंकेक्षण, जल नियोजन, नमी संरक्षण, नदी संरक्षण, नदी जल ग्रहण क्षमता विकास, हरीतिमा संरक्षण, न्यूनतम लागत में पेय जलापूर्ति तंत्र निर्माण, संचालन, रखरखाव, जल का अनुशासित उपयोग एवम् पुर्नोपयोग - तकनीक, शोधन एवम् सावधानियां, प्रदूषण की रोकथाम - तकनीक एवम् व्यवस्था।
(लेखक, गांव व पानी के लोकतांत्रिक सरोकारों का प्रतिनिधि पत्रकार है।)