जल की महत्ता और कमी वही समझते हैं, जिन्हें बूंद बूंद जल के लिए मोहताज होना पड़ता है या पानी के लिए कई दिनों तक इंतजार करना पड़ता है या फिर मीलों दूर चलना पड़ता है, लेकिन भारत के अधिकांश लोग जल की महत्ता को नहीं समझते और इस्तेमाल से ज्याद पानी बर्बाद करते हैं। जिस कारण देश के 21 राज्य जल संकट से जूझ रहे हैं। बुंदेलखंड में भी ऐसा ही हाल है। यहां लोगों में जागरुकता के अभाव के कारण पानी केवल किताबों तक सीमित रहने की कगार पर पहुंच गया है। यहां स्थिति इतनी भयावह है कि बोरिंग भी फेल है। कुंओं की स्थिति ऐसी हो गई है मानों पानी के नाम पर मुंह चिढ़ा रहे हों। पानी की किल्लत से हर साल बड़ी मात्रा में फसल बर्बाद होती है। किसानों के सामने आजीविका का संकट खड़ा है या यूं कहें कि बुंदेलखंड में पानी को लेकर हाहाकार मचा है, लेकिन बुंदेलखंड के बांदा जिला मुख्यालय से 21 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जखनी गांव पूरे देश के लिए मिसाल बना हुआ है। इस गांव को नीति आयोग द्वारा ‘जल ग्राम’ का दर्जा भी दिया गया है। इसका श्रेय जलयोद्धा उमाशंकर पांडेय को जाता है।
बांदा के जखनी गांव को ‘जल ग्राम’ की उपाधि मिलने के पीछे भले ही उमाशंकर पांडेय की लगन और मेहनत रही हो, लेकिन आइडिया पूर्व राष्ट्रपति दिवंगत डाॅ. एपीजे अब्दुल कलाम का था। दरअसल हुआ यूं कि जलग्राम समिति के संयोजक उमाशंकर पांडेय, जो बुंदेलखंड में दो दशक से सर्वोदय जल ग्राम स्वराज अभियान चला रहे हैं, वर्ष 2005 में जल और ग्राम विकास विषय पर आयोजित एक कार्यशाला में दिल्ली गए थे। वहां तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. एपीजे अब्दुल कलाम ने ऐसा तरीका बताया जिससे बिना पैसे और तकनीक के पानी को बचाया जा सकता था, साथ ही पैदावार भी अच्छी की जा सकती थी। डाॅ. कलाम ने किसानों को खेत पर मेड़ बनाने की सलाह दी थी। यह सुनकर जखनी के किसानों को लगा कि वे तो ऐसा नहीं कर रहे हैं, लेकिन बात इस आइडिया को धरातल पर उतारने की थी।
उमाशंकर पांडेय ने इस आइडिया को धरातल पर उतारा और अपने पांच एकड़ खेत में मेड़ बनाकर पानी रोका। शुरुआत में तो किसानों को इस तरीके पर विश्वास नहीं हुआ। इसका काफी सकारात्मक परिणाम सामने आया और उमाशंकर ने नवंबर में धान, दिसंबर में गेहूं और अप्रैल में दाल-सब्जी की फसलें लीं। इससे प्रेरित होकर पांच किसानों ने भी उमाशंकर का अनुसरण किया, लेकिन फिर धीरे धीरे काफीला बढ़ता गया और करीब 20 किसानों ने आगे आकर अपने अपने खेतों में मेड़ बनाई। इससे खेतों को साल में आठ महीने पानी मिलने लगा। शेष चार महीने मिट्टी में नमी बनी रहती है और मिट्टी की उर्वरक शक्तियां, खनिज लवण बहते नहीं हैं। जल संग्रहण के लिए खेतों में 15 फीट गहरे कुएं भी बनवाए गए। परिणामस्वरूप कुछ समय बाद गांव का जलस्तर बढ़ने लगा। वर्तमान मे जखनी गांव में तीस से अधिक कुएं हैं और यहां पांच फीट पर पानी मिल रहा है। किसान अपनी पसंद की फसल लगाने लगे हैं। पलायन कर चुके दो हजार से अधिक युवा गांव में वापस लौट आए हैं।
गांव में बने करीब तीस कुएं गर्मी के मौसम में पानी से भरे रहते हैं। किसानों को पानी की किसी प्रकार की किल्लत का सामना नहीं करना पड़ता। नतीजन आसपास के हर क्षेत्र में जखनी गांव की सब्जियां मिलती हैं। इस सफलता के कारण नीति आयोग ने जखनी गांव को ‘जल ग्राम’ घोषित किया, जो एक माॅडल गांव के रूप में देश भर के लिए मिसाल है। यहां इजराइल, नेपाल के कृषि वैज्ञानिक और तेलंगाना, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और बांदा विश्वविद्यालय के शोधार्थी शोध करने आ चुके हैं। साथ ही जखनी गांव में इस वर्ष 21 हुजार क्विंटल बासमती पैदा हुआ है, गांववालों ने खुद अगले वर्ष के लिए बासमती चावल की पैदावार का लक्ष्य 25 हजार क्विंटल तय किया है। अब जल संकट से जूझ रहे देश के 1030 गांवों को जखनी गांव की तर्ज पर जल ग्राम बनाने की घोषणा की गई है। यदि देश का हर व्यक्ति और किसान जखनी गांव से सीख ले, तो देश को जल संकट का सामना नहीं करना पड़ेगा।