कुर्ग के बारे में काफी सुना था। गर्मी की छुट्टियों में वक्त मिला तो आनन-फानन में कुर्ग जाने का प्लान बना डाला। मगर रेलवे की टिकट बुक करने में खासी मशक्कत करनी पड़ी। काफी भाग दौड़ और सिफारिशों के बाद मंगलौर तक की रेलवे टिकट बुक करा पाया। मंगलौर से कुर्ग की दूरी है 135 किलोमीटर। यहां से मडिकेरी तक सीधी बसें मिल जाती हैं। मडिकेरी कुर्ग जिले का हेडक्वार्टर है। मंगलौर से बस में मडिकेरी पहुंचने में साढ़े 4 घंटे लगते हैं, करीब इतना ही वक्त मैसूर से मडिकेरी पहुंचने में लगता है। समुद्र तल से 1525 मीटर की उंचाई पर बसा मडिकेरी कर्नाटक के कोडगु जिले का मुख्यालय है। मडिकेरी को दक्षिण का स्कॉटलैंड कहा जाता है। यहां की धुंधली पहाड़ियां, हरे वन, कॉफी के बगान और प्रकृति के खूबसूरत दृश्य मडिकेरी को अविस्मरणीय पर्यटन स्थल बनाते हैं। मडिकेरी और उसके आसपास बहुत से ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल भी हैं। यह मैसूर से 125 किमी. दूर पश्चिम में स्थित है और कॉफी के उद्यानों के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है।
1600 ईस्वी के बाद लिंगायत राजाओं ने कुर्ग में राज किया और मडिकेरी को राजधानी बनाया। मडिकेरी में उन्होंने मिट्टी का किला भी बनवाया। 1785 में टीपू सुल्तान की सेना ने इस साम्राज्य पर कब्जा करके यहां अपना अधिकार जमा लिया। चार वर्ष बाद कुर्ग ने अंग्रेजों की मदद से आजादी हासिल की और राजा वीर राजेन्द्र ने पुर्ननिर्माण का कार्य किया। 1834 ई. में अंग्रेजों ने इस स्थान पर अपना अधिकार कर लिया और यहां के अंतिम शासक पर मुकदमा चलाकर उसे जेल में डाल दिया। कुर्ग अंग्रेजों का दिया नाम है जिसे बदलकर कोडगु कर दिया गया है। यहां की भाषा कूर्गी है। स्थानीय लोग इसे कोडवक्तया कोडवा कहते हैं। मडिकेरी के अलावा कुर्ग के मुख्य इलाके हैं विराजपेट, सोमवारपेट और कुशलनगर। यहां लोगों में एक अलग तरह की खुशमिजाज़ी है, जो आप कुदरत के करीब रहने वाले हर इंसान में देख सकते हैं। दक्षिण भारत के दूसरे इलाकों से कुर्ग हर मायने में अलग है। कूर्गी लोग आमतौर पर गोरे, आकर्षक और अच्छी कद-काठी वाले हैं। लोगों की वेशभूषा भी अलग है। कूर्गी पुरुष काले रंग का एक खास तरह का परिधान पहनते हैं जिसे स्थानीय भाषा में कुप्या कहते हैं। खरीदारी कर रहीं कुछ स्थानीय महिलाएं अलग अंदाज में साड़ी पहने हुए दिखीं, जिसमें वो खूबसूरत लग रही थीं।
स्थानीय तौर तरीकों से वाकिफ होने के लिहाज से हमने मंगलौर से मडिकेरी तक बस में सफर करना उचित समझा। मडिकेरी के कर्नाटक स्टेट ट्रांसपोर्ट के बस स्टैंड से हमारा होटल पांच किलोमीटर की दूरी पर था। होटल पहुँचकर हम तरोताजा हुए और कुछ देर आराम करने के बाद चहल-कदमी करने निकल गए। हमने अपने होटल के जरिए एक स्थानीय टैक्सी चालक मुथु से बात की और उसे अगले दिन सुबह होटल आने को कहा। साफ-सुथरी आबो-हवा, पंछियों की चहचहाहट और होटल के कमरे में कुनकुनाती हुई धूप के बीच मडिकेरी में यह हमारी एक ताजगी भरी सुबह थी। मुथु आज हमें मडिकेरी के आसपास कुछ खास जगहों की सैर कराने वाला था। सबसे पहले हम ओंकारेश्वर मंदिर पहुंचे, जहां