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नवनीत हिंदी डाइजेस्ट, जून 2013
जल भंडारण की दृष्टि से हमें तालाब और बावड़ियों की तरफ विशेष ध्यान देना होगा, जो पहले हमारे यहां काफी बड़ी संख्या में होते थे, मगर अब उचित रख रखाव के अभाव में नष्ट होते जा रहे हैं। प्राचीनकाल में, पुण्य-कार्य के रूप में तालाब खुदवाए जाते थे। इन तालाबों की समय-समय पर सफाई भी होती थी। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार सन् 1950 में हमारे यहां 36 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई तालाबों के माध्यम से ही होती थी। अब ऐसी भूमि लगभग शून्य के बराबर रह गई है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इन पुराने तालाबों का जीर्णोंद्धार करें और जहां संभव हो, नए तालाब बनवाएं। जनसंख्या में निरंतर होती वृद्धि, बढ़ता शहरीकरण, भूजल का अत्यधिक दोहन और पर्यावरण-प्रदूषण की गंभीर होती स्थिति ने शुद्ध पेयजल की कमी को एक विश्वव्यापी समस्या बना दिया है। विश्व बैंक की एक रपट में कहा है कि विश्व की चालीस प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या पानी के संकट का दुःख भोग रही है और यह समस्या विश्व के अस्सी से भी अधिक देशों में व्याप्त है। अनेक देशों में शुद्ध पेयजल विलासिता की वस्तु बनता जा रहा है। इस रपट के अनुसार मनुष्य के लिए पानी की मांग प्रतिवर्ष ढाई प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, लेकिन जल की उपलब्धि की दर में कोई वृद्धि नहीं हो रही। इससे भूजल निरंतर घटता जा रहा है। स्टाकहोम एनवायरमेंट इंस्टीट्यूट की रपट में चेतावनी दी गई है कि अगर हमने पानी की बर्बादी को नहीं रोका तो सन् 2025 तक विश्व की दो तिहाई आबादी पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस जाएगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में इस समय लगभग अस्सी प्रतिशत बीमारियाँ शुद्ध जल की कमी के कारण उत्पन्न हो रही है। पिछले और विकासशील देशों में तपेदिक, डायरिया, पेट और सांस की बीमारियाँ तथा कैंसर सहित अनेक रोगों की जड़, शुद्ध पेयजल का अभाव है। इसी से करोड़ों लोग चर्म और आंख के रोगों से ग्रस्त हैं। भारत में किए गए एक अध्ययन के अनुसार -एक हजार नवजात शिशुओं में से लगभग 127 बच्चे हैजा, डायरिया तथा प्रदूषित जल से उत्पन्न अन्य रोगों से मर जाते हैं।
यदि जल को केवल जल की दृष्टि से देखें तो पृथ्वी पर उसकी कोई कमी नहीं है। हमारी पृथ्वी का तीन चौथाई भाग समुद्रों से ढका हुआ है, लेकिन उसका जल इतना खारा है कि पीने, धुलाई करने, सिंचाई करने या औद्योगिक कार्यों के लिए उसे उपयोग में नहीं लिया जा सकता। प्रकृति जब इस जल को वाष्प के रूप में शुद्ध करके आकाश में भेजती है और वहां से जब वह वर्षा के रूप में धरती पर गिरता है। तभी वह हमारे लिए उपयोगी बनता है। पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का लगभग तीन प्रतिशत भाग ही हमारे लिए उपयोगी होता है, मगर उसमें भी लगभग दो तिहाई भाग पहाड़ों में तथा ध्रुव-क्षेत्रों में बर्फ के रूप में जमा हुआ है। इस प्रकार हमारे उपयोग के लिए मुश्किल से एक प्रतिशत जल ही बचता है। इसी जल में से हम अपने