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जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (2013) पुस्तक से साभार
दस साल पहले 2002 में बीटी (बेसिलस थुरिनजेनिसस) कपास को भारत के किसानों के हाथों में कई सारे फील्ड ट्रायल के बाद सौंप दिया गया। किसानों को इसे सौंपते हुए इसकी खूबियां गिनाई गईं। कहा गया - इसकी खेती की लागत सामान्य कपास के मुकाबले कम पड़ेगी और इसमें कीटनाशकों का खर्च भी कम आएगा। लेकिन नतीजे के तौर पर आज इस कपास के पीछे कई हजार किसानों को आत्महत्या तक का रास्ता तय करना पड़ा है।
इसकी साफ सी वजह है कि बीटी कपास की खेती पर लागत बहुत ज्यादा आ रही है और किसानों को बैंक और साहूकारों से रुपए उधार लेने पड़ते हैं। ब्याज और मूलधन का हिसाब लगाते-लगाते और अंततः उधार न चुका पाने की हालत में हतभागा किसान कोई उपाय न सूझता देख इसकी खेती के लिए उपयोग में आने वाले कीटनाशकों को ही अपनी मुक्ति का जरिया बना बैठता है।
एक अंग्रेजी पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ में प्रकाशित एक आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2007 में जहां बीटी कपास का उत्पादन 560 किलो प्रति हेक्टेयर (लिंट) होता था, वहीं 2009 में यह घटकर मात्र 512 लिंट रह गया। वर्ष 2002 में बीटी कपास के उत्पादन में देशभर में कीटनाशकों पर 597 करोड़ रुपए का खर्च हुआ था वहीं 2009 में यह बढ़कर 791 करोड़ रुपए सालाना हो गया। मतलब यह हुआ कि किसानों के लिए बीटी कॉटन को ‘उजला सोना’ बताया गया, हकीकत में यह काला पत्थर से भी गया गुजरा साबित हुआ।
बीटी कपास है क्या?
दरअसल, बीटी कपास को मिट्टी में पाए जाने वाले बैक्टीरिया बेसिलस थुरिनजेनिसस से जीन निकालकर तैयार किया जाता है। इस जीन को Cry 1AC का नाम दिया गया। माना जाता है कि इस बीज को कीड़े नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं। लेकिन कुछ सालों के दौरान ही इस जीन से तैयार फसल को कीड़े नुकसान पहुंचाने में सक्षम हो गए।
इसी जीन से बीटी ब्रिंजल या बैंगन की किस्म भी तैयार की गई। हालांकि बहुत कड़ा विरोध होने के कारण सरकार ने इसकी खेती को इजाजत नहीं दी है। दीगर बात यह है कि केरल, मध्य प्रदेश और बिहार राज्यों में बीटी कॉटन को फील्ड ट्रायल्स की इजाजत नहीं दी गई थी।
भारत में जेनेटिक फसल के नाम पर बीटी कपास की ही खेती होती है। बीटी कपास की खेती भारत के कुल फसलों की खेती के पांच फीसदी रकबे में होती है लेकिन कुल इस्तेमाल में आने वाले कीटनाशकों का 55 फीसदी हिस्सा इसकी खेती में ही खप जाता है। इसकी खेती में बहुत महंगे रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है, जिससे इसकी लागत आश्चर्यजनक रूप से कई गुना बढ़ जाती है।
