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किसान हर साल बारिश के दौरान इन जमीनों पर सैकड़ों की तादाद में सागौन और खमेर सहित अन्य जंगली वृक्ष प्रजाति के पौधे लगाते हैं और उन्हें बड़ा करते हैं। कई गाँवों में खेतों की फसल की तरह बड़े और ऊँचे-ऊँचे पेड़ एक कतार में खड़े नजर आते हैं। ज्यादातर स्थानों पर ये तीन से चार हेक्टेयर तक किसी जंगल के खेत का-सा आभास देते हैं। इस तरह देखते-ही-देखते इलाके में जहाँ कभी सूखी और नंगी जमीन नजर आती थी, वहाँ अब जंगल लहलहाता नजर आता है। करीब-करीब हर गाँव में किसानों के खेतों के आसपास जंगलों से लगी हुई बड़ी तादाद में परती जमीन व्यर्थ ही पड़ी रहती है। गाँव के लोग इसका यदा-कदा ही कोई उपयोग करते हैं। लेकिन कुछ किसानों ने इस जमीन का भी व्यवस्थित उपयोग कर अब मुनाफा कमा रहे हैं। क्या आप भी अपनी परती जमीन का ऐसा उपयोग करना चाहेंगे।
मध्य प्रदेश के देवास जिले की तीन तहसीलों सतवास, खातेगाँव और कन्नौद के करीब 700 से ज्यादा किसानों ने इस नवाचार को अपनाया है और कुछ सालों की मेहनत के बाद अब वे मुनाफा कमाने की स्थिति में आ चुके हैं। दरअसल देवास जिले की इन तहसील क्षेत्र में सागौन और अन्य वृक्षों के बड़े इलाके में फैले समृद्ध वन हैं। इस जंगली इलाके के पास लगे गाँवों के किसानों ने इसे सबसे पहले अपनाया है।
अपने खेतों के आसपास खाली और बंजर पड़ी जमीन पर किसानों ने करीब 15 साल पहले सागौन और खमेर के पौधे लगाना शुरू किये थे, जो अब पेड़ बनकर लहलहा रहे हैं। किसानों ने इसके लिये वन विभाग के अधिकारियों से बात की तो उन्होंने इन्हें खरीदने में रुचि दिखाई। किसान अब इनका कुछ हिस्सा काटकर वन विभाग को बेच रहे हैं। इससे इन्हें खासा मुनाफा मिल रहा है।
कन्नौद के प्रेमनारायण पटेल कहते हैं, ‘उन्होंने 1997-98 में इलाके के कुछ किसानों के साथ मिलकर लोक वानिकी किसान समिति के माध्यम से बंजर पड़ी जमीनों पर जंगल उगाने का सपना देखा था। शुरू-शुरू में लोग उन्हें सन्देह की नजर से देखते थे। उन्हें नहीं लगता था कि किसान जंगल उगा सकता है, लेकिन धीरे-धीरे लोग उनके साथ जुटते गए और अब तो करीब 50 गाँवों के 700 किसान इस काम में जुटकर जंगल की खेती कर रहे हैं।
ये तहसीलें अपनी वन सम्पदा के लिये पहचानी जाती हैं। इन तहसीलों के 50 ऐसे गाँवों को चिन्हांकित किया गया, जिसकी सीमाएँ वन क्षेत्र के साथ जुड़ती हों। वहाँ गाँव के आसपास राजस्व भूमि के साथ बड़ी तादाद में वन भूमि बंजर पड़ी हुई थी। इसका कोई व्यवस्थित उपयोग न तो गाँव वाले कर पा रहे थे और न ही वन विभाग के पास फिलहाल इस जमीन को जंगल बनाने की कोई योजना थी। इसे किसानों ने वन विभाग से पट्टे पर लेकर जंगल उगाना शुरू किया।
अब किसान हर साल बारिश के दौरान इन जमीनों पर सैकड़ों की तादाद में सागौन और खमेर सहित अन्य जंगली वृक्ष प्रजाति के पौधे लगाते हैं और उन्हें बड़ा करते हैं। कई गाँवों में खेतों की फसल की तरह बड़े और ऊँचे-ऊँचे पेड़ एक कतार में खड़े नजर आते हैं। ज्यादातर स्थानों पर ये तीन से चार हेक्टेयर तक किसी जंगल के खेत का-सा आभास देते हैं।