उद्योग, कृषि तथा अन्य कार्यों में भी उपयोग में लेते हैं। पेयजल के रूप में तो हमारे हिस्से में बहुत थोड़ा भाग ही आता है। समस्या के समाधान के लिए रूस, इजरायल तथा विश्व के कुछ अन्य देशों में समुद्र के पानी को शुद्ध करके उसे भी पीने योग्य बनाने का कार्य चल रहा है। इस समय लगभग दो लाख क्यूबिक मीटर पीने का पानी इस पद्धति से तैयार किया जा रहा है। भारत में भी इस प्रकार का शोधकार्य शुरू हुआ है और 50 हजार क्यूबिक मीटर प्रतिदिन पानी साफ करने की एक परियोजना शुरू की गई है। समस्या की गंभीरता की दृष्टि से इस दिशा में अब तक हुई प्रगति को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है।
जल संपदा की दृष्टि से भारत की गिनती संपन्न देशों में की जाती है। हमारे यहां प्रतिवर्ष औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा होती है। इतनी अधिक वर्षा के बावजूद वह संपूर्ण देश में एक समान नहीं है। कहीं बहुत कम और कहीं बहुत ज्यादा। इसमें दूसरी कठिनाई यह है कि यह वर्षा अधिकांशतः दक्षिण पश्चिम मानसून के कारण केवल जून से सितंबर के मध्य होती है। इससे देश में किसी एक स्थान पर बाढ़ आती है और दूसरे स्थान पर अकाल पड़ा होता है ऐसा भी कई बार होता है कि गर्मी के दिनों में जिस स्थान पर अकाल पड़ा होता है उसी स्थान पर बरसात के दिनों में बाढ़ आ जाती है। बढ़ती जनसंख्या के कारण हमारे यहां प्रति व्यक्ति जल-उपलब्धता कम होती जा रही है।
भारत में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार हमारे यहां 140975 बस्तियों में पेयजल का एक भी स्रोत नहीं है। यहां के लोगों को दूरदराज के क्षेत्रों से पानी लाना पड़ता है। इन बस्तियों में चार करोड़ लोग रहते हैं। इस तरह की बस्तियों में सर्वाधिक उत्तर प्रदेश में हैं। इसके बाद बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, असम तथा उड़ीसा का नंबर आता है। सर्वेक्षण के अनुसार देश की कुल बस्तियों में से केवल 56.67 प्रतिशत बस्तियों में ही पेयजल की लगभग पर्याप्त सुविधा मौजूद है। इसके लिए निर्धारित मानदंड प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 40 लीटर पानी स्वीकारा गया है। एक अनुमान के अनुसार इस समय हमारे यहां जिस पेयजल का उपयोग किया जाता है, उसका भी लगभग 70 प्रतिशत भाग अशुद्ध होता है।
यह चिंताजनक स्थिति है कि देश में लगभग 10 फीसदी क्षेत्र पूरी तरह सूखा है और 40 प्रतिशत अर्धशुष्क है। देश में कुल फसली क्षेत्र 1750 लाख हेक्टेयर है, जिसकी सिंचाई के लिए 260 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होती है। पानी की कम उपलब्धता के कारण केवल 1450 लाख हेक्टेयर भूमि में फसल बोई जाती है। एक अनुमान के अनुसार हमें सन् 2025 तक 770 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होगी, जिसमें उद्योगों के लिए 120 घन किलोमीटर और ऊर्जा उत्पादन के लिए 71 घन किलोमीटर पानी शामिल है। सन् 1991 में हमारी जनसंख्या 84 करोड़ थी, जो अब एक अरब की सीमा से भी आगे बढ़ चुकी है और 2025 में इसके 153 करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। ऐसी स्थिति में आवश्यकता की अन्य वस्तुओं के साथ ही पानी की मांग में भी वृद्धि सहज