कपास की खेती मानव सभ्यता के इतिहास में पांच हजार सालों से होता आया है। लेकिन इसमें पिछली सदी के अंतिम दशक में तब नया मोड़ आया जब महाराष्ट्र स्थित माहिको हाइब्रिड सीड कंपनी ने अमरीकी कंपनी मौंसेंटो से साझेदारी की। वर्ष 1999 में अमरीकी कंपनी मौंसेंटे इंटरप्राइजेज से माहिको बीटी कॉटन को लेकर भारत आई। भारत में पहले से मौजूद कई सारी किस्मों से हाइब्रिड करा कर यहां कई अलग-अलग नामों से बीटी कपास के बीज तैयार किए।बीटी कपास की खेती पर लगभग दो-ढाई करोड़ किसान परिवार निर्भर करता है और इनमें से ज्यादातर किसान ऐसे हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी छोटी जोत है। बीटी कपास की एक पैकेट लगभग 450 ग्राम की होती है। बीटी कपास-1 की कीमत प्रति पैकेट 750-825 रुपए और बीटी कपास -2 की कीमत प्रति पैकेट 925-1,050 रुपए की मिल जाती है। एक एकड़ जमीन के लिए कम-से-कम तीन पैकेट बीज की जरूरत होती है। लेकिन हर साल अखबारों में इसकी काला बाजारी की रिपोर्ट आती है।
काला बाजार में यह 1700 से लेकर 2,500 रुपए प्रति पैकेट धड़ल्ले से बिकता है। बीटी-1 और बीटी-2 दोनों ही किस्मों का व्यापार अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी मौंसेंटो और भारत में उसकी साझेदारी कंपनी माहिको मिलकर करती हैं इसलिए हमारे यहां इसके तमाम पक्षों को सामने लाने वाले कई संगठनों की बात सरकार आया-गया कर देती है। भारत सरकार किस तरह अमरीका के दबाव में करती है, इसका बहुत अच्छा नजीर तब देखने को मिला जब मौंसेंटो ने खुद बीटी कपास-1 (बोलगार्ड 1) में पिंक बॉलवार्म की प्रतिरोधी क्षमता के विकसित होने की बात स्वीकारी और हमारे तत्कालीन कृषि मंत्री से लेकर स्वास्थ्य मंत्री तक ने ऐसा नहीं होने का दावा किया।
कंपनी ने अपना पासा एक बार दोबारा फेंका और कहा कि हम बीटी कपास-1 की कमी को दूर कर चुके हैं और उसकी जगह बीटी कपास-2 (बोलगार्ड 2) को विकसित कर चुके हैं। किसान उसे इस्तेमाल में लाएं। हमारी देश के हुकमरानों ने उसे भी इजाजत दे दिया।
हमारे नेताओं ने कंपनी के आगे घुटने टेक दिए और कहा कि कीट लगने की वजह ‘रिफ्यूजी’ यानि भारत में तैयार किए गए बीजों के उपयोग की वजह से हुआ है। कंपनी भी ऐसा ही मानती है। नतीजा सबके सामने है मौंसेंटो और उसकी भारतीय सहयोगी कंपनी माहिको दिन-ब-दिन मोटी होती गई और उसका इस्तेमाल करने वाले भारतीय किसान दुर्बल।
कैसे अस्तित्व में आया भारत में बीटी कपास?
कपास की खेती मानव सभ्यता के इतिहास में पांच हजार सालों से होता आया है। लेकिन इसमें पिछली सदी के अंतिम दशक में तब नया मोड़ आया जब महाराष्ट्र स्थित माहिको हाइब्रिड सीड कंपनी ने अमरीकी कंपनी मौंसेंटो से साझेदारी की। वर्ष 1999 में अमरीकी कंपनी मौंसेंटे इंटरप्राइजेज से माहिको बीटी कॉटन को लेकर भारत आई।
भारत में पहले से मौजूद कई सारी किस्मों से हाइब्रिड करा कर यहां कई अलग-अलग नामों से बीटी कपास के बीज तैयार किए। इस खेल में माहिको का कुल साझेदारी मात्र 26 फीसदी की है। माहिको ने पहला फील्ड ट्रायल 1999 में किया। अगले वर्ष यानि 2000 में भी बड़े स्तर पर फील्ड ट्रायल किए गए और वर्ष 2001 में कंपनी को एक साल का और मौका दिया गया।
विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय द्वारा नेशनल बोटेनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट को इस सिलसिले में शोध करने के लिए कोष भी मुहैया कराया। वर्ष 1994 से लेकर 1998 तक चले इस शोध का कोई नतीजा नहीं निकल सका। इस पर सरकार के पांच करोड़ रुपए खर्च हुए। मौंसेंटो भी 1990 में इस तकनीक पर दो करोड़ रुपए खर्च कर चुकी थी। अंततः इसे तमाम असहमतियों के बावजूद जीईएसी (जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी) ने वर्ष 2002 में हरी झंडी दे दी। हालांकि जो वायदे और फायदे गिनाए गए, धीरे-धीरे उससे पर्दा उठने लगा और कंपनियों की मुनाफा लूटने की नीयत का पता चल गया।
