ये विकास या विनाश

Submitted by Shivendra on Mon, 09/08/2014 - 13:07

ये विकास है या विनाश है,
सोच रही इक नारी।
संगमरमरी फर्श की खातिर,
खुद गई खानें भारी।
उजड़ गई हरियाली सारी,
पड़ गई चूनड़ काली।
खुशहाली पे भारी पड़ गई
होती धरती खाली।
ये विकास है या....

विस्फोटों से घायल जीवन,
ठूंठ हो गये कितने तन-मन।
तिल-तिल मरते देखा बचपन,
हुए अपाहिज इनके सपने।
मालिक से मजदूर बन गये,
खेत-कुदाल औ नारी।
गया आब और गई आबरु,
क्या किस्मत करे बेचारी।
ये विकास है या....