स्वाभाविक है। मगर आपूर्ति की दृष्टि से स्थिति निराशाजनक है। देश के अधिकांश में भूजल का स्तर अत्यधिक दोहन के कारण निरंतर गिरता जा रहा है। पानी की आपूर्ति बनाए रखने के लिए संपन्न व्यक्ति अपने घरों में तथा फार्महाउसों में नलकूप खुदवा लेते हैं। सरकार द्वारा भी अनेक स्थानों पर इस प्रकार के नलकूल खुदवाए जाते हैं। इस प्रकार के नलकूपों से पानी लिए जाने पर कोई शुल्क देय नहीं होता। इसलिए इन नलकूपों से प्राप्त जल को बड़े पैमाने पर व्यर्थ बहा दिया जाता है। सरकारी नल या कुओं से प्राप्त जल का भी बड़ी मात्रा में दुरुपयोग होता है। शहरी कालोनियों में बड़े-बड़े लॉन लगाए जाते हैं, जिनमें काफी मात्रा में पानी का अपव्यय होता है। आम आदमी भी पानी को बड़ी मात्रा में अनावश्यक बहाने या नष्ट करने में संकोच नहीं करता। इस मद पर उसे जो राशि व्यय करनी पड़ी है वह इनती कम होती है कि उसके आर्थिक पहलू को उसे चिंता ही नहीं होती। सिंचाई के काम में आने वाले पानी पर किया जाने वाला व्यय तो और भी नगण्य है। पानी का भंडार कितना सीमित है और वह किस प्रकार रीतता जा रहा है इसका तो आम आदमी को अहसास ही नहीं है। पानी के दुरुपयोग पर कानून प्रतिबंध की तो कहीं कोई योजना ही नहीं है। ऐसी स्थिति में भूजल के स्तर में गिरावट आश्चर्य की बात नहीं की जा सकती।
निरंतर घट रहे भूजल भंडारों की क्षतिपूर्ति हो सकती है केवल बरसात के जल से। मगर बरसात के जल का भी हम भली प्रकार सदुपयोग नहीं कर पाते। हमारे यहां प्रतिवर्ष होने वाली औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा, दुनिया भर का अन्नदाता माने जाने वाले अमेरिका की औसत वर्षा से भी लगभग छह गुना अधिक है। इससे बरसात के दिनों में हमारी लगभग सभी नदियां पानी से लबालब भरी रहती हैं। अनेक स्थानों पर भीषण बाढ़ का भी आतंक छा जाता है। वर्षा और हिमपात मिलाकर वर्ष भर में पानी की कुल मात्रा लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर हो जाती है। इस पानी में से लगभग सात करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी वाष्प बनकर उड़ जाता है, साढ़े ग्यारह करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी नदियों में बहता है और लगभग साढ़े 21 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी धरती सोख लेती है। जिस पानी को धरती सोखती है, वह हमारे पेड़ पौधों की प्यास बुझाता है, मिट्टी को नमी प्रदान करता है और कुएँ आदि में भूजल स्तर को बढ़ाता है। नदियों में बहने वाले पानी का कुछ भाग सिंचाई उद्योग धंधे या पेयजल के रूप में काम आता है और शेष समुद्र के खारे पानी में मिलकर व्यर्थ हो जाता है। धरती पर गिरने वाला काफी पानी यहां के गंदे नालों में मिलकर प्रदूषित भी हो जाता है, जो धरती के अंदर जाकर या नदियों के साथ बहकर प्रदूषण में वृद्धि करता है।