इस तरह देखते-ही-देखते इलाके में जहाँ कभी सूखी और नंगी जमीन नजर आती थी, वहाँ अब जंगल लहलहाता नजर आता है। जंगलों पर आश्रित रहने वाले आदिवासी और अन्य समाज के लोग भी इससे खुश हैं, इससे उन्हें वनोपज मिल रही है।
1997-98 के दौर में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने सबसे पहले सामाजिक वानिकी के साथ इलाके के किसानों को जोड़ने का सपना देखा था। उन्होंने इसका खाका भी तैयार किया था। उनके बाद सत्ता में आये मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी इसे महत्त्वपूर्ण मानते हुए जारी रखा। तब से लेकर अब तक के 15-18 सालों में परती भूमि पर जंगल उगाने का रकबा भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है।

कन्नौद में पदस्थ वन विभाग के एसडीओ प्रदीप पाराशर कहते हैं, ‘यह एक बहुत अच्छा नवाचार साबित हुआ है। किसान पेड़ों को बड़ा करने के लिये बड़ी मेहनत करते हैं। साथ ही जंगल उगने के काम से उनमें मनोवैज्ञानिक बदलाव भी आया है। अब वे जंगल उजाड़ने वालों को बख्शते नहीं है। यहाँ वन विभाग के अमले के साथ ग्रामीण भी जंगल बचाने में पूरी तरह जुटे रहते हैं। जब कभी हमारे विभाग के उच्च अधिकारी दौरे पर आते हैं और इस काम को देखते हैं तो वे भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। अब वे इसे अन्यत्र लागू करने पर भी गम्भीरता से विचार कर रहे हैं।’
ग्रामीण बताते हैं कि यह उनके लिये फायदे का सौदा है। वन विभाग की जमीन पर हम जो पेड़ लगाते हैं, उस पर हमारा हक होता है। कुछ सालों में यहाँ जब पूर्ण पेड़ बन जाता है तो इसकी कटाई-छँटाई से जो लकड़ी मिलती है, वह वन विभाग खरीदकर उसका नगद भुगतान कर देता है।
गौरतलब है कि सागौन की इमारती लकड़ी बाजार में काफी ऊँची कीमत पर मिलती है। इसका भाव ज्यादा होने से उन्हें अच्छी-खासी रकम मिल जाती है और पेड़ फिर भी खड़ा रहता है, जिससे आने वाले सालों में फिर लकड़ी मिल सकती है। वे बताते हैं कि 15 साल पहले जिन किसानों ने अपने पेड़ लगाए थे, उन्हें इस साल खासा मुनाफा मिल रहा है।
इसके लिये पेड़ के बड़े होने पर आवेदन वन विभाग और तहसीलदार कार्यालय में दिया जाता है। वहाँ से पटवारी, तहसील का प्रतिनिधि और वन विभाग के कर्मचारी सर्वे कर पेड़ों की स्थिति का आकलन करते हैं और सही पाये जाने पर इन्हें वन विभाग खुद खरीद लेता है या लकड़ी काटने की अनुमति देते हैं। काटी गई लकड़ी को निर्धारित दर से वन विभाग खरीद कर अपने डिपो में जमा कर लेता है।
इस इलाके में यह नवाचार अब किसानों को भाने लगा है। जैसे-जैसे आसपास के किसान इन्हें देख रहे हैं, वैसे-वैसे वे भी अब इस काम में जुटने का मन बना रहे हैं। इससे एक तरफ जहाँ जंगल विकसित हो रहा है, वहीं आसपास के जंगलों की किसानों से सुरक्षा हो जाने पर जंगलों को नुकसान पहुँचाने वाले असामाजिक तत्वों और लकड़ी माफिया से भी सुरक्षा मिल रही है।