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विकास संवाद द्वारा प्रकाशित 'पानी' किताब
• मुंबई में वाहन धोने के लिए 50 लाख लीटर पानी खर्च कर दिया जाता है। भोपाल में हर दिन किसी न किसी जगह लीकेज होने से करीब 500 लीटर पानी रोजाना बह जाता है।
• इंसान को पीने के लिए 3 लीटर और पशुओं को 50 लीटर पानी की जरूरत होती है। जबकि बाथटब में नहाते समय 300 से 500 लीटर और सामान्य नहाने में 100 से 150 लीटर पानी खर्च किया जाता है। ब्रश करते समय नल खुला रख दिया तो 5 मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बर्बाद हो जाता है।
• यूनिसेफ और विश्व बैंक की 2009 की रिपोर्ट बताती है कि हर पाँच में से एक बच्चे की मौत डायरिया के कारण होती है। यानि हर दिन करीब 690 नन्हे ‘पानी’ के कारण हमारी दुनिया से चले जाते हैं। इनमें से 39 प्रतिशत बच्चों की मौत रोकी जा सकती है, अगर उन्हें समय पर साफ पानी मिल जाए।
‘गोल-गोल रानी कितना-कितना पानी..’ बचपन के खेल में दोहराया जाने वाला यह गीत असल जीवन में पानी की कड़वी हकीकत बन गया है। हर सुबह पानी जुटाने की कवायद से शुरू होती है और हर रात पानी की चिंता के साथ ढलती है। सामान्यतया हर शहर में अब पानी सबसे बड़ी चिंता के रूप में जीवन का हिस्सा बन गया है। जो गाँव और कस्बे निर्मल नीर के ठिकाने थे वहाँ भी आज पानी खरीद कर पीया जा रहा है। पानी पर पानी की तरह ही पैसा खर्च करने के बाद भी हमने उसे पैसे की तरह सहेजने में रुचि नहीं दिखाई। वरना क्या यह होता कि मध्यप्रदेश में 1998 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की घोषणाओं और निर्देशों के बाद भी आम घरों में तो दूर सरकारी भवनों में भी रेन वॉटर हार्वेस्टिंग के इंतजाम नहीं करवाए जाते।
पहले नाम के लिए राजा-महाराजा गाँव-गाँव, डगर-डगर कुएं खुदवाते थे, बावड़ियां और ताल बनवाते थे। समाज भी उनका सहायक और पहरेदार होता था। राजे-महराजे गए तो नए जमाने के साहूकार प्याऊ लगवाने लगे.. अब पानी भी साहूकारी हो गया है।
जमीन को भी कहाँ छोड़ा। धड़धड़ करती मशीनों से धरती का ऐसा कलेजा छलनी किया कि नलकूप खनन प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। पड़ोसी ने नलकूप खनन करवाया तो हमारे घर तो खनन अनिवार्य है, फिर चाहे पानी बर्बाद हो या पाताल में जाए। फिक्र किसे है?
दरअसल पानी हर जगह से गायब हो रहा है। हमारी आँखों और आत्मा का पानी भी सूख रहा है। तभी तो 2010 के शुरुआती छह माह में इतनी ही लाड़लियों को कुछ लोगों ने जला डाला, क्योंकि वे अपने साथ छेड़छाड़ का विरोध कर रही थीं। क्या अपने ‘स्व’ को बचाना इतना बड़ा गुनाह है?
लड़कियों की संख्या कम होने की चिंता कुछ सालों पहले ही हमारी चर्चाओं में शामिल हुई। ज्यादा दिन नहीं हुए जब हमने कहना शुरू किया था कि देखना एक दिन लड़कों को शादी के लड़की नहीं मिलेगी। आज यह सच हो रहा है। परिचय सम्मेलनों में लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या आधी होती है..तो क्या अब बच्चियों का अपहरण होगा या उन्हें इंकार की सजा अग्नि स्नान के रूप में मिलेगी?
बाबा रहीम सच कह गए थे कि बिना पानी के सब सूना है.. फिलहाल आलोक धन्वा की एक कविता याद आ रही है-
आदमी तो आदमी/मैं तो पानी के बारे में सोचता था/ कि पानी को भारत में बसना सिखाऊंगा।
सोचता था/पानी होगा आसान/पूरब जैसा/पुआल के टोप जैसा/ मोम की रोशनी जैसा।
यह मिट्टी के घड़े में भरा रहेगा/ जब भी मुझे प्यास लगेगी..