उपलब्ध पानी के अधिक उपयोग के लिए हमें अपनी जल भंडारण क्षमता बढ़ानी होगी। इसके लिए छोटे बांध अधिक उपयोगी नहीं हो सकते। वे सूखे की चपेट में आकर जल्दी सूख जाते हैं, जबकि बड़े बांधों पर सूखे का विशेष प्रभाव नहीं होता। इसलिए हमें बड़े बांधों की ओर विशेष ध्यान देना होगा। हमारे यहां बड़े बांधों का सामान्यतः इस आधार पर विरोध होता है कि उसकी डूब में आने वाली भूमि काफी अधिक होती है, जिससे ग्रामवासियों को बड़ी हानि होती है। बात सच है लेकिन जितनी भूमि इनकी डूब में आती है, उससे लगभग सौ गुना अधिक भूमि को उससे सिंचाई का लाभ भी मिलता है। इसलिए जिन किसानों की भूमि बांध के क्षेत्र में आती है, उन्हें उदारता के साथ समुचित मुआवजा देकर संतुष्ट किया जा सकता है। समय-समय पर इन बांधों में जमा मिट्टी को निकालने की तरफ भी हमें ध्यान देना होगा, जिससे ये लंबे समय तक हमारा साथ दे सकें।
जल भंडारण की दृष्टि से हमें तालाब और बावड़ियों की तरफ विशेष ध्यान देना होगा, जो पहले हमारे यहां काफी बड़ी संख्या में होते थे, मगर अब उचित रख रखाव के अभाव में नष्ट होते जा रहे हैं। प्राचीनकाल में, पुण्य-कार्य के रूप में तालाब खुदवाए जाते थे। इन तालाबों की समय-समय पर सफाई भी होती थी। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार सन् 1950 में हमारे यहां 36 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई तालाबों के माध्यम से ही होती थी। अब ऐसी भूमि लगभग शून्य के बराबर रह गई है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इन पुराने तालाबों का जीर्णोंद्धार करें और जहां संभव हो, नए तालाब बनवाएं। पेयजल के दुरुपयोग पर भी हमें नियंत्रण लगाना होगा। प्रचार साधनों के माध्यम से हमें जनता के मन में गहराई से यह बात बैठानी होगी कि पानी की एक-एक बूंद कीमती है और इसलिए उसे सोच समझकर ही काम में लें। पानी के लिए भूमि का अत्यधिक दोहन न हो, इसके लिए नलकूपों की खुदाई प्रतिबंधित करनी होगी। आवश्यकता पड़ने पर शहरी क्षेत्रों में सभी जल स्रोतों को प्रशासनिक नियंत्रण में भी लिया जा सकता है। केवल सजावट, प्रदर्शन या फैशन के लिए लगाए जाने वाले बड़े लॉन या फार्म हाउसों को भी नियंत्रित करना होगा।
महानगरों के आसपास फैले या गंदे नालों में बहते मल-जल और उद्योगों द्वारा निष्कासित प्रदूषित जल की तरफ भी हमें ध्यान देना होगा। यह पानी हमारी नदियों में मिलकर उसके पानी को प्रदूषित करता है और धरती पर बिखरे वर्षा-जल में मिलकर उसे भी गंदा करता है। इस पानी को इधर-उधर फैलने से रोककर कहीं निश्चित स्थान पर एकत्रित करना होगा और उसका उपचार करके काम में लेना होगा। यह उपचारित जल अनेक कार्यों में लिया जा सकता है। यह मछली पालन तथा सिंचाई के लिए अत्यंत उपयोगी रहता है। लॉन, फार्म हाउस या पेड़ पौधों के लिए भी यह जल बड़ा उपयोगी है। वर्षा के जल को धरती में पुनर्भरण के लिए हमें योजना बनाकर उसे कठोरता से लागू करना होगा। हमें यह देखना होगा कि वर्षा के माध्यम से प्रकृति हमें जो अत्यंत उपयोगी विशाल जल-भंडार देती है, उसकी एक भी बूंद व्यर्थ नष्ट न हो। अपनी भावी पीढ़ी को एक प्यास मुक्त विश्व देना हमारा दायित्व है।