घंटियों की गूंज और ईश्वर दर्शन से हमारे दिन का आगाज हुआ। भगवान शिव और विष्णु को समर्पित इस मंदिर की स्थापना हलेरी वंश के राजा लिंगराजेन्द्र द्वितीय ने 1829 ईस्वी में की थी। मान्यता है कि लिंग राजेंद्र ने काशी से शिवलिंग लाकर यहां स्थापित किया। मंदिर में आपको इस्लामिक स्थापत्य शैली की झलक मिलेगी। मंदिर में एक केंद्रीय गुम्बद और चार मीनारें हैं जो बासव अर्थात पवित्र बैलों से घिरी हुई हैं। इसके प्रांगण में एक तालाब है जिसमें कातला प्रजाति की मछलियां हैं। ये तालाब को गंदा होने से बचाती हैं। आप चाहें तो मछलियों को खाना भी खिला सकते हैं। पल भर के लिए पानी से उचक कर बाहर निकलती और खाना लेकर फिर पानी में गुम होती मछलियां। यह मजेदार दृश्य मंदिर को और आकर्षक बनाता है।
मंदिर से निकलकर हम राजा की सीट (गद्दी) की तरफ बढ़े। हरे-भरे बाग के अंदर है राजा की ऐतिहासिक गद्दी। यहां से दूर-दूर फैले हरे धन के खेतों, घाटियों, भूरे-नीले घाटों के दृश्य देखे जा सकते हैं। यह वो जगह है जहां कुर्ग के राजा अपनी शामें बिताया करते थे। पहाड़ियों, बादलों और धुंध के बीच सिमटे कुर्ग का दृश्य देखकर आपका मन बाग-बाग हो जाएगा। बेहतर है कि शाम के समय ही यहां आएं ताकि डूबते सूरज का दिलकश नजारा आपसे छूट न जाए। राजा की सीट के साथ ही चोटी मरियम्मा नामक एक प्राचीन मंदिर है। मडिकेरी में ऐतिहासिक महत्व की कई जगहें हैं और मडिकेरी किला उनमें से एक है। प्रारंभ में यह किला मिट्टी का बना था और इसका निर्माण मुद्दु राजा ने करवाया था। टीपू सुल्तान ने इसका पुनर्निर्माण करके इसमें पत्थरों का इस्तेमाल किया। टीपू सुल्तान ने 18वीं शताब्दी में यहां कुछ समय के लिए शासन किया था। किले के अंदर लिंगायत शासकों का महल है। किले में एक पुरानी जेल, गिरिजाघर और मंदिर भी हैं। गिरिजाघर को म्यूजि़यम में तब्दील कर दिया गया है। छोटे से म्यूजि़यम का चक्कर लगाकर हम किले से बाहर निकल आए।
राजा की कब्रगाह हमारा अगला पड़ाव थी। मडिकेरी से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर एक टीले नुमा मैदान पर हैं राजा वीर राजेंद्र और लिंगराजेंद्र की कब्रगाहें। इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के अलावा प्रकृति-प्रेमियों को भी यह जगह पसंद आएगी। खास बात यह है कि कब्रगाह के अंदर एक शिवलिंग स्थापित है।यहां से हम एबी वॉटरफॉल की तरफ बढ़े। मडिकेरी से 8 किलोमीटर दूर एबी वॉटरफॉल एक निजी कॉफी-एस्टेट के अंदर है। एस्टेट में कदम रखते ही कॉफी, काली-मिर्च, इलायची और दूसरे कई पेड़-पौधों देखने को मिलते हैं। हरियाली और ढलान भरे रास्ते से उतरते हुए हमें कल-कल करते झरने की आवाज सुनाई दी। कुछ कदम चलने के बाद दिखा एबी वॉटरफॉल, जिसके ठीक सामने हैंगिंग ब्रिज यानि झूलता हुआ पुल है। पुल पर खड़े हो जाएं तो झरने से उड़ते छींटे आपको सराबोर कर देते हैं। कुदरत के तोहफे को नजरों में कैद करने का मजा ही कुछ और है। झरनों को पूरे शबाब पर देखना हो तो मानसून से अच्छा वक्त कोई नहीं है। पुल के पास एक इंद्रधनुष नजर आया जिसने माहौल को और दिलकश बना दिया पर कुदरती खूबसूरती के अलावा भी बहुत कुछ है कुर्ग में।