मौंसेंटो और माहिको का पक्ष लेती सरकार
अमरीका की एक बहुराष्ट्रीय कृषि रासायनिक और बीजों का व्यापार करने वाली कंपनी मौंसेंटो और भारत में उसकी सहयोगी कंपनी माहिको ने जब दुनिया भर में इसका व्यापार करना शुरू किया था तब उन्होंने इसकी जो विशेषताएं गिनवाई थीं, वह अब झूठी और भ्रामक साबित हो चुकी हैं।
वर्ष 2009 में मौंसेंटो ने भारत में एक फील्ड सर्वे आयोजित करवाया तो पता चला कि गुजरात के अमरेली, भावनगर, जूनागढ़ और राजकोट जिले में बीटी कॉटन में लगने वाले कीड़े ने अपनी प्रतिरोधी क्षमता का विकास कर लिया और वे फसलों का नुकसान करने में सक्षम हो गए। मौंसेंटो ने एक विज्ञप्ति जारी कर कहा कि इसमें कीटों की प्रतिरोधी क्षमता विकसित होना बहुत स्वाभाविक और उम्मीद के अनुरूप है। उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि Cry 1AC प्रोटीन एक शुरूआती जिनेटिक फसल है और यह थोड़ी अविकसित किस्म है इसलिए ऐसा होना बहुत लाजिमी है।
मौंसेंटो ने किसानों को साथ में यह सलाह भी दी कि जरूरत के हिसाब से रसायनों का इस्तेमाल किया जाए और कटाई के बाद खेत में अवशेषों और जो गांठे खुली हुई नहीं हैं, उनका उचित तरीके से प्रबंधन किया जाए। कंपनी ने बीटी कपास की दूसरी किस्म वर्ष 2006 में Cry 2 Ab को दो प्रोटीन डालकर बोलगार्ड 2 को दुनिया के सामने रखा। कंपनी का कहना है कि इस किस्म में कीट प्रतिरोधी क्षमता विकसित नहीं कर पाए हैं।
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कंपनी के इस रवैये पर कहना है कि मौंसेंटो ने अपने व्यापार का यही मॉडल दुनिया भर में अपनाया है। एक बार जब बोलगार्ड 1 असफल हो जाता है तब ये बोलगार्ड 2 को बाजार में बढ़ावा देते हैं और किसानों को कीटनाशकों का इस्तेमाल करने का बढ़ावा देते हैं। यह बहुत ही खतरनाक फंदा है और भारत के किसान कंपनी के इस कुचक्र में बुरी तरह फंस चुके हैं।
‘खेती विरासत’ संगठन की कविता करुंगति का कहना है कि बीटी बैंगन को अपनाने से पहले यह ध्यान जरूरी होगा कि कंपनी और सरकार अब भी वही तर्क दे रही है जो बोलगार्ड कॉटन के लिए दिया करती थीं। वर्ष 2009 में तत्कालीन केंद्रीय विज्ञान मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने बार-बार यह कहा था कि बोलगार्ड कॉटन जीएम तकनीक पर आधारित फसल है और यह बहुत सफल रही है। इस कपास के समर्थन में बाद में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ए. रामदौस भी सुर मिलाते नजर आए।
रसायन कंपनियां कूट रहीं है ताबड़तोड़ मुनाफा
कृषि अर्थशास्त्री के. जयराम ने वर्ष 2007 में पंजाब के मालवा क्षेत्रों के कई गांवों का दौरा किया था और ‘काउंटर करेंट्स’ नाम की एक वेबसाइट पर ‘बीटी कॉटन एंड इकोनॉमिक ड्रेन इन पंजाब’ शीर्षक से एक लिखा था। उन्होंने लिखा कि वर्ष 2007 में पंजाब के कुल 12,729 गांवों में 10,249 उवर्रक वितरक एजेंसियां मौजूद थीं।