यदि जल को केवल जल की दृष्टि से देखें तो पृथ्वी पर उसकी कोई कमी नहीं है। हमारी पृथ्वी का तीन चौथाई भाग समुद्रों से ढका हुआ है, लेकिन उसका जल इतना खारा है कि पीने, धुलाई करने, सिंचाई करने या औद्योगिक कार्यों के लिए उसे उपयोग में नहीं लिया जा सकता। प्रकृति जब इस जल को वाष्प के रूप में शुद्ध करके आकाश में भेजती है और वहां से जब वह वर्षा के रूप में धरती पर गिरता है। तभी वह हमारे लिए उपयोगी बनता है। पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का लगभग तीन प्रतिशत भाग ही हमारे लिए उपयोगी होता है, मगर उसमें भी लगभग दो तिहाई भाग पहाड़ों में तथा ध्रुव-क्षेत्रों में बर्फ के रूप में जमा हुआ है। इस प्रकार हमारे उपयोग के लिए मुश्किल से एक प्रतिशत जल ही बचता है। इसी जल में से हम अपने उद्योग, कृषि तथा अन्य कार्यों में भी उपयोग में लेते हैं। पेयजल के रूप में तो हमारे हिस्से में बहुत थोड़ा भाग ही आता है। समस्या के समाधान के लिए रूस, इजरायल तथा विश्व के कुछ अन्य देशों में समुद्र के पानी को शुद्ध करके उसे भी पीने योग्य बनाने का कार्य चल रहा है। इस समय लगभग दो लाख क्यूबिक मीटर पीने का पानी इस पद्धति से तैयार किया जा रहा है। भारत में भी इस प्रकार का शोधकार्य शुरू हुआ है और 50 हजार क्यूबिक मीटर प्रतिदिन पानी साफ करने की एक परियोजना शुरू की गई है। समस्या की गंभीरता की दृष्टि से इस दिशा में अब तक हुई प्रगति को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है।
जल संपदा की दृष्टि से भारत की गिनती संपन्न देशों में की जाती है। हमारे यहां प्रतिवर्ष औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा होती है। इतनी अधिक वर्षा के बावजूद वह संपूर्ण देश में एक समान नहीं है। कहीं बहुत कम और कहीं बहुत ज्यादा। इसमें दूसरी कठिनाई यह है कि यह वर्षा अधिकांशतः दक्षिण पश्चिम मानसून के कारण केवल जून से सितंबर के मध्य होती है। इससे देश में किसी एक स्थान पर बाढ़ आती है और दूसरे स्थान पर अकाल पड़ा होता है ऐसा भी कई बार होता है कि गर्मी के दिनों में जिस स्थान पर अकाल पड़ा होता है उसी स्थान पर बरसात के दिनों में बाढ़ आ जाती है। बढ़ती जनसंख्या के कारण हमारे यहां प्रति व्यक्ति जल-उपलब्धता कम होती जा रही है।
भारत में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार हमारे यहां 140975 बस्तियों में पेयजल का एक भी स्रोत नहीं है। यहां के लोगों को दूरदराज के क्षेत्रों से पानी लाना पड़ता है। इन बस्तियों में चार करोड़ लोग रहते हैं। इस तरह की बस्तियों में सर्वाधिक उत्तर प्रदेश में हैं। इसके बाद बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, असम तथा उड़ीसा का नंबर आता है। सर्वेक्षण के अनुसार देश की कुल बस्तियों में से केवल 56.67 प्रतिशत बस्तियों में ही पेयजल की लगभग पर्याप्त सुविधा मौजूद है। इसके लिए निर्धारित मानदंड प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 40 लीटर पानी स्वीकारा गया है। एक अनुमान के अनुसार इस समय हमारे यहां जिस पेयजल का उपयोग किया जाता है, उसका भी लगभग 70 प्रतिशत भाग अशुद्ध होता है।