मडिकेरी से 40 किमी. दूर भागमंडल को दक्षिण का काशी भी कहा जाता है। जब से भगन्द महर्षि ने यहां शिवलिंग स्थापित करवाया इसे भागमंडल के नाम से जाना जाता है। यहां तीन नदियों का संगम है। कावेरी, कनिका और सुज्योति। हिंदुओं के लिए यह धार्मिक महत्व की जगह है। पास में ही शिव का प्राचीन भागंदेश्वर मंदिर है। यह केरल शैली में बना खूबसूरत मंदिर है। भागमंडल के समीप ही महाविष्णु, सुब्रमन्यम और गणपति मंदिर भी हैं। आप भागमंडल में ठहरना चाहें तो कर्नाटक टूरिज़्म का यात्रा निवास सस्ती और अच्छी जगह है। भागमंडल से 8 किलोमीटर की दूरी पर है तलकावेरी। यह कावेरी नदी का उद्गम स्थल है। यह ब्रह्मगिरी पहाड़ के ढलान पर स्थित है। समुद्र तल से इस स्थान की ऊंचाई 4500 फीट है। कोडव यानि कुर्ग के लोग कावेरी की पूजा करते हैं। मंदिर के प्रांगण में ब्रह्मकुंडिका है, जो कावेरी का उद्गम स्थान है। इसके सामने एक कुंड है जहां दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालु स्नान करते हैं। कावेरी के सम्मान में यहां हर साल 17 अक्टूबर को कावेरी संक्रमणा का त्योहार मनाया जाता है। यह कुर्ग के बड़े त्योहारों में से एक है। मंदिर के प्रांगण में सीढ़ियां हैं जो आपको एक ऊंची पहाड़ी पर ले जाएंगी। यहां से आप कुर्ग का नयनाभिराम नजारा देख सकते हैं। एक तरफ बिछी हरियाली की चादर है तो दूसरी ओर केरल की पहाड़ियां हैं। नीचे सर्पीली सड़क पर सरकते हुए इक्का-दुक्का वाहन हैं तो ऊपर अठखेलियां करते हुए बादल। नजर घुमाओ तो ब्रह्मगिरी की ऊंची-नीची पहाड़ियों पर कोहरे के बीच घूमती पवन-चक्कियां हैं। ऐसे खूबसूरत नजारे को देखकर समझ में आया कि कुर्ग को भारत का स्कॉटलैंड क्यों कहते हैं। भागमंडल पहुंचने के लिए बेहतर होगा कि आप कोई टैक्सी या जीप कर लें।
शाम ढलने को थी। ऊंची और सुनसान सड़क पर दौड़ती हुए टैक्सी हमें एकांत जगह पर ले आई। यह इगुथप्पा मंदिर था, कोडव लोगों के इष्टदेव इगुथप्पा यानि शिव का मंदिर। कूर्गी भाषा में इगु का मतलब है खाना, और थप्पा का मतलब है देना, इगुथप्पा यानि खाना देना। राजा लिंगराजेंद्र ने 1810 ईस्वी में इस मंदिर का निर्माण करवाया था। मंदिर के पुजारी लव ने बताया कि कोडव लोगों के लिए कावेरी अगर जीवनदायिनी मां है तो इगुथप्पा उनके पालक हैं। प्रसाद के रूप में मंदिर में रोजाना भोजन की भी व्यवस्था है। किसी भी जरूरी कर्मकांड से पहले स्थानीय लोग यहां आकर अपने इष्टदेव से आशीर्वाद लेना नहीं भूलते। हमने भी इगुथप्पा का आशीर्वाद लिया और चेलवरा फाल की तरफ बढ़ गए। चेलवरा कुर्ग के खूबसूरत झरनों में से एक है। यह विराजपेट से करीब 16 किलोमीटर दूर है। एक तंग पगडंडी से होकर चेलवरा फाल तक पहुंचा जाता है। अगर मानसून के वक्त आप यहां आएं तो थोड़ी सावधानी जरूर बरतें। बारिश के दिनों में यह काफी फिसलन भरा होता है। चेलवरा फाल से 2 किलोमीटर आगे चोमकुँड की पहाड़ी है। यहां खूबसूरत नजारों के बीच आप सूरज को ढलता देख सकते हैं।
एशिया का सबसे बड़ा कॉफी उत्पादक