रासायनिक और कीटनाशकों का व्यापार करने वाली 17 कंपनियां यहां मुनाफा कूटने में लगी हुई थीं जिनमें नोवारटिस और इन्सेक्टीसाइड्स इंडिया लिमिटेड दो बड़ी कंपनियां थीं। ये कंपनियां एक सीजन में 10 हजार लीटर रसायन बेच लेती हैं। एक लीटर 450 रुपए का आता था। डीलर का मार्जिन एक लीटर में 115 रुपए बैठता था। के. जयराम के अनुसार, किसान एक सीजन में 17-34 बार रसायन का छिड़काव करते हैं। कपास के एक सीजन में रसायनों के छिड़काव पर प्रति एकड़ तीन-चार हजार रुपए का खर्च आता है।
अभी भारत के कुल आठ राज्यों - पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में इसकी खेती होती है। हर जगह अलग-अलग नाम से बीटी कॉटन और हाइब्रिड बीजों को उपयोग में लाया जा रहा है। इस फसल को 162 तरह की कीटों की प्रजातियां नुकसान पहुंचा सकती हैं जिनमें 15 प्रमुख हैं।
बीजों की बुवाई से लेकर इसकी तुड़ाई तक कभी भी कीट इसको नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसकी वजह से 50-60 फीसदी उत्पादन कम हो सकता है। फसलों को नुकसान से बचाने के लिए भारत में कुल 28 अरब रुपए के कीटनाशकों का उपयोग यहां होता है। कपास की खेती को बचाने के लिए कुल 16 अरब रुपए के बराबर कीटनाशकों का उपयोग यहां किया जाता है। बीटी कॉटन को बॉलवार्म से बचाने के लिए सालाना 11 अरब रुपए का कीटनाशक यहां इस्तेमाल में लाया जा रहा है। कुल कपास की खेती में बीटी कॉटन 81 फीसदी रकबे पर बीटी कॉटन का उत्पादन हो रहा है।
बढ़ रहा है भूजल प्रदूषण
बीटी कपास की खेती में इस्तेमाल होने वाले बेहिसाब रसायनिकों और कीटनाशकों की वजह से मनुष्य के जीवन पर बहुत सारे नकारात्मक प्रभाव साफ देखे जा सकते हैं। विशेषकर पंजाब में इसका जबरदस्त दुष्प्रभाव देखने को मिल रहा है। बीटी कपास की खेती पंजाब के मुख्य तौर पर चार जिलों बठिंडा, मुक्तसर, फरीदकोट और फिरोजपुर में होती है। यहां बीटी कपास की फसल को पिंक बॉलवार्म (पंजाब में मिली बग) से बचाने के लिए प्रोफेनॉस नाम के रासायनिक का धुआंधार इस्तेमाल हो रहा है, जिससे यहां का भूमिगत जल प्रदूषित हो रहा है।
बीटी कपास की खेती में इस्तेमाल होने वाले बेहिसाब रसायनिकों और कीटनाशकों की वजह से मनुष्य के जीवन पर बहुत सारे नकारात्मक प्रभाव साफ देखे जा सकते हैं। विशेषकर पंजाब में इसका जबरदस्त दुष्प्रभाव देखने को मिल रहा है। बीटी कपास की खेती पंजाब के मुख्य तौर पर चार जिलों बठिंडा, मुक्तसर, फरीदकोट और फिरोजपुर में होती है। यहां बीटी कपास की फसल को पिंक बॉलवार्म से बचाने के लिए प्रोफेनॉस नाम के रासायनिक का धुआंधार इस्तेमाल हो रहा है, जिससे यहां का भूमिगत जल प्रदूषित हो रहा है।यहां के पानी में बड़ी मात्रा में हेवी मेटल्स आर्सेनिक, यूरेनियम, लेड और फ्लोराइड पाए जा रहे हैं। इस तथ्य की पुष्टि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, पंजाब, सेंटर फॉर साइंस एंड इनवॉयरनमेंट, नई दिल्ली (सीएसई) सहित कई स्वास्थ्य और सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं के सर्वेक्षण से उजागर हो चुकी है। सीएसई ने इन इलाकों के मनुष्यों के खून के नमूनों में आर्सेनिक और यूरेनियम पाया। यहां त्वचा कैंसर से लेकर गले का कैंसर, मानसिक विकलांगता, त्वचा संबंधी रोग, छोटी उम्र में गंजापन सहित कई ऐसे रोग बड़े बहुत सामान्य हो चुके हैं।
