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नया ज्ञानोदय, मार्च 2004
फरमाइशी बरसात के पैंडुलम के बीच वह आदमी अब भी निरपेक्ष बना हुआ है जिसे बरसात की सबसे ज्यादा जरूरत है। उसकी निगाहें आसमान पर, हाथ बैलों की पीठ और पैर हल के पैडल पर हैं। दूसरों को भोजन देने के लिए उसे बारिश की अभी भी आस है और प्रकृति की सर्वोत्तम भेंट के प्रति आम आदमी की इस उत्साहहीनता से सचमुच किसान “उदास” है।
इस साल तो गजब ही हो गया, बड़े साहबों के ड्राइवर ने सूखे का दौरा करने के लिए जा रही जीप का इंजन-पानी चेक किया ही था, कि आकाश में बादल गरजने लगे, आखिर मुंबई में तीन अलग-अलग संप्रदाय के तीन-तीन व्यक्तियों द्वारा अपने सिर मुंड़वाने का त्याग रंग लाया।एक महीने से “वर्क टू रूल” शैली में सुस्त बैठे इंद्र देवता ने आसमान में पेंडिंग लटकी हुई बादलों की फाइल पर कार्रवाई आरंभ की और उनकी कृपा बरसात के रूप में बरसनी शुरू हुई। इक्कीसवीं सदी के सबसे बड़े ज्योतिषी मौसम विभाग की जान में जान आई, चैनल के समाचार वाचकों को दो मिनट के लिए समाचार का एक्स्ट्रा आइटम मिलने पर संतोष हुआ, “भाड़” पर भीड़ बढ़ने लगी और रसोईघर की कढ़ाही में तेल उड़ेला जाने लगा।
लेकिन मनुष्य बड़ा खब्ती प्राणी, ठंड में उसे ठंड लगती है और गरमी का इंतजार रहता है, गरमी में उसे गरमी लगती है और बरसात का इंतजार रहता है, यदि बरसात न हो तो अल्ला मेघ दे पानी दे गाने लगेगा और यदि दो दिन की झड़ी लग गई तो कहेगा- सूर्य देवता के दर्शन को कितने दिन हो गए। ये कमबख्त पानी रुके, तो घर से बाहर निकलूं। आदमी चाहता है कि पानी उसकी सुविधा के हिसाब से बरसे।
दफ्तर में काम करने वाले बाबू (और बाबी भी) चाहते हैं कि सुबह नौ से दस और शाम छः से सात तक आसमान खुला रहे, ताकि उनकी छतरी के ‘होल’ की ‘पोल’ न खुल सके, अखबार का हॉकर चाहता है कि सुबह पांच से सात तक बरसात न हो, वरना गीले अखबार तो रद्दी और लुगदी के भाव भी नहीं बिकेंगे।
मिल का मजदूर चाहता है कि दोपहर तीन से साढ़े तीन तक पानी नहीं गिरे, नहीं तो फोकट की गैर-हाजिरी लग जाएगी। मिल से छूटने पर रात के ग्यारह से साढ़े ग्यारह भी पानी रुका रहे तो ठीक रहेगा। लकड़ी की टाल वाला चाहता है कि जंगल में तो खूब पानी गिरे ताकि वह पेड़ काटकर कैश जमा कर सके, लेकिन इधर शहर में जरा रुक-रुक कर हो, वरना ग्राहक आएगा ही नहीं।
नवोदित क्रिकेट खिलाड़ी चाहता है कि जब वह प्रैक्टिस करे तब पानी रुका रहे ताकि वह रणजी ट्राफी तक अपना फार्म बरकरार रख राष्ट्रीय टीम में चुना जा सके और अपनी टीम को हरवा कर अपना चयन सार्थक सिद्ध कर सके। हार की ओर बढ़ रहे मैच का कप्तान तत्काल बारिश चाहता है ताकि यह हार ‘ड्रा’ में बदल जाए। जीत की ओर अग्रसर टीम का कप्तान चाहता है ‘थोड़ा रुक जाएगी तो तेरा क्या जाएगा?’ आउटडोर शूटिंग में व्यस्त नायिका चाहती है कि शॉट रेडी होने के बाद बारिश न हो, वरना मेकअप की मेहरबानी से जो चेहरा ब्यूटी क्रीम के विज्ञापनों के ‘उत्तरार्ध’ में दिखाने जैसा है, वह पानी में घुलकर विज्ञापन के ‘पूर्वार्ध’ में दिखने लायक रह जाएगा।
ऐसा नहीं है कि आदमी बरसात रुकवाने पर ही तुला है, कुछ लोग चाहते हैं कि चौबीस घंटे पानी बरसता ही रहे। जैसे-छतरी विक्रेता, दूर से चमड़े का आभास देने वाले नई फैशन के बरसाती जूतों के स्टॉकिस्ट, ऑटोवाले, पानी पतरे का सट्टा खेलने वाले, बारिश में लंगर पर डले हुए ट्रक के क्लीनर, अपनी दिनचर्या से ऊबा हुआ पोस्टमैन, पेचिश और डेंगू के मरीजों की खेप के इंतजार में बैठे डॉक्टर, टिके हुए मेहमान आदि। कुछ के धंधे का दारोमदार मूसलाधार बारिश पर टिका हुआ है तो कुछ का ‘आराम’ भी इसी पर निर्भर है।
कुछ यार लोग तो ऐसी मोटी चमड़ी के होते हैं जिन पर बारिश के होने, ज्यादा होने, या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वे लोग सूखा पड़ा तो जीप में दौरा कर लेंगे। बाढ़ आई तो हेलिकॉप्टर से मुआयना हो जाएगा। कुछ नहीं हुआ तो वृक्षारोफण का कार्यक्रम तो पक्का। समाचार चैनल वाले भी बड़े मजे में हैं। बारिश ज्यादा हुई तो ‘देश में बाढ़ का कहर-एक सौ से ज्यादा लोग मरे’ की डफली बजेगी। यदि सूखा रहा तो ‘सारा उत्तर भारत सूखे की चपेट में- भूख (या लू लगने से) सौ मरे’ कि राग अलापा जाएगा। इन्हीं के साथ बड़े-बड़े साहबों, पिटे हुए चमचों और बिके हुए पत्रकारों की भी हर हालत में ‘चांदी’ ही है।
लेकिन फरमाइशी बरसात के इस पैंडुलम के बीच वह आदमी अब भी निरपेक्ष बना हुआ है जिसे बरसात की सबसे ज्यादा जरूरत है। उसकी निगाहें आसमान पर, हाथ बैलों की पीठ और पैर हल के पैडल पर हैं। दूसरों को भोजन देने के लिए उसे बारिश की अभी भी आस है और प्रकृति की सर्वोत्तम भेंट के प्रति आम आदमी की इस उत्साहहीनता से सचमुच किसान “उदास” है।