• इंसान को पीने के लिए 3 लीटर और पशुओं को 50 लीटर पानी की जरूरत होती है। जबकि बाथटब में नहाते समय 300 से 500 लीटर और सामान्य नहाने में 100 से 150 लीटर पानी खर्च किया जाता है। ब्रश करते समय नल खुला रख दिया तो 5 मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बर्बाद हो जाता है।
• यूनिसेफ और विश्व बैंक की 2009 की रिपोर्ट बताती है कि हर पाँच में से एक बच्चे की मौत डायरिया के कारण होती है। यानि हर दिन करीब 690 नन्हे ‘पानी’ के कारण हमारी दुनिया से चले जाते हैं। इनमें से 39 प्रतिशत बच्चों की मौत रोकी जा सकती है, अगर उन्हें समय पर साफ पानी मिल जाए।
‘गोल-गोल रानी कितना-कितना पानी..’ बचपन के खेल में दोहराया जाने वाला यह गीत असल जीवन में पानी की कड़वी हकीकत बन गया है। हर सुबह पानी जुटाने की कवायद से शुरू होती है और हर रात पानी की चिंता के साथ ढलती है। सामान्यतया हर शहर में अब पानी सबसे बड़ी चिंता के रूप में जीवन का हिस्सा बन गया है। जो गाँव और कस्बे निर्मल नीर के ठिकाने थे वहाँ भी आज पानी खरीद कर पीया जा रहा है। पानी पर पानी की तरह ही पैसा खर्च करने के बाद भी हमने उसे पैसे की तरह सहेजने में रुचि नहीं दिखाई। वरना क्या यह होता कि मध्यप्रदेश में 1998 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की घोषणाओं और निर्देशों के बाद भी आम घरों में तो दूर सरकारी भवनों में भी रेन वॉटर हार्वेस्टिंग के इंतजाम नहीं करवाए जाते।
पहले नाम के लिए राजा-महाराजा गाँव-गाँव, डगर-डगर कुएं खुदवाते थे, बावड़ियां और ताल बनवाते थे। समाज भी उनका सहायक और पहरेदार होता था। राजे-महराजे गए तो नए जमाने के साहूकार प्याऊ लगवाने लगे.. अब पानी भी साहूकारी हो गया है।
जमीन को भी कहाँ छोड़ा। धड़धड़ करती मशीनों से धरती का ऐसा कलेजा छलनी किया कि नलकूप खनन प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। पड़ोसी ने नलकूप खनन करवाया तो हमारे घर तो खनन अनिवार्य है, फिर चाहे पानी बर्बाद हो या पाताल में जाए। फिक्र किसे है?
दरअसल पानी हर जगह से गायब हो रहा है। हमारी आँखों और आत्मा का पानी भी सूख रहा है। तभी तो 2010 के शुरुआती छह माह में इतनी ही लाड़लियों को कुछ लोगों ने जला डाला, क्योंकि वे अपने साथ छेड़छाड़ का विरोध कर रही थीं। क्या अपने ‘स्व’ को बचाना इतना बड़ा गुनाह है?
लड़कियों की संख्या कम होने की चिंता कुछ सालों पहले ही हमारी चर्चाओं में शामिल हुई। ज्यादा दिन नहीं हुए जब हमने कहना शुरू किया था कि देखना एक दिन लड़कों को शादी के लड़की नहीं मिलेगी। आज यह सच हो रहा है। परिचय सम्मेलनों में लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या आधी होती है..तो क्या अब बच्चियों का अपहरण होगा या उन्हें इंकार की सजा अग्नि स्नान के रूप में मिलेगी?
बाबा रहीम सच कह गए थे कि बिना पानी के सब सूना है.. फिलहाल आलोक धन्वा की एक कविता याद आ रही है-
आदमी तो आदमी/मैं तो पानी के बारे में सोचता था/ कि पानी को भारत में बसना सिखाऊंगा।
सोचता था/पानी होगा आसान/पूरब जैसा/पुआल के टोप जैसा/ मोम की रोशनी जैसा।
यह मिट्टी के घड़े में भरा रहेगा/ जब भी मुझे प्यास लगेगी..