दुनिया में 3 देश कॉफी के बड़े उत्पादक हैं- ब्राजील, वियतनाम और भारत। भारत में कॉफी की खेती की शुरुआत कुर्ग से हुई थी और यह एशिया का सबसे ज्यादा कॉफी उत्पादन करने वाला इलाका है। कॉफी की दो किस्में होती हैं, रोबस्टा और अरेबिका। रोबस्टा कॉफी काफल छोटा जबकि अरेबिका का फल आकार में थोड़ा बड़ा होता है। अरेबिका की फसल को ज्यादा देखभाल की जरूरत होती है। यह कॉफी रोबस्टा से महंगी है। कॉफी और काली मिर्च की खेती कूर्गी लोगों के रोजगार का मुख्य साधन है। इसके अलावा यहां इलायची, केले, चावल और अदरक की खेती भी होती है। कुर्ग के किसान नवंबर-दिसंबर के महीने में पूर्णमासी के दिन हुत्तरी का त्योहार जोशो-खरोश से मनाते हैं। यह फसल का त्योहार है। इस दिन पारंपरिक पोशाकों में सजे-धजे किसान स्थानीय संगीत वालगा की धुन पर थिरकते हैं और अच्छी फसल की दुआ करते हैं। अब चर्चा मडिकेरी के आसपास स्थित कुछ पर्यटन स्थलों की। नागरहोल राष्ट्रीय पार्क- अगर आप वन्य जीवों से रूबरु होना चाहते हैं तो मडिकेरी से 93 किमी. दूर नागरहोल राष्ट्रीय पार्क जरूर जाएं। यहां हिरन, बाइसन, हाथी, जंगली भालू, भेड़िये के अलावा बंदर की विभिन्न प्रजातियों और विशाल टाइगरों को देखा जा सकता है। 284 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैला यह पार्क उष्ण कटिबंधीय पतझड़ वनों से घिरा हुआ है।
इरप्पु झरना-
मडिकेरी से 91 किमी. दूर इरप्पु तीर्थ स्थल के रूप में प्रसिद्ध है जिसका संबंध रामायण के नायक राम से है। रामतीर्थ नदी के किनारे पर ही भगवान शिव का मंदिर है। शिवरात्रि के मौके पर हजारों तीर्थ यात्री इस नदी में डुबकी लगाते हैं।
हरंगी बांध-
मडिकेरी से लगभग 36 किमी. दूर हरंगी अपने ट्री हाउसों के लिए लोकप्रिय है। उत्तरी कुर्ग के कुशलनगर के समीप स्थित हरंगी बांध एक दर्शनीय पिकनिक स्थल है। कावेरी नदी पर बना यह बांध 2775 फीट लंबा और 174 फीट ऊंचा है। नल्कनाद महल- कोडगू की सबसे ऊंची पहाड़ी के तल पर बना नल्कनाद महल अतीत की याद दिलाता एक खूबसूरत पर्यटन स्थल है। मडिकेरी से 45 किमी. दूर यह महल 1792 में डोडा वीरराज द्वारा बनवाया गया था। दो खंड का यह महल अपनी आकर्षक चित्राकारी और वास्तुकारी से सबको मोहित कर देता है।
खरीददारी-
मडिकेरी से आप कॉफी, काली मिर्च, इलायची और शहद खरीद सकते हैं। ये सभी चीजें अच्छी किस्म की हैं और ठीक दाम पर मिल जाती हैं। मौसम हो तो कुर्ग के संतरे जरूर खाएं। यूं तो साल भर कुर्ग का मौसम सुहावना रहता है लेकिन मानसून के दौरान यहां आने से बचें अगर आप मांसाहार के शौकीन हैं तो कुर्ग आपके लिए मुफीद जगह है। लोग ज्यादातर मांसाहारी हैं और चिकन, मटन के अलावा पोर्क यानि सूअर का मांस भी शौक से खाते हैं। माना जाता है कि कूर्गी यूनान के महान राजा सिकंदर की सेना के वंशज हैं। विराजपेट से काकाबे गांव तक जाते हुए हमें सेना के एक रिटायर्ड अधिकारी मिल गए। उन्होंने बताया कि भारतीय सेनाओं में बहुत से अधिकारी और जवान कुर्ग से ही हैं। एक दशक पहले तक कुर्ग के हर घर से एक सदस्य भारतीय सेना में जरूर भर्ती होता था। एक और दिलचस्प बात पता चली कि कुर्ग के लोगों को बंदूक रखने के लिए लाइसेंस की जरूरत नहीं है।
कुर्ग घूमने का उपयुक्त समय है- अक्टूबर से अप्रैल तक।