यह चिंताजनक स्थिति है कि देश में लगभग 10 फीसदी क्षेत्र पूरी तरह सूखा है और 40 प्रतिशत अर्धशुष्क है। देश में कुल फसली क्षेत्र 1750 लाख हेक्टेयर है, जिसकी सिंचाई के लिए 260 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होती है। पानी की कम उपलब्धता के कारण केवल 1450 लाख हेक्टेयर भूमि में फसल बोई जाती है। एक अनुमान के अनुसार हमें सन् 2025 तक 770 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होगी, जिसमें उद्योगों के लिए 120 घन किलोमीटर और ऊर्जा उत्पादन के लिए 71 घन किलोमीटर पानी शामिल है। सन् 1991 में हमारी जनसंख्या 84 करोड़ थी, जो अब एक अरब की सीमा से भी आगे बढ़ चुकी है और 2025 में इसके 153 करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। ऐसी स्थिति में आवश्यकता की अन्य वस्तुओं के साथ ही पानी की मांग में भी वृद्धि सहज स्वाभाविक है। मगर आपूर्ति की दृष्टि से स्थिति निराशाजनक है। देश के अधिकांश में भूजल का स्तर अत्यधिक दोहन के कारण निरंतर गिरता जा रहा है। पानी की आपूर्ति बनाए रखने के लिए संपन्न व्यक्ति अपने घरों में तथा फार्महाउसों में नलकूप खुदवा लेते हैं। सरकार द्वारा भी अनेक स्थानों पर इस प्रकार के नलकूल खुदवाए जाते हैं। इस प्रकार के नलकूपों से पानी लिए जाने पर कोई शुल्क देय नहीं होता। इसलिए इन नलकूपों से प्राप्त जल को बड़े पैमाने पर व्यर्थ बहा दिया जाता है। सरकारी नल या कुओं से प्राप्त जल का भी बड़ी मात्रा में दुरुपयोग होता है। शहरी कालोनियों में बड़े-बड़े लॉन लगाए जाते हैं, जिनमें काफी मात्रा में पानी का अपव्यय होता है। आम आदमी भी पानी को बड़ी मात्रा में अनावश्यक बहाने या नष्ट करने में संकोच नहीं करता। इस मद पर उसे जो राशि व्यय करनी पड़ी है वह इनती कम होती है कि उसके आर्थिक पहलू को उसे चिंता ही नहीं होती। सिंचाई के काम में आने वाले पानी पर किया जाने वाला व्यय तो और भी नगण्य है। पानी का भंडार कितना सीमित है और वह किस प्रकार रीतता जा रहा है इसका तो आम आदमी को अहसास ही नहीं है। पानी के दुरुपयोग पर कानून प्रतिबंध की तो कहीं कोई योजना ही नहीं है। ऐसी स्थिति में भूजल के स्तर में गिरावट आश्चर्य की बात नहीं की जा सकती।
निरंतर घट रहे भूजल भंडारों की क्षतिपूर्ति हो सकती है केवल बरसात के जल से। मगर बरसात के जल का भी हम भली प्रकार सदुपयोग नहीं कर पाते। हमारे यहां प्रतिवर्ष होने वाली औसतन 1170 मिलीमीटर वर्षा, दुनिया भर का अन्नदाता माने जाने वाले अमेरिका की औसत वर्षा से भी लगभग छह गुना अधिक है। इससे बरसात के दिनों में हमारी लगभग सभी नदियां पानी से लबालब भरी रहती हैं। अनेक स्थानों पर भीषण बाढ़ का भी आतंक छा जाता है। वर्षा और हिमपात मिलाकर वर्ष भर में पानी की कुल मात्रा लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर हो जाती है। इस पानी में से लगभग सात करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी वाष्प बनकर उड़ जाता है, साढ़े ग्यारह करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी नदियों में बहता है और लगभग साढ़े 21 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी धरती सोख लेती है। जिस पानी को धरती सोखती है, वह हमारे पेड़ पौधों की प्यास बुझाता है, मिट्टी को नमी प्रदान करता है और कुएँ आदि में भूजल स्तर को बढ़ाता है। नदियों में बहने वाले पानी का कुछ भाग सिंचाई उद्योग धंधे या पेयजल के रूप में काम आता है और शेष समुद्र के खारे पानी में मिलकर व्यर्थ हो जाता है। धरती पर गिरने वाला काफी पानी यहां के गंदे नालों में मिलकर प्रदूषित भी हो जाता है, जो धरती के अंदर जाकर या नदियों के साथ बहकर प्रदूषण में वृद्धि करता है।
