मैं गंवई गाँव का
वह रेलवे स्टेशन
जहाँ सुखों की एक्सप्रेस
ठहरती नहीं,
धड़धड़ाती निकल जाती है
और हाथ हिलाते रह जाते हैं
इच्छाओं के मारे ग्रामीण जन।
पत्थर की दालान। उजड़ी कुर्सियाँ। हिलते-डुलते गुलमोहर। गाँव का सूना-सूना स्टेशन-यही तो सब कुछ कहता है। सुख की एक्सप्रेस और गाँव के बीच रिश्ते को दार्शनिक और चिन्तक नरेन्द्र शर्मा ने बड़ी खूबसूरती से इन पंक्तियों में उकेरा है। इंदौर-दिल्ली बड़ी लाइन पर उज्जैन के बाद एक कुछ इसी तरह का फ्लैग स्टेशन आता है-माधौपुर। फ्लैग स्टेशन पर भला बड़ी गाड़ियाँ कहाँ रुकती हैं!
...जनाब, पानी की कहानी भी तो कुछ इसी तरह की होती है। आसमान मेघ देता है। हमारी जमीन, पहाड़ बूँदों को सिर आँखों पर लेते हैं। जंगल नहीं रहे। बूँदों की मनुहार कहाँ होगी और कौन करेगा। वे भी ‘सुखों की एक्सप्रेस’ की तरह धड़धड़ाती, किलकारियाँ भरती, कल-कल करती, शोर मचाती- नदी-नालों के माध्यम से निकल जाती हैं। गाँव वाले इन्हें यूँ ही देखते रह जाते हैं। ऐसे गाँव इन चंचल और शोख बूँदों के लिये किसी फ्लैग स्टेशन जैसे ही तो होते हैं।
...रेलवे स्टेशन माधौपुर गाँव भी तो ऐसा ही था। पानी हर साल आता और बहकर चला जाता, लेकिन उसे कोई रोकता नहीं। गाँव को परेशानियों ने घेर रखा था। पानी का नामोनिशान नहीं था। हरियाली भला कहाँ रहने वाली थी। पेड़-पौधे भी बस गिनती के ही थे। खरीफ की फसल के बाद गाँव वालों ने रबी के बारे में सोचना भी बन्द कर दिया था। नब्बे के दशक में जैसे-तैसे एक तालाब बना।
गाँव में पहली बार इस बात की अनुभूति हुई कि इस फ्लैग स्टेशन के पास सुख की एक्सप्रेस यानी पानी को रोकने से क्या लाभ हो सकते हैं। लगभग छः सौ की आबादी वाले इस गाँव में कुमावत, देशवाली, नायता, नायक, हरिजन आदि समाज के लोग बसे हैं। वाटर मिशन के बाद गाँव के समाज ने मिलकर तालाब का जीर्णोद्धार किया। यह तालाब अब नवम्बर में भी लबालब भरा है।
पहले ट्यूबवेल बरसात बाद तुरन्त ही सूख जाया करते थे। वहीं, पानी समिति के अध्यक्ष रामकरण अब कहते हैं- “गाँव के ट्यूबवेल ‘सरपट्टे’ से चल रहे हैं। इनके मार्च तक यों ही अबाध चलने की सम्भावना है।”
...रामकरण हमें पड़ती जमीन में पानी व मिट्टी की मनुहार करने के प्रयोग दिखाते हैं। माधौपुर में 10 हेक्टेयर जमीन पर समाज ने पड़त भूमि विकास का कार्य किया है। प्रोसोसिस व रतनजोत के पौधे दिखाई देते हैं। घास भी प्रचुर मात्रा में हो रही है। रामकरण और स्थानीय समाज बताता है कि औसतन 10 हजार घास के पुले यहाँ से निकल जाते हैं।
रामकरण कहते हैं- “गाँव में पर्यावरण सुधार का भी उल्लेखनीय कार्य चल रहा है। पूरे गाँव को धुआँरहित कर दिया गया है। उन्नत चूल्हे घर-घर लगा दिए गए हैं। इससे लकड़ी की भी बचत हो रही है।” महिलाओं का स्वास्थ्य भी अब सुधरा है। महिलाओं का एक समूह नर्सरी भी संचालित कर रहा है।
गत साल 36 हजार पौधे तैयार किए गए। तीन रुपये प्रति पौधे के हिसाब से बेचने पर एक लाख आठ हजार रुपये की आय हुई। 16 हजार रुपये बीज आदि के कम करने पर 92 हजार रुपये की बचत हुई, जिससे प्रत्येक महिला को 18 हजार रुपये का मुनाफा इस नर्सरी के संचालन से मात्र 9 महीनों की अवधि में हुआ।
पानी समिति अध्यक्ष रामकरण खुद भी एक नर्सरी तैयार कर रहे हैं। उनकी इच्छा है कि वे 20 हजार पौधे क्षेत्र में निःशुल्क रूप से वितरित करें ताकि आस-पास के पर्यावरण को लाभ पहुँचे।
...गाँव में दो जल योद्धा भी हैं, जिन्होंने अपनी निजी जमीन पर 5-5 डबरियाँ बनाई हैं। ये हैं, शिवनारायण कुमावत और बाबूलाल भैराजी!
...माधौपुर में पानी की कहानी अभी जारी है। 60 डबरियाँ और बनाये जाने की प्रक्रिया चल रही है। यहाँ श्रृंखलाबद्ध दो तालाब और प्रस्तावित हैं। सभी जल संरचनाओं में पचहत्तर प्रतिशत पानी और रोकने का प्रयास किया जा रहा है।
...माधौपुर में धड़धड़ाती एक्सप्रेस भले ही नहीं रुके, लेकिन पानी की ‘एक्सप्रेस’ को यहाँ रोकने की कोशिश की जा रही है। जब यह अभियान पूर्ण रूप से सफल हो जाएगा तो गाँव की गरीबी अपने आप अलविदा हो जाएगी। पानी का सुकून हर चेहरे पर नजर आएगा।
...तब इस फ्लैग स्टेशन को आप क्या कहना पसन्द करेंगे?
...बूँदों का जंक्शन,
जहाँ पानी की
एक्सप्रेस
समाज की पहल से
रोकी जाती है!!
बूँदों के तीर्थ (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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