कैंसर इतना आम हो चुका है कि यहां बठिंडा से ‘कैंसर एक्सप्रेस’ नाम की एक ट्रेन बीकानेर के लिए हर रोज चलती है। बीकानेर के पास अबोहर में एक सरकारी कैंसर का अस्पताल है, जहां बहुत सस्ता इलाज किया जाता है। निश्चित तौर यह यहां के किसानों के लिए राहत की बात है।
बठिंडा के पूहली गांव के खेती-किसानी करने वाले बंत सिंह का कहना है कि यहां रसायनों का छिड़काव बहुत बड़े पैमाने पर खासकर बीटी कॉटन के लिए किया जाता था। अन्यथा पहले यहां एलएस सेलेक्शन (लाभ सिंह सेलेक्शन) बीज चलता था, जो बहुत सस्ता था। दरअसल, पाकिस्तान में पंजाब प्रांत के एक किसान लाभ सिंह ने कपास के अच्छे बीज हाइब्रिड तकनीक से विकसित किए थे। यह बीज सस्ता बहुत होता था और साथ ही इसमें ज्यादा रसायन और कीटनाशकों के छिड़काव की जरूरत नहीं होती थी।
खेतों में सोना नहीं फसल उगाने की हो चाहत
दरअसल, भारत में 1990-91 में जब नई आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को लागू किया गया तब इसके चमकते हुए चेहरों के पीछे छिपे नुकीले और विषैलों दांतों की हमने अनदेखी कर दी। भारत में नई आर्थिक उदारीकरण की नीति के फलस्वरूप पूंजीवादी व्यवस्था और उसकी दलाली करने वालों को इसमें अपना लाभ साफ नजर आ रहा था। मुनाफा कमाने के अवसर के तौर पर उन्हें हजारों रास्ते खुलते हुए नजर आ रहे थे।
देश की तमाम वामपंथी पार्टियों और प्रगतिशील समाजवादी संगठनों के विरोध के बावजूद विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के सामने हमारे हुक्मरान बेबस नजर आ रहे थे। उन्होंने जनता की नौकरी छोड़ विश्व बैंक, आईएमएफ और दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमरीका की नौकरी स्वीकार ली। इन नीतियों ने हमारी पारंपरिक तौर-तरीकों को ध्वस्त कर हर चीज को मुनाफा कमाने की मशीन में तब्दील कर दिया। खेती-किसानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सभी क्षेत्रों को उद्योगों में तब्दील करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई।
सरकार ने अपनी तमाम जिम्मेदारियों से हाथ खींचना शुरू कर दिया और नतीजा यह हुआ कि अब हर क्षेत्र में निजी कंपनियों ने घुसपैठ बढ़ा ली है। खेतों की जमीन पर हाउसिंग प्रोजेक्ट्स, फैक्टरियां और कारखाने लगाए जा रहे हैं। खेतों की जमीन विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के हवाले की जा रही है। खेतों में पारंपरिक अनाज की जगह व्यवसायिक फसलों को तवज्जो दिया जाने लगा है। इस खेल में केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें भी शामिल हैं।
इसी साल पंजाब और हरियाणा सरकार ने बीटी कपास पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) धान से 20 फीसदी ज्यादा देने का निर्णय लिया। नतीजा यह हुआ कि हरियाणा में बीटी कपास के रकबे में 19 फीसदी और पंजाब में 16 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। ऐसे में खेती-किसानी बचाने और खाद्य सुरक्षा के नारे गढ़ना बेमानी की बात ही ज्यादा प्रतीत होती है।