उपलब्ध पानी के अधिक उपयोग के लिए हमें अपनी जल भंडारण क्षमता बढ़ानी होगी। इसके लिए छोटे बांध अधिक उपयोगी नहीं हो सकते। वे सूखे की चपेट में आकर जल्दी सूख जाते हैं, जबकि बड़े बांधों पर सूखे का विशेष प्रभाव नहीं होता। इसलिए हमें बड़े बांधों की ओर विशेष ध्यान देना होगा। हमारे यहां बड़े बांधों का सामान्यतः इस आधार पर विरोध होता है कि उसकी डूब में आने वाली भूमि काफी अधिक होती है, जिससे ग्रामवासियों को बड़ी हानि होती है। बात सच है लेकिन जितनी भूमि इनकी डूब में आती है, उससे लगभग सौ गुना अधिक भूमि को उससे सिंचाई का लाभ भी मिलता है। इसलिए जिन किसानों की भूमि बांध के क्षेत्र में आती है, उन्हें उदारता के साथ समुचित मुआवजा देकर संतुष्ट किया जा सकता है। समय-समय पर इन बांधों में जमा मिट्टी को निकालने की तरफ भी हमें ध्यान देना होगा, जिससे ये लंबे समय तक हमारा साथ दे सकें।
जल भंडारण की दृष्टि से हमें तालाब और बावड़ियों की तरफ विशेष ध्यान देना होगा, जो पहले हमारे यहां काफी बड़ी संख्या में होते थे, मगर अब उचित रख रखाव के अभाव में नष्ट होते जा रहे हैं। प्राचीनकाल में, पुण्य-कार्य के रूप में तालाब खुदवाए जाते थे। इन तालाबों की समय-समय पर सफाई भी होती थी। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार सन् 1950 में हमारे यहां 36 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई तालाबों के माध्यम से ही होती थी। अब ऐसी भूमि लगभग शून्य के बराबर रह गई है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इन पुराने तालाबों का जीर्णोंद्धार करें और जहां संभव हो, नए तालाब बनवाएं। पेयजल के दुरुपयोग पर भी हमें नियंत्रण लगाना होगा। प्रचार साधनों के माध्यम से हमें जनता के मन में गहराई से यह बात बैठानी होगी कि पानी की एक-एक बूंद कीमती है और इसलिए उसे सोच समझकर ही काम में लें। पानी के लिए भूमि का अत्यधिक दोहन न हो, इसके लिए नलकूपों की खुदाई प्रतिबंधित करनी होगी। आवश्यकता पड़ने पर शहरी क्षेत्रों में सभी जल स्रोतों को प्रशासनिक नियंत्रण में भी लिया जा सकता है। केवल सजावट, प्रदर्शन या फैशन के लिए लगाए जाने वाले बड़े लॉन या फार्म हाउसों को भी नियंत्रित करना होगा।
महानगरों के आसपास फैले या गंदे नालों में बहते मल-जल और उद्योगों द्वारा निष्कासित प्रदूषित जल की तरफ भी हमें ध्यान देना होगा। यह पानी हमारी नदियों में मिलकर उसके पानी को प्रदूषित करता है और धरती पर बिखरे वर्षा-जल में मिलकर उसे भी गंदा करता है। इस पानी को इधर-उधर फैलने से रोककर कहीं निश्चित स्थान पर एकत्रित करना होगा और उसका उपचार करके काम में लेना होगा। यह उपचारित जल अनेक कार्यों में लिया जा सकता है। यह मछली पालन तथा सिंचाई के लिए अत्यंत उपयोगी रहता है। लॉन, फार्म हाउस या पेड़ पौधों के लिए भी यह जल बड़ा उपयोगी है। वर्षा के जल को धरती में पुनर्भरण के लिए हमें योजना बनाकर उसे कठोरता से लागू करना होगा। हमें यह देखना होगा कि वर्षा के माध्यम से प्रकृति हमें जो अत्यंत उपयोगी विशाल जल-भंडार देती है, उसकी एक भी बूंद व्यर्थ नष्ट न हो। अपनी भावी पीढ़ी को एक प्यास मुक्त विश्व देना हमारा दायित्व है।